दिव्यांगों को राह दिखाती दार्जिलिंग की एक बेटी

निदा फाजली अगर जिंदा होते, तो बीते शनिवार को 86 साल के हो जाते। कल एक दिलेर महिला की निजी दास्तान पढ़ते-सुनते हुए निदा साहब की वह मशहूर पंक्ति अनायास याद हो आई- कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता..

Pankaj Tomar हिन्दुस्तान, Sat, 12 Oct 2024 10:52 PM
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दिव्यांगों को राह दिखाती दार्जिलिंग की एक बेटी

निदा फाजली अगर जिंदा होते, तो बीते शनिवार को 86 साल के हो जाते। कल एक दिलेर महिला की निजी दास्तान पढ़ते-सुनते हुए निदा साहब की वह मशहूर पंक्ति अनायास याद हो आई- कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता...। मगर रूपमणि छेत्री की चमकती निगाहें बोलती हैं, तमाम कमियों और क्षुद्रताओं के बावजूद यह जहान बहुत खूबसूरत है! रूपमणि छेत्री, यानी हिन्दुस्तान की ऐसी पहली मूक-बधिर महिला, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र ने अपना वॉलंटियर नियुक्त किया था और जो अब अपने उद्यम से हजारों दिव्यांगों को सशक्त बना रही हैं। 
आज से करीब 37 साल पहले नेपाल के एक गांव में पैदा रूपमणि जन्म से दिव्यांग थीं। वह सुन-बोल नहीं सकती थीं। रूपमणि छह माह की थीं, जब उनका परिवार दार्जिलिंग आ बसा। पिता वहीं सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी करते थे। बचपन में रूपमणि को अजीब लगता कि परिवार के अन्य लोग एक-दूसरे से खूब बतियाते हैं, साथ-साथ कहकहे लगाते हैं, मगर कभी रूपमणि को उन कहकहों का हिस्सा नहीं बनाते। माता-पिता उनकी बुनियादी जरूरतों का जरूर ख्याल रखते। यह सोचकर कि अक्षर-ज्ञान से बेटी की जिंदगी की दुश्वारियां शायद कुछ कम हो जाएंगी, उन्होंने रूपमणि का दाखिला स्थानीय स्कूल में करा दिया था, मगर वहां के शिक्षक संकेत भाषा से अनभिज्ञ थे। इस कारण रूपमणि को प्रारंभिक शिक्षा पाने में काफी परेशानी हुई। अपनी बात शिक्षकों को न समझा पाने के कारण वह कई बार उनकी पिटाई का शिकार बनीं। 
प्राथमिक विद्यालय के बाद घूम गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल में रूपमणि को दाखिला मिला। मगर उस पूरे स्कूल में वह इकलौती मूक-बधिर बच्ची थीं। लिहाजा लोग उन पर हंसते, उनके इशारों को पागलपन समझते। वह तड़पकर रह जातीं। नाते-रिश्तेदार भी माता-पिता को ताने देते, गूंगी-बहरी लड़की पढ़कर क्या करेगी? इसे बस घरदारी सिखाओ, ताकि किसी घर में इसका गुजर-बसर हो सके।
अपनी सोच और हैसियत के हिसाब से माता-पिता ने काफी प्रयास किया कि बेटी किसी तरह ठीक हो जाए। किसी ने पादरी के पास भेजा, तो वे वहां उन्हें लेकर गए, किसी ने टोटकेबाज बाबाओं की शरण में जाने को कहा, तो उन्होंने उनके दर की खाक भी छानी। मगर इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ना था, तो नहीं पड़ा, बल्कि रूपमणि अलगाव का और शिकार होती गईं। वह बस पढ़ना चाहती थीं, मगर उस जमाने में एक गार्ड की तनख्वाह ही क्या थी? पिता के पास फीस चुकाने तक के पैसे नहीं बचते थे। लिहाजा, दस साल की उम्र से ही रूपमणि को आस-पास के निर्माण स्थलों पर काम करना पड़ा, ताकि वह अपने स्कूल के खर्च लायक पैसे जुटा सकें। किसी तरह वह नौवीं जमात तक पढ़ सकीं।
रूपमणि को लगा कि इस संघर्षपूर्ण जीवन से छुटकारे का अब एक ही रास्ता है- विवाह। संयोगवश दिल्ली में रहने वाले एक बधिर लड़के से उनकी शादी भी हो गई और वे दोनों दिल्ली आ गए। मगर दिल्ली आकर रूपमणि को महसूस हुआ कि वह तो और अलग-थलग पड़ गई हैं, जबकि यहां संकेत-भाषा में बातें करने वाले काफी लोग रहते हैं और दिव्यांगों के लिए कई अच्छे शिक्षण संस्थान भी हैं। दरअसल, रूपमणि के पति को बिल्कुल पसंद न था कि वह किसी और से किसी किस्म का संवाद करें। घरेलू हिंसा की बढ़ती घटनाओं ने उन्हें शादी के बंधन से बाहर निकलने को प्रेरित किया। मगर घरवालों ने रूपमणि का साथ देने से इनकार कर दिया। 
दिल्ली में मूक-बधिरों से छिटपुट संवादों और दिव्यांगों से जुड़ी संभावनाओं ने रूपमणि में एक आत्मविश्वास पैदा किया। साल 2011 में तलाक लेकर उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई शुरू कर दी। बोर्ड की परीक्षा पास करने के बाद रूपमणि ने समाजशास्त्र में स्नातक की डिग्री हासिल की। दिल्ली में रहते हुए उन्होंने यह देखा कि बधिर समुदाय के लोग संकेत-भाषा का इस्तेमाल करते हैं, मगर वे रूपमणि से संवाद नहीं करते थे, क्योंकि वह उस भाषा को नहीं जानती थीं। तब नोएडा डेफ सोसायटी (एनडीएस) व ‘द वे डेफ’ जैसी दीगर संस्थाओं और उनके संसाधनों का उन्हें बड़ा सहारा मिला। 
कहते हैं, जब इंसान में कुछ बनने की लगन पैदा हो जाती है, तो सारे ग्रह-नक्षत्र उसकी मदद करने को सक्रिय हो उठते हैं। रूपमणि की मदद के लिए दिल्ली में ‘नेशनल एसोसिएशन ऑफ डेफ’ (एनएडी) की गीता शर्मा और ‘नेशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट फॉर डिसेबल्ड पीपुल’ (एनसीपीईडीपी) के जावेद आबिदी जैसे लोग मौजूद थे। उन्होंने आगे की राह समतल करने में मदद की। एनएडी के साथ कुछ दिनों तक काम करने के बाद रूपमणि बच्चों के लिए काम करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन ‘हक’ से जुड़ गईं। इससे वह वर्षों तक जुड़ी रहीं और फिर 2017 में वह दिन आया, जब संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के तहत उन्हें यूरोप में काम करने का अवसर मिल गया।
रूपमणि ने संयुक्त राष्ट्र की कई संस्थाओं के साथ मिलकर यूक्रेन के मूक-बधिरों के बीच करीब डेढ़ वर्ष तक काम किया। उसके अलावा वह जर्मनी में भी सक्रिय रहीं। यूरोप से लौटने के बाद उनके दिमाग में एक विचार शिद्दत से उभरा कि तकनीक की मदद से यदि संकेत भाषा को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक सुलभ कराया जाए, तो देश के लाखों मूक-बधिरों की जिंदगी बदल सकती है। संयोग से हमख्याल तरुण सरवाल से मुलाकात हुई। दोनों ने मिलकर अपने स्टार्टअप ‘साइनएबल’ एप की शुरुआत की, जो आज 13 भाषाओं में इस समुदाय के लोगों के बीच संवाद कायम करके उनकी जिंदगी को खुशियों से भर रहा है। निदा साहब ने कहा था- जिसे भी देखिए वो अपने आप में गुम है/ जुबां मिली है, मगर हमजुबां नहीं मिलता। रूपमणि आज हजारों की हमजुबां बन गई हैं। 
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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