बुराई और अपराध बोध
- कर्म की प्रकृति आपके द्वारा किए गए काम में नहीं होती। जिन संकल्पों, मनोवृत्तियों और जिस तरह के मन को आप साथ लेकर चलते हैं, वही आपका कर्म है…
कर्म की प्रकृति आपके द्वारा किए गए काम में नहीं होती। जिन संकल्पों, मनोवृत्तियों और जिस तरह के मन को आप साथ लेकर चलते हैं, वही आपका कर्म है।
रामकृष्ण अक्सर एक कहानी सुनाया करते थे। दो मित्र थे। वे हरेक शनिवार की शाम एक वेश्या के पास जाया करते थे। एक शाम जब वे उसके घर जा रहे थे, तब रास्ते में किसी का आध्यात्मिक प्रवचन चल रहा था। एक मित्र ने कहा, वह प्रवचन सुनना पसंद करेगा। दूसरा मित्र उसे वहीं छोड़ बढ़ चला। अब प्रवचन में जो व्यक्ति बैठा था, वह दूसरे मित्र के विचारों में डूबा हुआ था। वह सोचने लगा कि मेरा मित्र अभी जीवन के आनंद ले रहा होगा और मैं एक खुश्क जगह में फंस गया हूं। जो मित्र वेश्या के पास बैठा था, उसका दिमाग भी पहले मित्र में लगा हुआ था। वह सोच रहा था, उसके मित्र ने आध्यात्मिक प्रवचन में बैठकर मुक्ति का मार्ग चुना, जबकि वह गंदगी में फंसा हुआ है। आध्यात्मिक प्रवचन में बैठे व्यक्ति ने वेश्या के बारे में सोचकर बुरे कर्म बटोरकर कीमत चुकाई। अब वही दुख भोगेगा, दूसरा नहीं। आप कीमत इसलिए नहीं चुकाते कि वेश्या के यहां जाते हैं; आपको कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि आप चालाकी करते हैं। आप वहां जाना चाहते हैं, लेकिन सोचते हैं कि प्रवचन में जाने से स्वर्ग के एक कदम नजदीक पहुंच जाएंगे। यह चालाकी आपको नरक में ले जाएगी।
अभी आप समाज के नैतिक नियमों के कारण ही अच्छे और बुरे के बारे में सोचते हैं। आपका स्वभाव आप से यह नहीं कह रहा कि यह सही है और वह गलत है। बात बस इतनी है कि समाज ने कुछ नियम बनाए हैं और वह हमेशा से कहता आया है कि यदि आप उनको तोड़ेंगे, तो बुरे कहलाएंगे। इसलिए आप जब भी समाज के नियमों को तोड़ते हैं, तो खुद को एक बुरा बच्चा महसूस करने लगते हैं।
आप जैसा महसूस करते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। मान लीजिए, आप जुआ खेलने के आदी हैं। हो सकता है, मां या पत्नी के सामने या अपने घर में जुआ खेलना या जुआ शब्द मुंह से निकालना आपको पाप लगे, लेकिन जैसे ही आप अपने दोस्तों से मिलते हैं, तो जुआ खेलना एकदम ठीक लगने लगता है। जुआरियों के बीच जो व्यक्ति जुआ नहीं खेलता, वह जीने के काबिल नहीं है। कार्मिक वस्तु, ठीक उसी प्रकार होती है, जिस तरह से आप उसे महसूस करते हैं। आप जो कर रहे हैं, उससे इसका संबंध नहीं है। जिस तरीके से आप उसे अपने दिमाग में ढोते हैं, उसका संबंध केवल उसी से है। हम हमेशा स्वीकृति की बात क्यों करते हैं, क्योंकि जब आप पूर्ण स्वीकृति में होते हैं, तो जीवन जो भी मांगता है, आप उसे सहज करते हैं।
सद्गुरु जग्गी वासुदेव
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