सुख की गहरी प्यास
स्थायी सुख पाने की लालसा प्रत्येक जीव का स्वभाव है। यह हरेक व्यक्ति का धर्म है। धर्म शब्द का अर्थ है ‘विशेषता’। इसे आप स्वभाव भी कह सकते हैं। अग्नि का स्वभाव है जलाना या गरमी पैदा करना...
स्थायी सुख पाने की लालसा प्रत्येक जीव का स्वभाव है। यह हरेक व्यक्ति का धर्म है। धर्म शब्द का अर्थ है ‘विशेषता’। इसे आप स्वभाव भी कह सकते हैं। अग्नि का स्वभाव है जलाना या गरमी पैदा करना। इसी तरह, मनुष्य का धर्म या स्वभाव है, ब्रह्मांडीय सत्ता की खोज करना। उसमें देवता का गुण कितना है, यह उसकी चेतना से पता चलता है। मनुष्य पशु से विकसित हुआ है। इसके दो पहलू होते हैं- पशु पहलू और चेतन पहलू। चेतन पहलू व्यक्ति को पाशविकता से अलग करता है। पशुओं में पशुता प्रदर्शित होती है, जबकि मनुष्य चेतन होने के कारण विवेकशील होता है।
पशुता मनुष्य को भौतिक भोग की ओर झुकाती है। इसके प्रभाव में मनुष्य खाने-पीने और अन्य भौतिक इच्छाओं की पूर्ति की ओर देखता है। वह इनकी ओर आकर्षित होता है और पशुता के प्रभाव में इनके पीछे भागता है, लेकिन ये चीजें उसे सुख नहीं देतीं, क्योंकि भौतिक सुख की उसकी लालसा अनंत होती है। पशु सीमित भोगों से संतुष्ट रहते हैं, क्योंकि उनकी इच्छा अनंत नहीं होती। पशु को चाहे जितनी भी चीजें दी जाएं, वह केवल उतनी ही चीजें लेगा, जितनी उसे चाहिए और बाकी चीजों की चिंता नहीं करेगा। लेकिन मनुष्य इन परिस्थितियों में बिल्कुल अलग तरह से व्यवहार करेगा। हालांकि, दोनों में भोग की इच्छा जीवन के पशु पहलू से प्रेरित और नियंत्रित होती है। दोनों पहलुओं में अंतर मनुष्य ही कर सकता है, क्योंकि मनुष्य चेतना का स्वामी है। यह चेतना ही है, जो स्वामित्व, शक्ति और पद के भौतिक सुख से संतुष्ट नहीं होती। ये चीजें अपने विशाल आकार के बावजूद क्षणभंगुर प्रकृति की हैं। इसलिए चेतना मनुष्य में ब्रह्मांडीय इकाई के लिए लालसा पैदा करती है।
सांसारिक वस्तुएं मानव हृदय की सुख की प्यास को कभी नहीं बुझा सकतीं। फिर भी हम पाते हैं कि लोग उनसे आकर्षित होते हैं। मनुष्य की पशुता उसे इच्छाओं की तृप्ति की ओर खींचती है, लेकिन उसकी चेतना की अनंत और असीमित भूख इन बाहरी चीजों से कभी नहीं मिटती। इस प्रकार, मनुष्य में पशुता और तर्कबुद्धि का द्वंद्व निरंतर चलता रहता है। उसका पशुवत पहलू उसे तात्कालिक सांसारिक सुखों की ओर खींचता है, जबकि उसकी चेतना इनसे संतुष्ट न होकर उसे ब्रह्मांडीय सत्ता, यानी अनंत की ओर खींचती है।
गौर कीजिए, यदि धन-दौलत, सत्ता और पद से प्राप्त होने वाले भौतिक सुख अनंत और अंतहीन होते, तो वे सुख के लिए चेतना की शाश्वत खोज को समाप्त कर देते। लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाते और यही कारण है कि लौकिक सुखों की क्षणभंगुर महिमा कभी भी मानव मन में स्थायी शांति सुनिश्चित नहीं कर सकती और लोगों को परमानंद की ओर नहीं ले जा सकती।
श्री श्री आनंदमूर्ति
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