आलोचना नहीं, जागरूकता

कभी आपने सोचा है कि हम आलोचना करते क्यों हैं? हम किसी को समझने के लिए ऐसा करते हैं या यह केवल छिद्रान्वेषण, मीन-मेख निकालने की प्रक्रिया है? आपकी आलोचना करने से क्या मैं आपको समझ पाऊंगा...

Pankaj Tomar हिन्दुस्तान, Mon, 7 Oct 2024 10:11 PM
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आलोचना नहीं, जागरूकता

कभी आपने सोचा है कि हम आलोचना करते क्यों हैं? हम किसी को समझने के लिए ऐसा करते हैं या यह केवल छिद्रान्वेषण, मीन-मेख निकालने की प्रक्रिया है? आपकी आलोचना करने से क्या मैं आपको समझ पाऊंगा? क्या समझ मूल्यांकन के जरिये आती है? यदि मैं आपके साथ अपने रिश्ते के मर्म को गहराई से समझना चाहता हूं, तो क्या मैं आपकी आलोचना करने लगता हूं या आपके और अपने संबंध का अवलोकन करते हुए इसके प्रति सजग रहता हूं?
दरअसल, मूल प्रश्न यही है कि मन और हृदय की वह कौन सी अवस्था है, जो संबंध को समझने के लिए आवश्यक है? समझ की प्रक्रिया क्या है? आप अपने बच्चे को कैसे समझते हैं, यदि आपकी उसमें रुचि है? आप अवलोकन करते हैैं। आप खेलते समय उसका अवलोकन करते हैं, अलग-अलग मन:स्थितियों में उसका अध्ययन करते हैं। आप उसके ऊपर अपनी सम्मति नहीं लादते। आप यह नहीं कहते कि उसे यह या वह होना चाहिए। बस उसका सतर्कता से निरीक्षण करते हैं। करते हैं न? जब आप पूरी सक्रियता से जागरूक होते हैं, तब अपने बच्चे को समझना आरंभ करते हैं। 
यदि आप निरंतर आलोचना करते रहें, अपने खास व्यक्तित्व को, रुझानों, सम्मतियों को आरोपित करें, निरंतर यह तय करें कि उसे यह करना चाहिए, वह नहीं करना चाहिए, तो स्पष्ट है कि आप उस संबंध में अवरोध खडे़ कर लेंगे। दुर्भाग्य से, हममें से अधिकतर लोग किसी को अपनी इच्छानुरूप ढालने के लिए, हस्तक्षेप करने के लिए आलोचना करते हैं। किसी भी स्थिति को, जैसे पति, संतान और किसी के साथ रिश्ते को मनचाहा आकार देने में बड़ा सुख मिलता है, तुष्टि मिलती है या इसमें आपको एक प्रकार की सत्ता-शक्ति का एहसास होता है। निस्संदेह, इन सारी प्रक्रियाओं द्वारा संबंध को नहीं समझा जा सकता। इसमें केवल आरोपण है और इस सबसे संबंध को समझने में बाधा पड़ती है। 
तो क्या अपने प्रति आलोचक होने, स्वयं अपनी निंदा करने से स्वयं को समझा जा सकता है? जब मैं अपनी आलोचना करना आरंभ करता हूं, तब क्या यह अन्वेषण की प्रक्रिया को सीमित नहीं कर देता? क्या अंतर्निरीक्षण स्व को उघाड़ता है? स्व का यह अनावरण किससे संभव होता है? निरंतर विश्लेषण करते रहने, आलोचना में लगे रहने से अनावरण संभव नहीं है। स्व को समझने के लिए स्व का अनावरण, उसका जाहिर होना आवश्यक है और यह तभी संभव होता है, जब आप स्व के प्रति निरंतर जागरूक हों, जिसमें कोई निंदा न हो, कोई तादात्म्य न हो। इसमें एक प्रकार की सहजता अनिवार्य है। यह सहजता समझ के लिए अनिवार्य है। समझ तभी संभव है, जब मन मौन जागरूक होता है। 
जे कृष्णमूर्ति 

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