क्रोध की आग विनाशकारी
क्रोध को अग्नि के समान क्यों कहा गया है, क्योंकि इसमें इंसान खुद तो धधकता ही है, उसका क्रोध आस-पास के लोगों में भी क्रोध की चिनगारी सुलगा देता है। यह सबसे पहले मनुष्य के विवेक को भस्म करता...
क्रोध को अग्नि के समान क्यों कहा गया है, क्योंकि इसमें इंसान खुद तो धधकता ही है, उसका क्रोध आस-पास के लोगों में भी क्रोध की चिनगारी सुलगा देता है। यह सबसे पहले मनुष्य के विवेक को भस्म करता है।
एक बार गौतम बुद्ध अपने शिष्यों के साथ भ्रमण कर रहे थे। चलते-चलते वह एक गांव के बगीचे में पहुंचे। बुद्ध के आने की खबर आसपास के गांवों में भी पहुंच गई। उनके दर्शन और उनकी अमृतवाणी सुनने के लिए लोग बगीचे में उमड़ आए। बुद्ध अपने शिष्यों के साथ मौन बैठे थे। जब काफी देर हो गई, तो शिष्यों को लगा कि तथागत कहीं अस्वस्थ तो नहीं हैं। आखिर एक शिष्य ने उनसे पूछ ही लिया, ‘तथागत! आज आप शांत क्यों हैं? आपको सुनने की प्रतीक्षा में हजारों लोग बैठे हैं। क्या हमसे कोई गलती हो गई है?’ बुद्ध ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह मौन रहे। सच यह था कि हर पल आनंद में स्थित बुद्ध न तो नाराज थे और न ही अस्वस्थ। वह तो सभा में आए हजारों लोगों के चित्त के चित्र को अपने ध्यानस्थ नेत्रों से देख रहे थे कि प्रत्येक दर्शनार्थी के मन में क्या चल रहा है? उसके चित्त की दशा क्या है? बुद्ध अपने तरीके से लोगों की मानसिक उलझनों को दूर करने तथा उनकी समस्याओं का व्यावहारिक समाधान सुझाने के प्रयास करते थे।
इसी बीच पीछे खड़ा एक व्यक्ति जोर से चिल्लाया, मुझे सभा में बैठने की अनुमति क्यों नहीं दी गई है? एक शिष्य बोल उठा कि उस व्यक्ति को सभा में आने की अनुमति प्रदान की जाए। बुद्ध मौन से बाहर आए और बोले- नहीं! उसे सभा में आने की आज्ञा नहीं दी जा सकती। यह सुनकर शिष्यों के साथ वहां बैठे लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। करुणा और प्रेम की प्रतिमूर्ति महात्मा बुद्ध द्वारा किसी को अनुमति न दिया जाना सबके लिए आश्चर्यजनक था। बुद्ध की निगाह में तो मानव मानव में कोई भेद न था।
बुद्ध ने कहा- ‘इस व्यक्ति के भीतर क्रोध की ज्वाला धधक रही है। क्रोध हिंसा का प्रकट रूप है। जिस व्यक्ति में क्रोधाग्नि जल रही है, वह अहिंसक हो ही नहीं सकता। इसलिए ऐसे व्यक्ति को सभा, समूह और समाज से दूर ही रहना चाहिए।’ उस व्यक्ति को अपनी गलती का एहसास हो चुका था। वह दौड़ते हुए आया और बुद्ध के चरणों में गिरकर बिलखने लगा। बुद्ध उसके सिर पर प्रेम से हाथ फेरते हुए बोले- वत्स! क्रोध उस दहकते हुए कोयले के समान है, जिसे व्यक्ति दूसरों को जलाने के लिए अपने मन में रखे रहता है और उससे हर पल वह स्वयं ही जलता है, इसलिए इससे बाहर निकलो। अपने अंदर प्रेम, करुणा और सहिष्णुता के जल को भरकर इसे सदा-सदा के लिए बुझा सकते हो। इसके बुझते ही तुमको शांति मिलेगी और तुम्हें अपने अंदर से सुख की प्राप्ति होने लगेगी।
सुभाष चंद्र शर्मा
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