Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगhindustan aajkal column by shashi shekhar what to think about on this 15th august 11 august 2024

इस 15 अगस्त को जो सोचना है

हमें आशंकाओं के सौदागरों से भी सचेष्ट रहना होगा। बंगाल को भुखमरी की मृत्यु-शय्या पर धकेलने वाले चर्चिल और पश्चिम के तमाम स्वनामधन्य बोधिसत्वों को लगता था कि भारत लोकतंत्र के लिए नहीं बना। हम असफल...

Shashi Shekhar शशि शेखर, Sat, 10 Aug 2024 08:41 PM
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इस 15 अगस्त को जो सोचना है

आज से चार दिन बाद हिन्दुस्तान अपनी आजादी की 77वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। कहते हैं, हर भद्र इंसान को अपने जन्मदिन की खुशी मनाते हुए अपनी पिछली जिंदगी पर भरपूर नजर जरूर डालनी चाहिए। गुजरे वर्षों में हमने क्या खोया और क्या पाया? क्या भूलें कीं और उनके सुधार का जरिया क्या है? इस 15 अगस्त आप इस सिलसिले में एक हिन्दुस्तानी के नाते क्या सोचेंगे?
पहले गर्व करने योग्य मुद्दों की चर्चा।
अपने चारों ओर नजर दौड़ाइए। ऐसा लगेगा, जैसे आग लगी हुई है। बांग्लादेश इस सिलसिले की ताजातरीन कड़ी है। वहां खूंरेजी का डरावना सिलसिला जारी है। बेकाबू हिंसा में अब तक 450 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। वहां हालात इतने बेकाबू हुए कि प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद को एक बार फिर जलावतनी पर मजबूर होना पड़ा। अब संगीनों के साये में जन्मी अंतरिम सरकार हालात पर काबू पाने की कोशिश में है। आज जो लोग शेख हसीना को तानाशाह और बददिमाग करार दे रहे हैं, वे कभी उनके लिए पलक-पांवडे़ बिछाए बैठे थे। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि 1971 में आजाद होने के चार साल के भीतर राष्ट्रपिता कहे जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान की उनके आवास में हत्या कर दी गई थी। शेख हसीना उस रात देश से बाहर न होतीं, तो वह भी मारी जातीं। बाद में भले ही वहां कोई पदेन राष्ट्राध्यक्ष नहीं मारा गया, पर दुर्भाग्यजनक हालात में कई बार तख्तापलट अवश्य हुआ। खुद शेख हसीना 2008 के जानलेवा प्रदर्शनों के बाद सत्ता में लौटी थीं।
बांग्लादेश अपने पितृदेश पाकिस्तान जितना बदनसीब भले न हो, पर आदि देश भारत की तरह खुशनसीब भी नहीं है।
बांग्लादेश में 2009 से अगले पंद्रह वर्ष अब निखालिस शेख हसीना वाजेद के थे। उन्होंने अर्थव्यवस्था को अवश्य धार दी, लेकिन इस बार वह जम्हूरियत की नकाब में तानाशाह थीं। यह नकाब वक्त के साथ उतरती गई और पिछली जून के चुनाव वह सिर्फ दमन के जरिये जीती थीं। इन चुनावों की जमकर जगहंसाई हुई थी। भला विपक्ष को जंजीरों में बांधकर कराए गए चुनाव को कैसे निष्पक्ष कहा जा सकता है? भावुक बंगालियों को उनसे यह उम्मीद न थी। वे सड़कों पर उतर आए और हसीना को दर-बदर होने पर मजबूर कर दिया। अब अराजकतावादियों की बन आई है। जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट को घेरकर प्रधान न्यायाधीश ओबैदुल हसन को इस्तीफे के लिए बाध्य किया गया, वह भयावह है।
वहां जिस तरह हिंदुओं पर हमले हो रहे हैं, वह भारत के लिए चिंताजनक है। मुझे यहां एक ऐसे अधिकारी की बात याद आ रही है, जिसने वर्ष 2022 में निजी बातचीत में दावा किया था कि दस वर्षों से कम वक्त में यह देश अफगानिस्तान जैसा बन जाएगा। हिंसा के मौजूदा दौर में जिस तरह 38 जिलों में हिंदुओं को बेइज्जत किया गया, मंदिर तोडे़ गए, उससे इस आशंका को बल मिलता है।
बांग्लादेश पाकिस्तान की कोख से जन्मा था। पाकिस्तान खुद चिर अस्थिरता का शिकार है। वहां सेना और कट्टरपंथियों की जुगलबंदी कहर ढा रही है। इस संबंध में काफी कुछ कहा-लिखा जा चुका है, इसलिए अगले पड़ोसी नेपाल की ओर बढ़ते हैं। तथाकथित क्रांति के बाद वहां वर्ष 2008 में राजशाही की जगह लोकशाही ने जरूर ले ली, पर सरकारों में स्थायित्व का चलन यहां भी नहीं देखने को मिलता। पिछले ही महीने वहां पुष्प कमल दाहाल ‘प्रचंड’ को हटाकर केपी शर्मा ‘ओली’ पुन: प्रधानमंत्री बन बैठे हैं। कभी राजशाही से हुई जंग में ये दोनों कॉमरेड जंग की जुगलबंदी किया करते थे। बगल के म्यांमार में जुंटा (फौज) की हुकूमत है और श्रीलंका भी कुछ माह पूर्व बांग्लादेश जैसे हालात से गुजरा है। रह बचा मालदीव, तो वहां राष्ट्रपति मुइज्जू चुने तो विधिवत गए हैं, पर लोकतांत्रिक मूल्यों में उनका भरोसा नहीं। ऐसा होता, तो वह अपने ही दो मंत्रियों को ‘काला जादू’ के आरोप में जेल न भेज देते।
तय है, दक्षिण एशिया में अकेला भारत लोकतंत्र का स्थायी लाइट हाउस साबित हुआ है।
हम लड़खड़ाते हैं, फिर भी बढ़ते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां अस्थिरता के दौर नहीं आए। गुजरे साढे़ सात स्वतंत्र दशकों में से लगभग 30 साल गठबंधन सरकारें रहीं। इनमें से चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, इंदर कुमार गुजराल और एचडी देवेगौड़ा की सरकारें लंबी न थीं, पर आयाराम-गयाराम के इस दौर में भी भारतीय अपने विश्वास से नहीं डिगे। यह सुकून की बात है। क्या इतना काफी है? यकीनन नहीं।
स्वतंत्रता दिवस के उल्लास की ओर बढ़ते हुए सोचना ही होगा कि हम अनावश्यक वैचारिक उद्वेलनों के शिकार क्यों हो रहे हैं? बांग्लादेश में हादसों की शुरुआत के साथ ही सोशल मीडिया पर कुकुरमुत्ते की तरह उमड़ पडे़ विचारकों ने भारत के बारे में अपशकुनी आशंकाओं की ‘तिजारत’ शुरू कर दी। यहां तिजारत शब्द का प्रयोग जान-बूझकर कर रहा हूं। सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म ज्यादा ‘हिट्स’ और ‘व्यूअर्स’ के बदले निश्चित रकम चुकाते हैं। जिसके जितने व्यूज, उसके उतने पैसे! यही वजह है कि कई लोग भय का व्यापार करने में जुट पडे़ हैं। अभी वे बांग्लादेश पर स्यापा कर रहे हैं। यही लोग पहले श्रीलंका या पाकिस्तान को लेकर समान दावे कर चुके हैं। राजनीतिज्ञ ऐसी लपटों को कुतर्कों का ईंधन प्रदान करते हैं। मुझे विदेश मंत्री की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सम्हाल चुके एक वरिष्ठ राजनेता का बयान चौंका गया। वह कह रहे थे कि भारत में भी बांग्लादेश जैसे हिंसक प्रदर्शन संभव हैं। उनसे यह उम्मीद नहीं थी।
हम सभी जानते हैं, भारत पाकिस्तान, बांग्लादेश या श्रीलंका जैसा नहीं है।
हमारी विशालता, बहुलता और सहअस्तित्व की शानदार परंपरा हमें भटकने से रोकती है। कुछ लोग कहते हैं कि पाकिस्तान हमारा सहोदर है, वह बेपटरी हुआ, तो हम क्यों नहीं हो सकते? वे भूल जाते हैं कि साल 1947 की 15 अगस्त को हम अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए थे, हजारों साल पुरानी हिन्दुस्तानियत से नहीं। पाकिस्तान में धर्म की आड़ में जो नई रहगुजर गढ़ने की कोशिश हुई, वह आत्मघाती साबित हुई। बांग्लादेश की भी यही दिक्कत है। वह बहुसंख्यकवाद और अपनी सेक्युलर परंपरा के बीच झूल रहा है। शांति के सतत संवाहक बौद्धों ने भी जब म्यांमार या श्रीलंका में बांग्लादेश जैसे प्रयोग करने की कोशिश की, तो वे औंधे मुंह जा गिरे। भूलें नहीं, धर्म संस्कृति का हिस्सा होता है। संस्कृति धर्म का नहीं। दोनों एक-दूसरे को सतत समृद्ध करते चलते हैं। उन्हें एक-दूसरे पर लादने की कोशिश हर बार आत्मघाती साबित हुई है।
मैं निस्संकोच कह सकता हूं कि भारतीय उप-महाद्वीप के लिए कठमुल्लापन जहर है। 15 अगस्त हर वर्ष हमें इसका स्मरण कराता है।
एक और बात। हमें आशंकाओं के सौदागरों से भी सचेष्ट रहना होगा। बंगाल को भुखमरी की मृत्यु-शय्या पर धकेलने वाले चर्चिल और पश्चिम के तमाम स्वनामधन्य बोधिसत्वों को लगता था कि भारत लोकतंत्र के लिए नहीं बना। हम असफल हो जाएंगे। गुजरे 77 साल उनकी भविष्यवाणी को भोथरा साबित करने वाले साबित हुए हैं। हम आगे भी उन्हें ऐसे ही निराश करते रहेंगे। 

@shekharkahin
@shashishekhar.journalist

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