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खुद अपना नाखुदा बनना होगा

तय है, इस पनपते हुए शीत युद्ध के बीच हमें अपनी जगह तलाशनी होगी। ‘हमें’ से मेरा मतलब उन मुल्कों से है, जो विकसित देशों का शिकार बनते हुए भी अपने बलबूते प्रगति के राजमार्ग पर दौड़ने को आतुर हैं। यहां...

Shashi Shekhar शशि शेखर, Sat, 17 Aug 2024 08:14 PM
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खुद अपना नाखुदा बनना होगा

क्या आपने 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लाल किले के प्राचीर से दिया गया भाषण सुना? उन्होंने कहा, ‘चुनौतियां हैं, अनगिनत चुनौतियां हैं, चुनौतियां भीतर भी हैं, चुनौतियां बाहर भी हैं और जैसे-जैसे हम ताकतवर बनेंगे... बाहर की चुनौतियां और बढ़ने वाली हैं और मुझे उसका भली-भांति अंदाज है, लेकिन मैं ऐसी शक्तियों को कहना चाहता हूं, भारत का विकास किसी के लिए संकट लेकर नहीं आता। हम विश्व में समृद्ध थे, तब भी हमने कभी दुनिया को युद्ध में नहीं झोंका है। हम बुद्ध के देश हैं, युद्ध हमारी राह नहीं है।’ 
इसके निहितार्थ क्या हैं? 
भारतीय प्रधानमंत्री का यह कथन मुझे शेख हसीना वाजेद और कभी उनके पाकिस्तानी समकक्ष रहे इमरान खान की याद दिलाता है। वे और उनके मुल्क संकट से गुजर रहे हैं। भारत और उसके नेता बेखौफ हैं।
शेख हसीना ने अपनी जलावतनी के कुछ दिन बाद अपने पार्टीजनों को लिखे खत में दावा किया है कि अगर मैंने अमेरिका को सेंट मार्टिन द्वीप दे दिया होता, तो आज मेरा यह हाल न होता। इससे पहले 27 मई, 2024 को शेख हसीना ने यह भी कहा था- वे बांग्लादेश और म्यांमार के कुछ हिस्सों को लेकर पूर्वी तिमोर की तरह एक ईसाई देश बनाएंगे, जिसका आधार बंगाल की खाड़ी में होगा। ‘वे’ से उनका आशय किससे है? यह समझना मुश्किल नहीं। 
शेख हसीना वाजेद के ये दोनों कथन बहुत महत्वपूर्ण हैं। 
बीसवीं सदी से ही यह दुनिया हर कुछ दशक में नया निजाम गढ़ने की अभ्यस्त हो चुकी है। पहले महायुद्ध के ढाई दशक के भीतर दूसरा विश्व-युद्ध शुरू हो गया था। उसकी तपिश ठंडी पड़ी न थी कि सोवियत संघ और अमेरिका ने आस्तीनें चढ़ा लीं। वर्ष 1991 में सोवियत संघ बिखरा और पूंजीवादी सहअस्तित्व का तथाकथित नया दौर शुरू हुआ। अब उसका शीराजा भी बिखरने लगा है और दूसरे शीत युद्ध की आहटें सुनाई पड़ रही हैं। इस बार चीन और अमेरिका रू-ब-रू हैं। अमेरिका चीन की सरगोशियों को हर हाल में लाल सागर से बढ़ने से रोकना चाहता है। इसके लिए उसे बांग्लादेश या भारत में सामरिक अड्डे की आवश्यकता है। म्यांमार में जिस तरह चीन का दखल बढ़ रहा है, उससे भी साफ है कि अगर यह काम तुरंत नहीं हुआ, तो देर हो जाएगी।  
बांग्लादेश पर इसीलिए दबाव बनाने की कोशिश हुई। शेख हसीना नहीं चाहती थीं कि आर्थिक विकास की डगर पर बढ़ रहा उनका मुल्क किसी भी तरह की औपनिवेशिक ताकत का निवाला बने। आज बांग्लादेश में सिले कपडे़ अमेरिका, चीन और दुनिया के तमाम देशों में पहने जाते हैं। उसे अपनी तरक्की के लिए सभी की जरूरत है। वह किसी एक की शरण में क्यों जा पडे़? हसीना का यह नजरिया अपने देश के लिए भले लाभकर रहा हो, उनके देश-निकाले का कारण बन गया।
अब इमरान खान पर आते हैं। उन्होंने भीषण सियासी संघर्ष के बाद सत्ता हासिल की थी। शुरू के कुछ वर्ष तो ठीक गुजरे, पर बाद में सरकार के अंदर संघर्ष बढ़ने लगा और साथ ही बाहरी दबाव भी सघन होता चला गया। रावलपिंडी स्थित सेना मुख्यालय कोई मौका नहीं चूकना चाहता था। उसने भी इमरान विरोधियों का साथ दे दिया। नतीजतन, इमरान खान जेल में हैं। उनकी शरीक-ए-हयात बुशरा बीबी भी सलाखों के पीछे हैं। अब उनके जन-समर्थन को तोड़ने की कोशिशें की जा रही हैं।
इमरान ने भी अमेरिका पर अपनी सरकार को गिराने का आरोप लगाया था। मीडिया हाउस द इन्टर्सेप्ट ने पाकिस्तानी हुकूमत के गोपनीय दस्तावेजों के आधार पर पिछले वर्ष दावा किया था कि यूक्रेन-रूस युद्ध के दौरान पाकिस्तान का तटस्थ रवैया वाशिंगटन को नागवार गुजरता था। दावे के अनुसार, अमेरिकी विदेश विभाग ने 7 मार्च, 2022 को पाकिस्तानी अधिकारियों के साथ आयोजित बैठक में इमरान खान को गद्दी से हटाने का दबाव बनाया था। 
मैं यहां आपको इंदिरा गांधी की याद दिलाना चाहूंगा। अपनी हत्या के कुछ महीने पहले से ही वह सार्वजनिक तौर पर दावा कर रही थीं कि विदेशी ताकतें उन्हें रास्ते से हटाने का षड्यंत्र कर रही हैं। आज यह छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि 1980 के दशक में भारत में कहर बरपा करने वाले तथाकथित खालिस्तानी उग्रवादियों को हथियार, वैचारिक वितंडावाद, विभेदकारी रणनीति और विनाशकारी फॉर्मूला पश्चिम में बैठे लोगों ने मुहैया करवाए थे। आज भी कनाडा ऐसे भारत विरोधियों की सबसे बड़ी शरणस्थली बना हुआ है।  
ध्यान दें। कनाडा ‘फाइव आइज’ का सदस्य है। यह गठजोड़ अमेरिका की अगुवाई में पांच पश्चिमी मुल्कों की खुफिया एजेंसियों के बीच तालमेल स्थापित करता है। इसी ने कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को यह समझाया था कि कनाडा में सिख अलगाववादियों की हत्या के पीछे भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ का हाथ है। अमेरिका ने भी आगे चलकर इसी तरह की दावेदारी की। वहां रह रहे तथाकथित खालिस्तानी चिंतक गुरपतवंत सिंह ‘पन्नू’ की हत्या की साजिश का आरोप भारत पर मढ़ा था। ये वे देश हैं, जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए विकासशील देशों में जमकर तबाही मचाई। वे लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों की जम्हूरियत से खिलवाड़ करते आए हैं।  
खुद इनके यहां लोकतंत्र का क्या हाल है? 
अमेरिका में इस समय राष्ट्रपति चुनाव चल रहे हैं। कुछ हफ्तों पहले डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडन के बीच कैसी सार्वजनिक बहस हुई थी? कई अंतरराष्ट्रीय समीक्षकों ने इसे अमेरिकी लोकतंत्र के इतिहास की सबसे शर्मनाक बहस माना था। आज भी डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस जिस तरह से एक-दूसरे पर शब्दों के प्रक्षेपास्त्र दाग रहे हैं, वे दुनिया के लोकतंत्र प्रेमियों के दिल दहला देते हैं। ब्रिटेन का भी हाल देख लीजिए। वहां आए दिन नस्लीय अथवा सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठती है, जो कभी समूची दुनिया पर राज कर चुके इस देश के लिए लाज की बात है। 
सवाल उठता है, जो देश खुद नैतिक मूल्यों के संकट से गुजर रहे हैं, वे भला दूसरों को नसीहत कैसे दे सकते हैं? अफसोस के साथ कहना पड़ता है, हमेशा से यही होता आया है- समरथ कहंु नहिं दोषु गोसाईं। 
तय है, इस पनपते हुए शीत युद्ध के बीच हमें अपनी जगह तलाशनी होगी। ‘हमें’ से मेरा मतलब उन मुल्कों से है, जो विकसित देशों का शिकार बनते हुए भी अपने बलबूते प्रगति के राजमार्ग पर दौड़ने को आतुर हैं। यहां हम अपने पुरखों के क्रिया-कलाप पर भी नजर डाल सकते हैं। 1950 और 60 के दशक में एशिया और अफ्रीका के तमाम मुल्कों ने मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी थी। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहें, तो परिवर्तनशील हालात के अनुरूप ऐसे किसी औपचारिक अथवा अनौपचारिक मंच की शुरुआत कर सकते हैं। पड़ोस की अस्थिरता का एक ही संदेश है। इस बदलती हुई दुनिया में अपना नाखुदा खुद बनना होगा। 

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@shashishekhar.journalist

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