सिर्फ अमृत से मतलब
- लोग कितनी घृणा और मूर्खता को सजा-संवारकर पैक करने और उस पर ‘धर्म’ का लेबल लगाने में सफल हो जाते हैं! धार्मिक संप्रदायों के झगडे़ ऐसे ही हैं, जैसे इस बात पर झगड़ा करना कि किन्हीं खास बर्तनों में ही अमरता प्रदान करने वाले अमृत को रखने दिया…
लोग कितनी घृणा और मूर्खता को सजा-संवारकर पैक करने और उस पर ‘धर्म’ का लेबल लगाने में सफल हो जाते हैं! धार्मिक संप्रदायों के झगडे़ ऐसे ही हैं, जैसे इस बात पर झगड़ा करना कि किन्हीं खास बर्तनों में ही अमरता प्रदान करने वाले अमृत को रखने दिया जाएगा। उन्हें झगड़ा करने दो, हमें तो मतलब है बस अमृत पाने से, वह चाहे किसी बर्तन में हो, और अमरता प्राप्त करने से।
अतीत के सांचे को भले तोड़ डालो, पर उसकी उपलब्धियों और आत्मा को बरकरार रखो, नहीं तो तुम्हारा कोई भविष्य नहीं है। दो ही ऐसे हैं, जिनके लिए आशा की जा सकती है, उस व्यक्ति के लिए, जिसने ईश्वर के स्पर्श का अनुभव किया है और जो उसकी ओर आकर्षित हुआ है, और दूसरा संशयात्मा जिज्ञासु तथा स्वत: आश्वस्त नास्तिक के लिए, किंतु सभी धर्मों के नुस्खेबाजों और स्वतंत्र विचार के तोता रटंतों के लिए कोई आशा नहीं बांधी जा सकती, उनकी आत्माएं तो मर चुकी हैं; वे बस मृत्यु का अनुसरण करते हैं, जिसे वे जीवित बताते हैं।
ऐसा रामकृष्ण ने कहा और ऐसा विवेकानंद ने कहा। ठीक है, पर मुझे उन सत्यों के विषय में भी जानने दो, जिन्हें अवतार ने शब्दों में नहीं ढाला और जिन्हें पैगंबर अपनी सीख में शामिल करना भूल गया है। आदमी का विचार जहां तक सोच पाया होगा अथवा उसकी वाणी से जहां तक निकल पाया होगा, उससे हमेशा कहीं ज्यादा ईश्वर में निहित होगा। मध्यकालीन तपस्वी ्त्रिरयों से घृणा करते थे और सोचते थे कि ईश्वर ने उनकी रचना संन्यासियों के प्रलोभन के लिए की है। ईश्वर के संबंध में और नारी के संबंध को और उदात्त रूप से सोचने देना चाहिए।
श्री अरविंद
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