कुछ पाने की प्रबल चाह
जल की भांति ज्ञान, बुद्धि, कौशल, आशीर्वाद आदि में प्रवाह ऊपर से नीचे, संपन्न से विपन्न की ओर रहता है। देवी-देवताओं और सिद्ध जनों से कुछ ग्रहण करके हम अपना जीवन संवार सकते हैं, शर्त है कि लाभार्थी...
जल की भांति ज्ञान, बुद्धि, कौशल, आशीर्वाद आदि में प्रवाह ऊपर से नीचे, संपन्न से विपन्न की ओर रहता है। देवी-देवताओं और सिद्ध जनों से कुछ ग्रहण करके हम अपना जीवन संवार सकते हैं, शर्त है कि लाभार्थी में पाने की प्रबल चाहत हो। भक्ति परंपरा का यही सिद्धांत है। यह समझते हुए कि जिस कुएं से जल न निकाला जाए, उसका जल सूख जाता है, ज्ञानी-विज्ञानी, हुनरमंद, संत और सयाने लोग अपना अर्जित ज्ञान या कौशल योग्य व्यक्तियों से साझा करना चाहते हैं, बल्कि वे उचित पात्र की बाट जोहते हैं। किंतु लाभार्थी के खरेपन से संतुष्ट हुए बिना प्रभु सहित कोई दाता ज्ञान, बुद्धि या आशीर्वाद नहीं बरसाता।
समृद्धि के द्वार तभी खुलते हैं, जब उन्नति की भावना दहकती-फड़कती हो, दाता के प्रति अगाध निष्ठा और समर्पण हो, उसकी मंशा या कार्यविधि पर संदेह लेशमात्र न हो। दाता को दिखावटी आचरण नहीं सुहाता, वह छद्म और वास्तविक में भेद समझता है। लाभार्थी को हाथ नीचे रखना होगा। उसे ज्ञान का अहंकार है, तो वह ग्रहण करने में अक्षम होगा। सुमार्ग पर प्रशस्त रहने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंत:करण की दुर्गा को जाग्रत रखना होगा। प्रसंग है, अत्यंत बलशाली, वरदान-प्राप्त महिषासुर के आतंक से पृथ्वी पर त्राहि-त्राहि मची थी और उसका विनाश आवश्यक था। राक्षसों की पराजय के निमित्त त्रिदेवों ने समेकित प्रयास से मां दुर्गा की उत्पत्ति की। सभी देवों ने अपने-अपने अमोघ अस्त्र प्रदान कर देवी को शक्ति-संपन्न बनाया और आसुरी साम्राज्य ध्वस्त किया गया। दशमी को समाप्त नवरात्रि में आसुरी भावों के उन्मूलन और सन्मार्ग पर चलने का संदेश है।
देवी-देवताओं की भांति सिद्ध पुरुष भी शक्ति के पुंज होते हैं। देवताओं और सिद्ध जनों को छोड़िए, दाता साधारण स्तर का हो, तब भी एक अन्य संबंध है, जिसमें मजबूती से बंधकर लाभार्थी को भारी लाभ मिलता है और वह है प्रेम का संबंध। भक्त में प्रेम और निष्ठा हो, तो प्रभु उसके हित में अपने नियम भी बदल डालते हैं और प्रार्थी को अभीष्ट वस्तु या कृपादृष्टि सहज प्राप्त हो जाती है।
जीवन में जो भी सर्वाधिक मूल्यवान है, उसे पाने के लिए लक्ष्य की स्पष्टता व परालौकिक शक्ति का संबल चाहिए, जो हमें उन देवों, पितरों व परिजनों से मिलता है, जो हमारी सोच, दिशा और कार्यों से आश्वस्त होते हैं और यह स्थिति तब बनेगी, जब हम उनसे अपने सरोकार साझा करेंगे और हमारे अहम कार्यों के पीछे उच्च शक्तियों का अनुमोदन होगा। मोहल्ले की देवी भी तभी तृप्त होगी, जब घर की मां प्रसन्न रहेगी। सेवा भाव से तुष्ट देवी का आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं जाता। इसलिए हमें श्रद्धा से अनुकूल वातावरण बनाकर उनकी कृपा दृष्टि का आह्वान करना चाहिए।
हरीश बड़थ्वाल
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