जिनको अपनों ने ठुकरा दिया उन्हें मंगल ताई ने अपना लिया

आखिर उनका कसूर क्या था? वे तो दुनिया के ऊंच-नीच और सिस्टम की लापरवाही से बिल्कुल अनजान थे। फिर उनके हिस्से में इतनी हिकारत क्यों आई? अपनों ने ही उन्हें ठुकरा दिया, एक जांच रिपोर्ट के आते ही खून के...

Pankaj Tomar मंगल ताई शाह, समाज सेविका, Sat, 20 July 2024 10:50 PM
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जिनको अपनों ने ठुकरा दिया उन्हें मंगल ताई ने अपना लिया

आखिर उनका कसूर क्या था? वे तो दुनिया के ऊंच-नीच और सिस्टम की लापरवाही से बिल्कुल अनजान थे। फिर उनके हिस्से में इतनी हिकारत क्यों आई? अपनों ने ही उन्हें ठुकरा दिया, एक जांच रिपोर्ट के आते ही खून के सारे रिश्ते उनके लिए बेमानी हो गए। मगर कुदरत का निजाम इस धरती पर किसी को बेआसरा नहीं छोड़ता। अपनी कुछ संतानों के दिल में वह इतनी करुणा अवश्य डाल देता है कि धरती के अनाथ, परित्यक्त मासूमों को स्नेह की छांव मिल जाए। मंगल ताई ईश्वर की एक ऐसी ही खास संतान हैं। जमाना उनको ताई (मराठी में बड़ी बहन) कहता है, पर वह 150 एचआईवी संक्रमित बच्चों की सच्ची आई (मां) हैं।
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में एक तालुका है बार्शी, मंगल ताई इसी तालुके के एक मध्यवर्गीय किसान परिवार में 72 साल पहले पैदा हुईं। यह वह दौर था, जब आजाद भारत का अपना संविधान लागू हुआ था और उसने मौलिक अधिकारों के जरिये एक झटके में औरत-मर्द के बीच की सदियों पुरानी दूरी पाट दी थी। इसके बाद ्त्रिरयों, खासकर मराठी महिलाओं में जागृति की एक नई चेतना आई। उस वक्त देश में साक्षरता दर 19 फीसदी के करीब थी, बल्कि महिलाओं के मामले में तो इसने दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं किया था। मंगल की मां उन्हें ज्ञान हासिल करने के लिए खूब प्रोत्साहित करतीं। लिहाजा, किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते वह काफी कुछ पढ़ चुकी थीं, जिनमें विवेकानंद, मदर टेरेसा और बाबा आम्टे की सेवाओं से जुडे़ लेखन भी शामिल थे।
इन मानव-दूतों की सेवाओं ने छोटी उम्र में ही मंगल को बहुत प्रभावित किया था। मगर सामाजिक दस्तूर के मुताबिक 16 साल की उम्र में ही उनका ब्याह कर दिया गया। वह पंढरपुर आ गईं। जिंदगी अचानक बदल गई थी। कुछ ही वर्षों में बेटी डिंपल भी गोद में आ गईं। गृहस्थी की जिम्मेदारियां निपटाने के बाद परिवार की दूसरी ्त्रिरयां पूजा-पाठ में व्यस्त हो जातीं, मगर मंगल का मन इसमें बहुत ज्यादा नहीं लगता था। वह किसी जरूरतमंद की मदद करने को लेकर ज्यादा उत्सुक रहतीं। चाह थी, तो राह भी मिली। घर से करीब ही एक सरकारी अस्पताल में दिव्यांगों की सेवा करने की अनुमति मिल गई और कुछ ही महीनों में मंगल उस अस्पताल में भर्ती असहाय गर्भवती महिलाओं को घर का खाना मुहैया कराने लगी थीं। इन लोगों की सेवा करके उन्हें एक अजीब किस्म का सुकून मिलता था। इसलिए जब डिंपल दस साल की हुईं, तो वह उन्हें भी अपने साथ ले जाने लगीं। मंगल ने महसूस किया कि कुछ गर्भवती महिलाओं के साथ अस्पताल का रवैया बेहद अपमानजनक, बल्कि अमानवीय होता है। कारण पता किया, तो मालूम हुआ कि वे एचआईवी संक्रमित हैं। मंगल को बहुत दुख हुआ। वे महिलाएं दोहरी मार झेल रही थीं- एक तरफ, अनकरीब मौत का खौफ था, तो दूसरी ओर, सामाजिक दुत्कार का दंश।
मंगल ने उसी समय फैसला किया कि वह जिले की महिला यौनकर्मियों के बीच एचआईवी/एड्स को लेकर जागरूकता पैदा करेंगी, ताकि वे इसके संक्रमण से बच पाएं। साल 2001 की बात है। मंगल अपनी बेटी के साथ पंढरपुर के रेडलाइट एरिया में यौनकर्मियों को एचआईवी/एड्स के बारे में आगाह कर रही थीं, तभी किसी ने आकर बताया कि पड़ोस के गांव में डेढ़ और ढाई साल की दो बच्चियों को कोई गौशाला में छोड़ गया। मां-बेटी फौरन वहां पहुंचीं, तो पता चला कि इन बच्चियों के माता-पिता की एड्स से मौत हो गई है और कोई रक्त-संबंधी अब इनको अपने साथ नहीं रखना चाहता, क्योंकि उन्हें सामाजिक बदनामी के साथ-साथ संक्रमण का भी खतरा है। 
मंगल ने गांव वालों से इन मासूमों की देखभाल करने की गुजारिश की, पर कोई तैयार नहीं हुआ। आखिरकार वह उन दोनों बच्चियों को अपने साथ ले आईं। उन्हें नहलाया, खाना खिलाया और फिर उनके लिए अनाथालय या केयर होम की तलाश में जुट गईं। काफी तलाश के बाद मंगल यह जानकर हैरान थीं कि एचआईवी संक्रमित बच्चों के लिए पूरे सूबे में कोई अनाथालय नहीं था। सामान्य अनाथालय उन्हें किसी कीमत पर अपने यहां रखने को तैयार न थे। तब मंगल ने ऐसे बच्चों के लिए खुद अनाथालय खोलने का फैसला किया। हालांकि, खुद उनके परिवार के लोग भी एचआईवी से जुड़ी वर्जनाओं के कारण थोड़ी दुविधा में थे, मगर मंगल के पति और बच्चों ने उनके फैसले का एहतराम किया और 2001 में उन दो अनाथ बच्चियों के साथ प्रभा-हीरा प्रतिष्ठान के तहत ‘प्रोजेक्ट पालवी’ की शुरुआत हुई। 
मंगल ताई ने जब इन बच्चों के लिए तकली गांव में भवन बनाने का इरादा बनाया, तो गांव वालों ने विरोध किया। एक तरह से उनका जाति-बहिष्कार कर दिया गया। कई लोगों ने उन्हें यह तक समझाने की कोशिश की कि इन दोनों बच्चियों को वह पड़ोस के जंगल में छोड़ आएं, क्योंकि आज न कल इनकी नियति मौत ही है। पर मंगल ताई ने इस संक्रमण से जुडे़ मिथकों को तोड़ा और गांव वालों के भीतर पैठी आशंकाओं पर फतह हासिल की। अंतत: वे उनकी मदद के लिए आगे आए। सरकारी अस्पतालों से भी सहायता मिलने लगी। 
सबसे अधिक एचआईवी संक्रमण वाले सूबे महाराष्ट्र में पहली बार मंगल ताई ने ऐसे बदनसीब बच्चों के लिए गरिमामय जीवन जीने की व्यवस्था की। उनके इस करुण प्रयास ने कई लोगों को आर्थिक मदद के लिए प्रेरित किया। आज इस संस्थान में 150 से अधिक एचआईवी संक्रमित बच्चे रह रहे हैं। इनकी शिक्षा के लिए बाकायदा संस्थान में स्कूल है। यहां उन्हें तरह-तरह का कौशल प्रशिक्षण भी दिया जाता है। मंगल ताई को कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। मगर सच तो यह है कि वह खुद हमारे समाज के लिए एक पुरस्कार हैं! 
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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