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सीबीआई संकट का सच

सुप्रीम कोर्ट ने कभी केंद्रीय जांच ब्यूरो, यानी सीबीआई पर तंज कसा था कि यह पिंजरे में बंद तोता है। क्या पता था कि कोर्ट द्वारा विभूषित इस ‘पिंजरे’ में आपसी टकराहटों की आवाजें इतनी मुखर हो...

शशि शेखर Sun, 28 Oct 2018 12:25 AM
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सीबीआई संकट का सच

सुप्रीम कोर्ट ने कभी केंद्रीय जांच ब्यूरो, यानी सीबीआई पर तंज कसा था कि यह पिंजरे में बंद तोता है। क्या पता था कि कोर्ट द्वारा विभूषित इस ‘पिंजरे’ में आपसी टकराहटों की आवाजें इतनी मुखर हो जाएंगी कि तमाशे के प्रमुख किरदार खुद तमाशा बन जाएंगे।

देश की इस सर्वोच्च जांच एजेंसी के शीर्षस्थ दो अधिकारियों में लड़ाई के बाद का घटनाक्रम खासा दुर्भाग्यपूर्ण है। यह पहला मौका है, जब सीबीआई को अपने ही दफ्तर पर छापा मारना पड़ा। मुख्य सतर्कता आयुक्त की पहल पर ब्यूरो प्रमुख आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना जबरन छुट्टी पर भेज दिए गए। साथ ही उनके दफ्तर सील कर दिए गए। सीबीआई की कमान अब वरिष्ठतम संयुक्त निदेशक एम नागेश्वर राव के हाथ में है। खुद राव का दामन भी पूरी तरह बेदाग नहीं है। प्रशांत भूषण की मानें, तो सिर्फ राव ही क्यों, सीबीआई की नकेल हाथ में रखने वाले मुख्य सतर्कता आयुक्त तक का गिरेबां उजला नहीं है।

हाल इतना बेहाल है कि सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा अपनी सरकार और मुख्य सतर्कता आयुक्त को कठघरे में खड़ा करने के साथ विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को उगाही गिरोह का सरगना बता रहे हैं। सतर्कता आयोग का जवाबी आरोप है कि वर्मा जांच में सहयोग नहीं कर रहे थे, उन्हें जबरन छुट्टी पर भेजना जरूरी था। अस्थाना मुंबई हाईकोर्ट से विशेष जांच दल के गठन की गुहार लगा रहे हैं। उनके भरोसेमंद उपाधीक्षक देवेंद्र कुमार जेल भेज दिए गए हैं। उधर, उनके खिलाफ जांच करने वाली टीम को दर-बदर कर दिया गया है। इस भेड़ियाधसान में रॉ और आईबी अफसरों की संलिप्तता भी उजागर हुई है। यह पहला मौका है, जब देश की ये तीन सर्वोच्च गुप्तचर अथवा जांच एजेंसियां एक साथ आरोपों के कीचड़ में जा फंसी हैं। 

है न गजब?

इस विवाद ने चुनावी मौसम में विपक्ष के हाथ में एक और औजार थमा दिया है। आरोप उछल रहे हैं कि चहेते अफसरों की नियुक्ति के कारण यह सब कुछ हुआ। हालांकि, सच यह है कि हर पार्टी ने इस मंत्र का इस्तेमाल अपने पक्ष में किया है। नौकरशाही में राजनीति के दखल का यह सिलसिला पुराना है। अपना एक अनुभव आपसे साझा करता हूं। 

कांशीराम ने बरसों पहले डीएस4 की स्थापना सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के सहयोग से की थी। 1982 में मेरी उनसे पहली मुलाकात मंडलायुक्त स्तर के एक अधिकारी के यहां हुई थी। ये वे दिन थे, जब अधिकारी राजनेताओं की कृपा तो पाना चाहते थे, पर अपनी स्वतंत्र पहचान भी कायम रखना चाहते थे। उस दिन कांशीराम की हां में हां मिलाते उस आईएएस अफसर को देखकर मेरी समझ में आ गया था कि वरिष्ठ नौकरशाह अब केंचुल बदल रहे हैं। यहां यह मत मान बैठिएगा कि सरकारी तंत्र के इस अध:पतन के जिम्मेदार कांशीराम थे। उन्होंने सिर्फ ‘अंडर करंट’ को समय रहते पहचान लिया था। यही वजह है कि जब आगे चलकर उन्होंने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया, तो डेढ़ दशक से कम समय में लखनऊ की सत्ता पर उनकी शिष्या मायावती काबिज थीं। 

कांशीराम से उस मुख्तसर मुलाकात में मैं समझ गया था कि वह दिन दूर नहीं, जब राजनीति और नौकरशाही की रंगत एक हो जाएगी। तटस्थ नौकरशाह गिनती के रह जाएंगे और उन्हें ऐसे पदों पर बसर करना होगा, जहां उनकी प्रतिभा पर काई जमती रहेगी। हालांकि, तब यह आंकना नामुमकिन था कि नौकरशाह एक दिन खुद सत्ता में भागीदारी की ख्वाहिश पाल बैठेंगे। आज वही हो रहा है। कभी शीर्ष नौकरशाही में उपजा यह महारोग अब राज्यकर्मियों के निचले पायदान तक पहुंच गया है। राजनीति ने उन्हें जाति, क्षेत्र और धर्म में विभाजित कर दिया है। एक किस्सा सुनाता हूं। 

लगभग तीन साल पहले उत्तर प्रदेश के एक शहर में जातीय संघर्ष हो गया था। पुलिस ने काफी मशक्कत के बाद किसी तरह हालात पर काबू पाया। पुलिस बल की अगुवाई अधीक्षक स्तर का अधिकारी कर रहा था। उसे भी इस दौरान हिंसा का शिकार होना पड़ गया था। संयोगवश घटना के कुछ दिनों बाद उस अधिकारी से मेरी मुलाकात हो गई। स्वाभाविक तौर पर वह बेहद दुखी था। लंबी बातचीत के दौरान उसने प्रदेश के दो कद्दावर नेताओं का नाम लेते हुए कहा कि इन लोगों की वजह से ‘फोर्स’ पूरी तरह विभाजित हो गई है। संघर्ष होने की स्थिति में सिर्फ वे ही सिपाही हमारे साथ जूझते हैं, जिनकी पसंद का मुख्यमंत्री सत्ता में विराजमान होता है। दूसरी तरह के सिपाही हल्ला तो मचाते हैं, कारगर काम नहीं करते। आक्रोश से तमतमाते उक्त अधिकारी ने उन नेताओं की जातियों का उल्लेख किया था, पर मैं संपादकीय गरिमा का ध्यान रखते हुए उन्हें सामने नहीं लाना चाहता।

मैं यहां ‘कप्तान साहब’ को कुछ ‘ग्रेस माक्र्स’ देना चाहूंगा। हो सकता है कि उत्तेजनावश वह कुछ ज्यादा बोल गए हों, पर इसमें दो राय नहीं कि राजनीति ने सरकारी तंत्र के चरित्र पर बुरा असर डाला है। आप चाहें, तो इन तथ्यों के आलोक में शीर्ष खुफिया इकाइयों की मौजूदा जद्दोजहद को परख सकते हैं। साफ हो जाएगा, ये आला दिमाग अफसर आपस में क्यों जूझ रहे हैं?

सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की निगरानी में केंद्रीय सतर्कता आयोग को दो सप्ताह के भीतर इस मामले की जांच रिपोर्ट अदालत में जमा करनी होगी। तब तक नागेश्वर राव नीतिगत और जांच के फैसले नहीं कर सकेंगे।

उम्मीद है, अगले कुछ हफ्ते में आला अदालत अपना फैसला सुना देगी। निर्णय जो भी हो, पर एक बात तय है कि इस विवाद ने पहले से विवादित सीबीआई की साख पर निर्णायक बट्टा लगा दिया है। इससे उबरने में देश की सर्वोच्च जांच संस्था को काफी वक्त लगेगा।

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