पढ़ाई की राह पर चलते हुए पाया प्रधानमंत्री का पद
आधुनिक लोकतंत्रों में अपनी एक उपलब्धि के लिए श्रीलंका दुनिया का सिरमौर देश हमेशा रहेगा। इस दक्षिण एशियाई द्वीप देश ने संसार में सबसे पहले एक महिला ‘सिरीमाओ भंडारनायके’ को अपना प्रधानमंत्री चुना था...
आधुनिक लोकतंत्रों में अपनी एक उपलब्धि के लिए श्रीलंका दुनिया का सिरमौर देश हमेशा रहेगा। इस दक्षिण एशियाई द्वीप देश ने संसार में सबसे पहले एक महिला ‘सिरीमाओ भंडारनायके’ को अपना प्रधानमंत्री चुना था। उसके बाद उनकी बेटी चंद्रिका कुमारतुंगा भी इस पद के लिए चुनी गईं। मगर ये दोनों मां-बेटी एक धनाढ्य, रसूखदार राजनीतिक खानदान से जुड़ी थीं, मगर इसी मंगलवार को श्रीलंका की नई प्रधानमंत्री नियुक्त हरिनी अमरसूर्या एक आम मध्यमवर्गीय परिवार की बेटी हैं, जिन पर नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके ने अपना भरोसा जताया है।
श्रीलंका के दक्षिण में एक तटीय शहर है गैली। मार्च 1970 में हरिनी यहीं पैदा हुईं। पिता एक छोटे-से चाय बागान के मालिक थे और मां गृहिणी। दो भाई-बहन पहले ही इस दुनिया में आ चुके थे, मगर उन दोनों की पैदाइश और हरिनी के जन्म के बीच वर्षों का फासला था। स्वाभाविक ही वह सबकी लाडली थीं। हरिनी का परिवार रूढ़िवादी सोच का था, जिसमें बेटे को तो इजाजत थी कि वह दुनिया में जहां जाकर पढ़ना चाहे, पढ़ सकता है; जो काम करना चाहे, कर सकता है, मगर बेटियों से यही अपेक्षा रहती कि पढ़-लिखकर वे शादी करें, गृहस्थी संभालें और बच्चे पैदा करें। बड़ी बेटी ने ऐसा किया भी, मगर हरिनी इस सोच की कभी कायल नहीं हुईं।
सत्तर के दशक में जब वह बड़ी हो रही थीं, श्रीलंका के सामाजिक हालात तेजी से बदलने लगे थे। हरिनी का परिवार शहर के जिस इलाके में रहता था, वहां तमिल काफी तादाद में थे। स्कूल में भी खूब तमिल बच्चे और शिक्षक थे। एक मिला-जुला परिवेश था, मगर देखते-देखते सिंहली-तमिल जातीय संघर्ष गहराने लगा। हरिनी समझ नहीं पा रही थीं कि अचानक मुहल्ले के तमिल नौजवान कहां लापता हो गए? स्कूल में भी इस समुदाय के शिक्षकों-दोस्तों की उपस्थिति घटने लगी थी। माहौल इस कदर तनावपूर्ण हो चला था कि बेटी के स्कूल जाने से पहले पिता सड़क देख आते कि कहीं किसी किस्म का व्यवधान तो नहीं है। हालांकि, उन सबको यह आश्वस्ति थी कि वे दक्षिण श्रीलंका में रहते हैं और बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य हैं। पर 1983 के जातीय नरसंहार ने सबको बुरी तरह हिला दिया था। वह डरी हुई थीं कि यह सब क्या हो रहा है?
इसी बीच सरकार ने सभी चाय बागानों को अपने नियंत्रण में ले लिया, तो हरिनी का परिवार कोलंबो आ बसा। वहां जिस स्कूल में वह पढ़ने गईं, वह ईसाई ननों द्वारा संचालित था। मानव सेवा इसके पठन-पाठन का अनिवार्य हिस्सा था। हरिनी के जीवन पर इसका गहरा असर पड़ा। वहां पढ़ते हुए ही ‘स्कूल एक्सचेंज प्रोग्राम’ के तहत वह एक साल के लिए अमेरिका भी गईं। जब वह कोलंबो लौटीं, तब तक गृह युद्ध बुरी तरह फैल चुका था। स्कूल-कॉलेज बंद हो गए थे। हरिनी की पढ़ाई इससे बहुत प्रभावित हुई। जो परिवार बेटियों के मामले में शादी को सबसे बड़ा लक्ष्य मानता था, श्रीलंका में फैले खून-खराबे से उसकी सोच पूरी तरह बदल गई थी।
हरिनी आगे की पढ़ाई के लिए स्थानीय कॉलेजों के खुलने का इंतजार नहीं कर सकती थीं। उन्होंने मुल्क से बाहर जाकर पढ़ने की इच्छा जताई। बेटी की उच्च शिक्षा की राह हमवार करने के लिए माता-पिता उन्हें लेकर खुद दिल्ली आ गए। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में उन्हें स्नातक पाठ्यक्रम (समाजशास्त्र) में दाखिला तो मिल गया, मगर रहने की समस्या थी। जिस गर्ल्स हॉस्टल में वह रहने पहंुचीं, उसकी मैट्रन ने माता-पिता को डरा दिया कि एक अनजाने मुल्क में वे अपनी बेटी को यूं छोड़कर कैसे जा सकते हैं? आखिरकार, हरिनी ने खुद ही माता-पिता को मनाया।
दिल्ली के वे चार साल बेहद शानदार थे। उसके बाद तो ‘अप्लाइड ऐंथ्रपॉलजी ऐंड डेवलपमेंट’ में मास्टर्स करने वह ऑस्ट्रेलिया भी गईं और एक एनजीओ में कुछ अनुभव बटोरने के बाद उन्होंने अमेरिका की एडिलेड यूनिवर्सिटी से सोशल ऐंथ्रपॉलजी में पीएचडी भी की। इन ऊंची डिग्रियों के साथ वह चाहतीं, तो अमेरिका या यूरोप में एक पुरसुकून जिंदगी गुजार सकती थीं। मगर उन्होंने श्रीलंका लौटने का फैसला किया। दरअसल, स्थानीय एनजीओ के तहत अपनी पहली नौकरी के दौरान उन्होंने देखा था कि मानसिक रोग से ग्रसित महिलाओं और बच्चों के साथ कितना बुरा बर्ताव होता है। वह श्रीलंकाई महिलाओं व बच्चों के लिए कुछ करना चाहती थीं। यूनिवर्सिटी में सीनियर लेक्चरर के तौर पर कार्यरत हरिनी ने शिक्षक संघ के जरिये राजपक्षे सरकार की नीतियों के खिलाफ सन् 2011 में जबर्दस्त आंदोलन किया, जिससे उनकी राष्ट्रीय छवि बनी।
हरिनी की सक्रियता उन्हें ‘जनता विमुक्ति पेरामुना’ (जेवीपी) के संपर्क में ले आई और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अगस्त 2020 में नेशनल पीपुल्स पावर (एनपीपी) ने उन्हें पार्लियामेंट में भेजा। इस नई भूमिका ने उनकी सोच को एक नया विस्तार दिया। अविवाहित हरिनी को ‘साइबर बुलिंग’ का शिकार बनाया गया, यहां तक कि प्रिंट मीडिया में भी उनके खिलाफ अभियान चलाए गए, मगर इन सबसे विचलित हुए बिना वह बेरोजगारी, लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लगातार मुखर रहीं। हरिनी श्रीलंका में जातीय, धार्मिक और राजनीतिक विभाजन को पाटने की एक सशक्त आवाज बन गईं।
प्रधानमंत्री हरिनी अमरसूर्या के पास कई अहम मंत्रालय हैं। शिक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभालते हुए उन्होंने तमाम स्कूलों के प्रिंसिपल व प्रबंधन से पहला अनुरोध यही किया है कि स्कूली कार्यक्रमों में वे किसी भी दल के राजनेता को न बुलाएं। इससे बच्चों पर अच्छा असर नहीं पड़ता। हरिनी को अब अपने मुल्क की उस विरोधाभासी छवि से टकराना है, जिसमें एक तरफ दुनिया की पहली महिला प्रधानमंत्री देने का गौरव है, तो दूसरी ओर उसकी पार्लियामेंट में महिलाओं की आमद बमुश्किल छह फीसदी पर अटकी है।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह
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