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सियासतदां कृपया सुनें

जो देश हर कुछ महीने के अंतराल में चुनावी जंग से जूझने का अभ्यस्त हो, वहां पांच राज्यों में जारी चुनावी दंगल लोगों के दिल की धड़कनें क्यों अव्यवस्थित कर रहा है? जवाब साफ है। 2019 के आम चुनाव से पहले इन...

शशि शेखर Sat, 13 Oct 2018 10:54 PM
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सियासतदां कृपया सुनें

जो देश हर कुछ महीने के अंतराल में चुनावी जंग से जूझने का अभ्यस्त हो, वहां पांच राज्यों में जारी चुनावी दंगल लोगों के दिल की धड़कनें क्यों अव्यवस्थित कर रहा है? जवाब साफ है। 2019 के आम चुनाव से पहले इन पांच राज्यों के मतदाता अपनी सूबाई सरकारों के साथ केंद्र सरकार के कामकाज पर भी अपना फैसला सुनाने जा रहे हैं। ये चुनाव सही अर्थों में आम चुनाव का ट्रेलर साबित होने जा रहे हैं।

ऐसे में, सवाल उठना जायज है, इन राज्यों में बसे 13 करोड़ से अधिक मतदाता किसे चुनेंगे? देश के सियासी पंडित इस पर गाल बजाने को स्वतंत्र हैं, पर मैं विनम्रतापूर्वक दूसरा प्रश्न उठाने की इजाजत चाहूंगा। देश के कुल मतदाताओं का लगभग 17 फीसदी यह हिस्सा किस आधार पर अपने शासक चुनेगा? इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का बटन दबाते वक्त उसके दिमाग में हुक्मरानों की कथनी-करनी होगी या चुनावी मौसम के लिए खास तौर पर उपजाई गई वैचारिक अफीम उनकी वैचारिक तरंगों को नियंत्रित कर रही होंगी।

इस मुद्दे पर चर्चा जरूरी है, क्योंकि तंत्र कितना भी हावी हो जाए, मगर आज भी हम गर्व से खुद को संसार के सबसे बडे़ लोकतंत्र का बाशिंदा बताते हैं। गुजरे 70 साल में पूरी दुनिया की आशंकाओं को धता बताते हुए अगर हिन्दुस्तान ने इस नायाब शासन पद्धति को जिंदा रखा है, तो इसका श्रेय किसी दल या नेता को नहीं, बल्कि देश के आम आदमी को जाता है। यह तो थी लोक की बात। अब उन लोगों पर आते हैं, जिन्हें हम तंत्र चलाने की जिम्मेदारी सौंपते हैं। 

मध्य प्रदेश से बात शुरू करता हूं। वहां चुनावों से ऐन पहले जब कांगे्रस ने हर ब्लॉक में गोशाला खोलने का वादा किया, तो जवाब में मुख्यमंत्री ने गाय मंत्रालय बनाने का आश्वासन दे डाला। इसमें कोई दोराय नहीं कि गाय हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखती है, पर मध्य प्रदेश के जागृत लोगों को अपना मन बनाने के लिए क्या विकास और अपनी तरक्की का आकलन नहीं करना चाहिए? उन्हें सोचना चाहिए कि डेढ़ दशक लंबी हुकूमत के बाद भाजपा अथवा इतने ही वर्षों का निर्वासन झेल रही कांग्रेस को जीत के लिए धर्म की आड़ क्यों जरूरी है? हम अपनी आस्था को अफीम बनाने की इजाजत क्यों देते हैं?

आप याद करें, उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान खुद प्रधानमंत्री ने बिजली और विकास के मुद्दे पर बात करते हुए श्मशान और कब्रिस्तान का उदाहरण दिया था, पर यह मान बैठना कि भाजपा का बहुमत सिर्फ ऐसे प्रतीकों के प्रयोग से आ गया, क्या मतदाता और उसके निर्णय के प्रति ज्यादती नहीं होगी? क्या भाजपा का संगठन और नेतृत्व जीत के लायक नहीं था? उत्तर प्रदेश की हताश प्रगति कामना क्या परिवर्तन नहीं चाहती थी? क्या बिखरा विपक्ष अपनी खीज मिटाने के लिए निरर्थक वाक्युद्ध में अपनी निजात नहीं तलाश रहा था? कारण तमाम हैं, पर हमारे सियासतदां धर्म को आसान फॉर्मूला मान बैठे हैं। नतीजतन, मठाधीशों और धर्मस्थलों की चांदी हो गई। चुनाव के दौरान वहां माथा टेकने एक नेता जाता है, तो विपक्षी उसके लौटने का इंतजार कर रहा होता है, ताकि वह भी दर्शन लाभ अर्जित कर सके। 

आम आदमी की भांति नेताओं को भी हक है कि वे अपनी आस्था का अपने तरीके से इस्तेमाल करें, पर इसके लिए चुनाव का वक्त ही क्यों चुना जाता है? हमें यह भी देखना-बूझना चाहिए कि इस तमाशे का आम जन पर कैसा प्रभाव पड़ता है? 

पिछले दिनों राहुल गांधी की अमेठी यात्रा पर नजर डाल देखें, उत्तर मिल जाएगा। वहां पहुंचते ही उनकी निजी आस्था को लेकर उत्साही कार्यकर्ताओं ने नारे बुलंद कर दिए। कांग्रेस अध्यक्ष का विचलित होना स्वाभाविक था। इस सिलसिले में तीन अति-उत्साही कार्यकर्ताओं को पार्टी से निलंबित कर दिया गया, पर यह घटना गवाह है कि राजनीति ने कौन सी राह पकड़ ली है। राजनीति अब एक ऐसा गोरखधंधा बन गई है, जहां बेतुके तर्क रामबाण मान लिए गए हैं।

इसका नवीनतम नमूना, पिछले दिनों लखनऊ में एप्पल के एरिया मैनेजर की नृशंस हत्या है। पुलिस वालों ने जान-बूझकर उसे बीच शहर में गोली मार दी। यह ऐसा मुद्दा था, जब पूरी राजनीतिक बिरादरी को एकजुट होकर मृतक के निरीह परिवार के साथ अपनी एका प्रदर्शित करना चाहिए था, पर इसे भी धार्मिक मुद्दा बनाने की कोशिश की गई। दिल्ली के ‘पढे़-लिखे’ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का ट्वीट इसकी बानगी है। उस दिन उनके प्रशंसक भी चकरा गए थे कि इस ‘अधर्म’ में भला धर्म का क्या काम?

धर्म की भांति पाकिस्तान का भी बेजा इस्तेमाल किया जाता है। क्या कमाल है! दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता है। सियासत ने शताब्दियों के इस संपर्क को जर्जर करने की तमाम कोशिशें कीं, पर नाकाम रहे। इसके बावजूद हमारे सियासतदां हारते नहीं हैं। सीमा के आर-पार के लोग भले ही एक-दूसरे से रिश्ता न तोडें़, लेकिन दोनों तरफ के राजनेता 1947 से षड्यंत्रपूर्वक पनपाई अदावत को चुनावी मौसम में हवा देते रहते हैं। पाकिस्तान की पाकिस्तानी जानें, पर हिन्दुस्तानी चार बार पाकिस्तान को नाकों चने चबवाने के बावजूद कब मानेंगे कि हम कोई राख का पुतला नहीं हैं। भला, 20 करोड़ की आबादी वाला मुल्क सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या को कैसे खाक में मिला सकता है? ऐसा न हुआ है, न होगा, पर हमारे नेता मानें तब न? अब समय आ गया है, जब हम अपनी पाक ग्रंथि से मुक्ति पाएं।

भारत की राजनीतिक बिरादरी से यहां एक और आग्रह है कि अच्छा होगा, अगर वे एक-दूसरे पर इस दौरान कीचड़ की वर्षा न करें। इससे घृणा और विद्वेष की विषबेल को पनपने का अवसर मिलता है, जो देश के लिए घातक है।

वे भूले नहीं, गुजरे 70 साल गवाह हैं कि राजनीति में वही नेता सफल रहे हैं, जिन्होंने बातें कम, काम ज्यादा किए हैं। क्यों नहीं वे सिर्फ अपने कामों का लेखा-जोखा लेकर मतदाता के सामने उपस्थित होते? जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म की अस्मिता जरूरी है, पर इन्हीं का सामंजस्य हमें हिन्दुस्तान बनाता है। विविधता में एकता का ऐसा नमूना समूची दुनिया में दुर्लभ है। सिर्फ सत्ता पाने के लिए इससे खिलवाड़ क्यों? 

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