Hindi Newsओपिनियन Hindustan opinion column 28 January 2025

तालिबान से परेशान पाकिस्तान

अंतरराष्ट्रीय राजनय में बार-बार दोहराई जाने वाली एक कहावत है कि विदेशी संबंधों में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता। इस उक्ति के जनक की समझ पिछले पांच वर्षों में अफगानिस्तान के विजुअल्स को स्लो मोशन पर रिवाइंड या फास्ट फॉरवर्ड चलाने में गड़बड़ा सकती है…

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानMon, 27 Jan 2025 11:06 PM
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तालिबान से परेशान पाकिस्तान

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी

अतरराष्ट्रीय राजनय में बार-बार दोहराई जाने वाली एक कहावत है कि विदेशी संबंधों में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता। इस उक्ति के जनक की समझ पिछले पांच वर्षों में अफगानिस्तान के विजुअल्स को स्लो मोशन पर रिवाइंड या फास्ट फॉरवर्ड चलाने में गड़बड़ा सकती है। मित्रता या शत्रुता स्थायी नहीं होती, यह तो समझा जा सकता है, पर यह इतनी कम अवधि के लिए भी हो सकती है, इसे सिर्फ अफगान-पाकिस्तान या अफगान-अमेरिका के तेजी से बदलते संबंधों से समझ सकते हैं। इन अल्पजीवी रिश्तों को कुछ हालिया दृश्यों में देखना रोचक होगा।

सितंबर 2021 की एक शुरुआती तारीख। यह वह समय है, जब आखिरी अमेरिकी सैनिक काबुल से जा चुका है, तथाकथित अफगान नेशनल आर्मी ने बिना लड़े हथियार डाल दिए हैं और तालिबान के विभिन्न गिरोह सत्ता में भागीदारी के लिए एक दूसरे से छीना-झपटी कर रहे हैं। ऐसे में, काबुल के एक होटल में जनरल फैज हमीद का पदार्पण होता है। जनरल साहब की आत्मविश्वास से लबरेज मुस्कान पत्रकारों को आश्वस्त कर रही है कि अब मामला सुलझ जाएगा। अनकहा संदेश है कि अब वह आ गए हैं, लिहाजा सब ‘ठीक’ हो जाएगा। काबुली होटल में चाय के प्याले के साथ उनकी कुछ पाकिस्तानी व अमेरिकी पत्रकारों के साथ की छवि अब इतिहास का अंग बन गई है।

9/11 के हमलों के बाद दो दशकों तक चली खूंरेजी के बावजूद अमेरिका पूरी तरह से तालिबान को हरा नहीं पाया था, उन हमलों को सफलतापूर्वक अंजाम देने वाला ओसामा बिन लादेन वर्षों तक उसकी पहुंच के बाहर था, पर अब और लड़ने के लिए उसका जनमत तैयार नहीं था और वह थक-हारकर वापस जा रहा था। यह वापसी वियतनाम युद्ध की वापसी से भी ज्यादा शर्मनाक और अराजक थी। अमेरिकी सिपाहियों की वापसी की छवियों को जनरल फैज हमीद के चाय के प्याले वाली छवि से जोड़कर ही पूरी तस्वीर बनती है। तत्कालीन राष्ट्रपति बाइडन ने अपने अपमान के लिए पाकिस्तानी नेतृत्व, उसकी फौज और आईएसआई को कभी माफ नहीं किया और यही कारण था कि उनके पूरे कार्यकाल के दौरान पूरी कोशिश के बावजूद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान उनसे बात तक नहीं कर पाए।

इस पृष्ठभूमि में अगले कुछ महीनों में ही तालिबान-अमेरिका और तालिबान-पाक संबंधों में आए बदलाव को देखें, तो हम चकित रह जाएंगे। जो अमेरिका अपमानित होकर अफगान रणक्षेत्र में अपने छह अरब डॉलर से अधिक के फौजी साजो-सामान छोड़कर भागा था, उसने कुछ ही महीनों में तालिबान नेतृत्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया।

एक पाकिस्तानी पत्रकार जावेद चौधरी ने हाल में एक रहस्योद्घाटन किया कि हर हफ्ते एक हवाई जहाज नैरोबी से कई मिलियन अमेरिकी डॉलर लेकर काबुल की उड़ान भरता है और यह रकम अफगान नेशनल बैंक में जमा करके वापस लौट जाता है। यह सूचना उन लोगों के लिए किसी विस्फोट से कम नहीं थी, जो मानते थे कि अमेरिका के लिए अपना अपमान भुला पाना बहुत आसान नहीं होगा। तालिबान-अमेरिका दुश्मनी से भी कम चलने वाली साबित हुई पाकिस्तान-तालिबान दोस्ती। इसे दोहराने की जरूरत नहीं है कि अफगानी जेहाद का सिलसिला ही पाकिस्तानी मदद से शुरू हुआ था। 1980 के दशक में सोवियत हस्तक्षेप के खिलाफ अमेरिकी हथियारों, सऊदी पैसे और पाकिस्तानी प्रशिक्षण से जिस जेहादी भस्मासुर को खड़ा किया गया था, वह कालांतर में अपने ही आकाओं को लीलता गया। सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान से जाने के बाद उत्पन्न शून्य को भरा पाकिस्तानी मदरसों में आईएसआई द्वारा प्रशिक्षित तालिबान ने। उनकी फितरत में ही तोड़-फोड़ थी, इसलिए उनके ‘अतिथि’ ओसामा बिन लादेन ने 9/11 कर दिया और उसके बाद के दो दशक इतिहास का अंग बन चुके हैं। लंबी जद्दोजहद के बाद जब आईएसआई की सक्रिय मदद से तालिबान की वापसी हुई, तो स्वाभाविक ही था कि पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान के मन में अफगानिस्तान को अपना पांचवां प्रदेश बनाने की इच्छा फिर से अंगड़ाई भरने लगी।

अविश्वसनीय सा लगता है कि पाकिस्तानी कृपा से सत्ता तक पहुंचे तालिबानी पाक सेना के साथ लगभग युद्ध जैसी स्थिति में उलझे हुए हैं। दो मुद्दों पर आईएसआई को उम्मीद थी कि तालिबान उसका समर्थन करेंगे और दोनों ही मामलों में उसे निराशा ही हाथ लगी। पहला मसला, डूरंड लाइन की मान्यता से जुड़ा है और तालिबान ने आईएसआई की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए पिछली अफगान सरकारों की तरह ही डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा मानने से इनकार कर दिया है।

सालों से तालिबान का एक सहयोगी संगठन तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) पड़ोसी देश के लिए सिरदर्द बना हुआ है। आईएसआई को पूरी उम्मीद थी कि तालिबान उस पर अंकुश लगाएंगे, पर उनके हाथ निराशा ही लगी। खास तौर से अफगान सीमा से सटे खैबर पख्तूनख्वा के इलाकों में पिछले एक वर्ष में उसने पाक सेना को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। कई सौ सैनिकों और अर्धसैनिक बलों के सदस्यों की हत्या के अलावा उन्होंने सैकड़ों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में राज्य का नियंत्रण समाप्त सा कर दिया है। कोढ़ में खाज यह है कि इसी क्षेत्र में विकास से जुड़ी चीन की बहुत सी गतिविधियां चल रही हैं, जिनके बंद होने का खतरा है।

धैर्य खोकर पाकिस्तान ने वह कर डाला, जिसकी 1980 के दशक से किसी को उम्मीद नहीं थी। उसने टीटीपी के प्रशिक्षण केंद्रों पर हमले के नाम पर अफगानिस्तान के अंदरूनी इलाकों में हवाई हमले करके बड़ी संख्या में औरतों और बच्चों को मार डाला। सीमा पर दोनों देशों के सशस्त्र बल रोज एक-दूसरे पर गोलीबारी कर रहे हैं। खबर यह भी है कि पाक सेना ने अफगानिस्तान-ताजिकिस्तान सीमा पर वाखान गलियारे पर भी कब्जा कर लिया है। हालांकि, पाक अधिकारियों ने इस खबर का खंडन किया है, फिर भी आईएसआई प्रमुख की तालिबान के पारंपरिक शत्रु ताजिकि अधिकारियों से भेंट की तस्वीरें सार्वजनिक हो ही गई हैं।

इस बीच भारतीय और ईरानी विदेश विभागों के शीर्ष अधिकारियों की अफगान विदेश मंत्री से मुलाकातों और चाहबहार बंदरगाह के सक्रिय होने की खबरें भी पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के कानों को कर्कश लग रही होंगी। नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद भी पाक-अफगान या अमेरिका-अफगान संबंधों में उथल-पुथल के अलावा इस पूरे उपमहाद्वीप में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक नए सिलसिले की शुरुआत की उम्मीदें लगाई जा सकती हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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