Hindi Newsओपिनियन जीना इसी का नाम हैhindustan jeena isi ka naam hai column will heal not only the body but also the soul 1 september 2024

शरीर ही नहीं, रूह पर भी मरहम रखती किलेंगा

सहस्राब्दियों पहले धर्मराज युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा था, संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने जो जवाब दिया, हममें से बहुत सारे लोगों को वह पता है। धर्मराज ने कहा था- यह जानते हुए कि सबको...

Pankaj Tomar ली किलेंगा, सामाजिक कार्यकर्ता, Sat, 31 Aug 2024 08:21 PM
share Share
Follow Us on
शरीर ही नहीं, रूह पर भी मरहम रखती किलेंगा

सहस्राब्दियों पहले धर्मराज युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा था, संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने जो जवाब दिया, हममें से बहुत सारे लोगों को वह पता है। धर्मराज ने कहा था- यह जानते हुए कि सबको एक दिन मर जाना है, इंसान तमाम उम्र कभी न मरने की कामना करता रहता है। गालिब के यहां जो रात भर नींद न आने की बेचैनी है, वह वही युधिष्ठिर वाली हैरानी है- मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती। धर्मराज ने तो भौतिक काया के प्रति मनुष्य की आसक्ति को रेखांकित किया था, मगर जिसने भी उनके उत्तर का मर्म समझा, वह अपने कर्म से अमरत्व पाने में जुट गया। ली किलेंगा ने भले भारतीय साहित्य को न पढ़ा हो, मगर उनकी जिंदगी इस वैश्विक दर्शन से प्रेरित है।
पूर्वी अफ्रीकी देश केन्या के तावेता शहर में आज से करीब 35 साल पहले किलेंगा पैदा हुईं। अपनी बहनों की तरह वह भी ‘सिकल सेल एनीमिया’ के साथ जन्मीं। इस वंशानुगत बीमारी से ग्रसित लोगों में लाल रक्त कोशिकाएं गलत आकार की होती हैं, जिसके कारण शरीर के अलग-अलग अंगों में रक्त का प्रवाह बाधित होता है और मरीज को भारी दर्द होता है। इसके शिकार लोगों को फेफड़े, आंख, गुर्दे आदि से जुड़ी कई तरह की जटिल समस्याएं हो सकती हैं। किलेंगा के चार भाई-बहनों में से तीन यह रोग लेकर इस दुनिया में आए। वह जब चार साल की थीं, तभी सबसे बड़ी बहन ने दम तोड़ दिया था।
इस नन्ही आयु में रोग और मौत जैसी बातें कहां समझ में आनी थीं, बस एक दिन बड़ी बहन का दिखना बंद हो गया। किलेंगा और उनकी दूसरी बहन के शरीर में भी रह-रहकर असह्य दर्द उठता था और उन्हें अक्सर अस्पताल ले जाना पड़ता। डॉक्टरों ने माता-पिता को आगाह कर दिया था कि ली किलेंगा भी बहुत ज्यादा वर्षों तक साथ उनका नहीं निभाएंगी। उन्होंने ज्यादा से ज्यादा सात-आठ साल की मोहलत दी थी, मगर सबसे बड़ा कारसाज तो ऊपर बैठा है। उसने किलेंगा के लिए कुछ और लिख रखा था। सिकल सेल एनीमिया के मरीजों की तादाद अफ्रीकी देशों में बहुत ज्यादा है, बल्कि इसके 66 प्रतिशत मरीज अफ्रीका में ही हैं और इसको लेकर वहां पर सामाजिक वर्जनाएं भी कम नहीं।
किलेंगा व उनकी बहनों की रातें दर्द में कराहते, जागते कटतीं। उन्हें रोजाना दवा लेनी पड़ती थी और हर पखवाडे़ खून की जांच के लिए अस्पताल जाना पड़ता था। इसे देखकर उन्हें यही लगता कि ऐसा सभी बच्चों के साथ होता है। लेकिन एक दिन स्कूल में तब धक्का लगा, जब किसी सहपाठी ने दूसरे बच्चों को उनके साथ बैठने से रोक दिया। उसने हिकारत भरी नजरों से देखते हुए सबको बताया कि किलेंगा को संक्रामक बीमारी है और जो भी उनके साथ बैठेगा, उसे यह रोग हो जाएगा। उसके बाद उनके पास बैठना तो दूर, उनसे बात करना भी साथियों को गवारा न हुआ। इस बर्ताव से मन को गहरी चोट लगी। किलेंगा तीन महीने तक स्कूल नहीं गईं। 
मगर माता-पिता ने अपनी बेटी के हृदय की इस चोट पर स्नेह और देखभाल का ऐसा लेप लगाया कि वह चोट कभी नासूर न बन सकी। उन्होंने इस रोग के बारे में न सिर्फ खुद को जागरूक किया, बल्कि अपने सभी बच्चों को पढ़ने-लिखने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। डॉक्टरों ने किलेंगा को बताया था कि सिकल सेल एनीमिया के पीड़ितों के शरीर का कोई अहम अंग 40 की उम्र के बाद पूरी तरह खराब हो सकता है, लिहाजा स्नातक करते ही उन्होंने फैसला किया कि वह केन्या भर में इस रोग से पीड़ित बच्चों व उनके परिवारों से मिलेंगी; अब जो भी जिंदगी है, उन्हें ही समर्पित करेंगी। 
ली किलेंगा ने शुरुआत में देश के दस हजार रोगियों और उनके परिवार के अनुभव बटोरने का फैसला किया, मगर 400वें साक्षात्कार के दौरान उन्हें ऐसा दर्दनाक अनुभव हुआ कि उन्होंने अपनी वह मुहिम वहीं रोक दी। उन्होंने एक गांव में देखा कि इस रोग के कारण दर्द से रोते-तड़पते बच्चों को उनके परिवार ने एक कमरे में बंद कर दिया था, क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि क्या किया जाए? एक तरह से परिजन अपनी संतानों की मौत की बाट जोह रहे थे। चार-चार साल के वे बच्चे उचित इलाज व देखभाल के अभाव में इतने अविकसित रह गए थे कि एक साल के दिखते थे। उनकी पीड़ा के आगे किलेंगा अपना सारा दर्द भूल गईं।
वह नैरोबी में स्वास्थ्य मंत्रालय के गैर-संक्रामक रोगों के निदेशक से मिलीं और उन्हें अपना अनुभव सुनाया, एकत्रित तस्वीरें भी दिखाईं। किलेंगा ने एक तरह से उन्हें बाध्य किया कि सिकल सेल एनीमिया के नियंत्रण व प्रबंधन के लिए अलग विभाग शुरू किए जाएं। जाहिर है, गरीब, अशिक्षित और स्वच्छ भोजन व पेयजल से वंचित परिवारों में इस रोग का प्रसार अधिक है। स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिलकर किलेंगा ने 20,000 डॉलर दान से जुटाए। इस रोग से जुड़ी भ्रांतियों के खिलाफ जागरूकता अभियान शुरू हो गया।
केन्या मेें हर साल लगभग 14,000 बच्चे इस एनीमिया से पीड़ित पैदा होते हैं। वर्ष 2017 में ली किलेंगा ने अपने ‘अफ्रीका सिकल सेल ऑर्गेनाइजेशन’ की शुरुआत की। इसके तहत स्वास्थ्य बीमा से लोगों को जोड़ने के अलावा इस रोग के पीड़ितों के लिए विशेष क्लिनिक बनाने, विशेषज्ञ डॉक्टरों व चिकित्सा पेशेवरों की मदद से इलाज व देखभाल को लेकर लोगों को प्रशिक्षित करने का काम किया जा रहा है। अब तक पांच लाख लोग इस संगठन से लाभ उठा चुके हैं। एक किलेंगा की संवेदनशीलता ने लाखों बच्चों-वयस्कों को न सिर्फ दर्द से मुक्ति दिलाई है, बल्कि समाज को कई भ्रांतियों से बाहर निकाला है। सीएनएन ने ली किलेंगा को ‘हीरो’ माना है। सचमुच वह नायिका हैं। मरना तो एक दिन सबको है, क्यों न उससे पहले जीना सार्थक कर लिया जाए!
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

लेटेस्ट   Hindi News ,    बॉलीवुड न्यूज,   बिजनेस न्यूज,   टेक ,   ऑटो,   करियर , और   राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।

अगला लेखऐप पर पढ़ें