बड़बोलेपन की राष्ट्रीय प्रतियोगिता
समाज में चेहरे और चरित्रों की विविधता है। कुछ चुप्पे होते हैं कुछ बड़बोले। चुप्पे शब्दों का प्रयोग ऐसे करते हैं, जैसे वे शब्द न होकर चांदी-सोने के सिक्के हों। बड़बोला तिल का ताड़ बनाता है। सामान्य हालात...
समाज में चेहरे और चरित्रों की विविधता है। कुछ चुप्पे होते हैं कुछ बड़बोले। चुप्पे शब्दों का प्रयोग ऐसे करते हैं, जैसे वे शब्द न होकर चांदी-सोने के सिक्के हों। बड़बोला तिल का ताड़ बनाता है। सामान्य हालात में यह व्यक्तियों के स्वभाव का द्योतक है, पर चुनाव-काल प्रजातांत्रिक देश के समय का ऐसा मोड़ है, जब हर क्षेत्रीय-राष्ट्रीय दल पर बड़बोलेपन का भूत सवार होता है। छोटी-सी घरेलू गौरैया अचानक गिद्ध बनती है। ‘सत्ता दल ने हमें ठगा। हमारे हटने से अब उसकी पहचान का संकट आया है। हर चुनाव में यूं हमारे भले तीन-चार विधायक ही चुने जाते हों, पर इस गठबंधन में हम बहुमत लाकर दिखाएंगे।’ सुनकर, अनुभवी पत्रकार समेत सब आश्चर्यचकित हैं। इस कूड़ाघर की टोकरी को अचानक क्या हो गया कि यह स्वयंको हिमालय की चोटी समझने लगी?
अनुभवी नेता जानता है कि चुनाव-काल सियासी दलों का भ्रम काल है। सब सत्ता के मुगालते में ऐसे मगन हैं, जैसे रेंगती चींटी के पर उगें और वह आसमान में चील से प्रतियोगिता करे। समाज में जातीयता का जहर घोलने के बावजूद उसे यकीन है कि वह सामाजिक सौहार्द बढ़ा रहा है। ऐसा नहीं कि जनता उसकी असलियत से परिचित नहीं, वह तो रुचि से तमाशबीन है। उसे फ्री के तमाशों का शौक है। इनकी तुलना में स्मार्टफोन के वीडियो, चाहे कितने रुचिकर हों, पर महंगे हैं। बड़ा नेता क्षेत्रीय परिधान में साफे से सजा स्वयं मनोरंजन का पात्र है। फ्री फंडिया दिल-बहलाव के शौकीन उमड़ते हैं, इसके दर्शन के लिए। हर बार जब वह सत्ता दल के आका की आलोचना के अपने प्रिय विषय पर मुखर होता है, जनता ताली पीटती है। वह उत्साह से प्रेरित सनद देता है कि ‘इस दल ने झूठ के विश्वविद्यालय से पीएचडी की है। इसका लक्ष्य हिन्दुस्तान को झूठिस्तान बनाना है।’
यक्ष प्रश्न यही है। क्या तमाशबीन भीड़ उसके आलोचक व्यक्तित्व से ऐसी प्रभावित है कि उसे वोट से कृतार्थ कर स्वयं को धन्य समझेगी?
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