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अमीर सांसद, गरीब खिलाड़ी

‘सर आप हमें बुलाना चाहते हैं, तो कुछ पैसा लगेगा। हमें कोई कुछ देता-वेता नहीं। खिलाड़ी को पदक जीतने के लिए काफी मेहनत और रुपये की आवश्यकता होती है।’ मेरे वरिष्ठ सहयोगी एशियाड खेलों से पदक...

शशि शेखर Sat, 15 Sep 2018 10:40 PM
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अमीर सांसद, गरीब खिलाड़ी

‘सर आप हमें बुलाना चाहते हैं, तो कुछ पैसा लगेगा। हमें कोई कुछ देता-वेता नहीं। खिलाड़ी को पदक जीतने के लिए काफी मेहनत और रुपये की आवश्यकता होती है।’ मेरे वरिष्ठ सहयोगी एशियाड खेलों से पदक जीतकर लौटी महिला खिलाड़ी के कोच के मुंह से यह सुनकर हैरान थे। वह ‘हिन्दुस्तान’ द्वारा आयोजित ऐसे समारोह में उसे बुलाना चाहते थे, जिसमें सिर्फ नामचीन हस्तियां हिस्सा लेती हैं।

क्या कोच ने कुछ गलत कहा था? 

वह जिस खिलाड़ी के कोच हैं, उसके पिता रिक्शा चलाते थे। बमुश्किल 200 रुपये रोज कमा पाते थे। इतने में एक भरे-पूरे परिवार का लालन-पालन भला कैसे होता? ऊपर से बेटी ने ओलंपियन बनने का सपना पाल लिया। हर ओर अभाव, दारिद्र्य और निराशा का घटाटोप, पर उसके नन्हे कदम डगमगाए नहीं। हर चुनौती से उसकी आंखों में दृढ़ता और मांसपेशियों में कसावट आती गई। आज स्वर्ण पदक जीतकर वह अपने खेल के शीर्ष पर है। उसे मालूम है कि राज्य सरकार बहुत जल्दी मुझे 10 लाख रुपये प्रदान करेगी। जल्दी ही उसे किसी बड़े कॉरपोरेट घराने अथवा राज्य सरकार की नौकरी भी मिल सकती है, पर यह ‘सेलिब्रिटी’ बनने के बाद की बात है। 

लाल जब गुदड़ी के बाहर आ जाए, तो उसकी चकाचौंध सबको आकर्षित करती है, परंतु इस स्थिति तक पहुंचने के लिए जो यातना उसने झेली है, वह शब्दातीत है। आज वह स्टार बन चुकी है। बेहतर भविष्य उसका इंतजार कर रहा है, पर उसके कोच का क्या? अधिक से अधिक उसके हिस्से में कुछ तालियां और स्टार शिष्या के कुछ आदरपूर्ण शब्द आने वाले हैं। सिर्फ आदर से उदरपूर्ति हो जाती, तो क्या बात थी? हमारा गणतंत्र अपने सीने पर खिले गुलाब टांकने का तो आदी है, पर उसे उगाने वाले बागबां के बारे में सोचने का वक्त उसके पास नहीं। यही वजह है कि 125 करोड़ की आबादी वाला यह महान देश एशियाई खेलों में कुल 69 पदक पाकर इतरा रहा है। 

क्या यह इठलाने का मुद्दा है? इंडोनेशिया और ईरान जैसे अपेक्षाकृत छोटे देश हमसे आगे रहे।

मगर शर्म हम हिन्दुस्तानियों को आसानी से नहीं आती। आती होती, तो दिल्ली का हरीश कुमार सेपक टाकरा में कांस्य पदक जीतकर मजनूं का टीला में चाय न बेच रहा होता। स्पेशल ओलंपिक में स्वर्ण पदक अर्जित करने वाले राजेश वर्मा राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले में मनरेगा मजदूरों की टोली में खडे़ नजर नहीं आते। अधिकांश पदक विजेताओं का यही हाल है। उनके परिवारों पर दरिद्रता का अखंड कब्जा है। किसी का भाई दिहाड़ी मजदूर है, तो अन्य के घर का हर सदस्य हर रोज सिर्फ एक जद्दोजहद का शिकार होता है कि रात को पेट कैसे भरे? 4x400 मीटर की रिले रेस में दौड़ रही भारत को स्वर्ण पदक दिलाने वाली सरिता गायकवाड़ की कहानी भी ऐसी है। जकार्ता के बाजारों में वह हसरत भरी निगाहों से बाजार और बिकाऊ  सामानों को देखती रह गई। वह घरवालों के लिए ‘गिफ्ट’ खरीदना चाहती थी। उसकी अपनी भी कुछ ख्वाहिशें थीं, पर जेब तमन्नाओं का गला घोंट रही थी।
 
अब इनमें से हरेक लखपति या करोड़पति होने जा रहा है, लेकिन जैसा मैंने पहले अनुरोध किया कि विजेता बनने के बाद सम्मान देने से जरूरी है कि अपने बच्चों को जीत के लिए तैयार किया जाए। हमारे देश में अभी तक इसकी मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। यहां यह जान लेने में भी हर्ज नहीं कि देश के 10 राज्यों में समूची बेशर्मी बरती जाती है। यहां जन्मे लोगों को पदक जीतने के बाद भी कुछ नहीं दिया जाता। इस दुर्दशा के बावजूद अगर भारत की तरुणाई साधन संपन्न देशों के खिलाड़ियों पर जीत हासिल करती है, तो इसे देश के आम आदमी की विजय यात्रा माना जाना चाहिए। मैंने आम आदमी शब्द का इस्तेमाल जान-बूझकर किया। हमारे देश में साफतौर पर दो वर्ग हैं। एक वे, जो हुक्म चलाते हैं और दूसरा वर्ग, जो चुपचाप इस बेजारी को जीते हैं।

आजादी के बाद साल-दर-साल यह त्रासदी मजबूत हुई है। अब राजवंशों की जगह राजनीतिक घरानों ने ले ली है। नतीजा, अरबपति नेताओं के यहां जन्मे बच्चे पहले दिन से ही न केवल अतुल संपत्ति के मालिक होते हैं, बल्कि हुकूमत खुद-ब-खुद दरवाजा खोलकर उनका इंतजार कर रही होती है। राजनीति की बात चली, तो बता दूं कि हमारी लोकसभा के 543 माननीय सदस्यों में से लगभग 450 करोड़पति हैं। राज्यसभा के सांसदों की औसत दौलत 55 करोड़ रुपये से ऊपर बैठती है। कभी विद्वानों, विचारकों अथवा विशारदों के लिए बनाए गए इस सदन में महज पांच सदस्य ऐसे हैं, जिनके पास 10 लाख रुपये से कम की दौलत है। ये करोड़पति ‘माननीय’ खेल, खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों के लिए गए 70 सालों में कोई सार्थक नीति नहीं बना सके हैं। हम अपना यह शिकवा बिसरा सकते हैं, अगर इनमें से हरेक सिर्फ एक खिलाड़ी को गोद ले ले।

यकीन मानिए, हर प्रतियोगिता में हम पदक जीतते दिखाई पड़ेंगे।

यहां एक विसंगति की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा। हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों में तमाम क्रिकेट संघों और संबंधित संगठनों पर कब्जे के लिए जी-जान लड़ा देते हैं। कुछ अन्य खेलों पर भी इनकी इनायत बरसती है, मगर एथलीट आमतौर पर उनकी कृपा से वंचित रह जाते हैं। वजह? क्रिकेट जैसा ग्लैमर और पैसा अन्य खेलों के नसीब में नहीं। इसके बावजूद मेरा अनुरोध है कि ग्लैमर और धन के लिए न सही, पर देश की खातिर वे इस पर विचार करें। हमारे खिलाड़ियों का हौसला बड़ा और जरूरतें छोटी हैं। ‘माननीयों’ की सत्ता, संपदा और साधनों का छोटा सा हिस्सा उनके लिए संजीवनी साबित होगा।

वे चाहें, तो तत्काल शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि एशियाड की जंग जीतने वाले नौजवान अब ओलंपिक की तैयारी कर रहे हैं। वे अपने दम-खम का प्रदर्शन कर चुके हैं। अब बारी सत्ता और समाज की है। क्या हमारे ‘माननीय’ जागेंगे? या, उनकी आंखें सिर्फ संपदा और शक्ति के स्रोतों को ही निहारती रहेंगी? 

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