हमें इस दौर से निकलना होगा
आत्ममुग्ध पश्चिम के मुल्कों को छोड़ दें, तो आधी से अधिक धरती की आबादी वीटो पावर में बडे़ बदलाव के पक्ष में है। अगर हमें पिछले दशक तक जारी आर्थिक सुधारों को जारी रखना है, तो इन सुधारों के प्रति गंभीर...
कृपया 1991 से 2019 के बीच के दिन-रात याद कीजिए। आपको लगेगा कि हम इंसानियत के बेहतरीन दौर से गुजर रहे थे। कुछ अफ्रीकी मुल्कों को छोड़ दें, तो युद्ध उन दिनों बीते वक्त की निशानियां लगने लगे थे। इस दौरान चेकोस्लोवाकिया दो भागों में बंटा, सोवियत संघ में शामिल देश अलग हुए, पर वैसी हिंसा नहीं हुई, जैसी भारत अथवा इजरायल की आजादी के वक्त हुई थी।
इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि बर्लिन की दीवार गिरने से शुरू हुआ पश्चिम का प्रभुत्व सोवियत संघ के क्षरण के साथ वर्ष 1991 में परवान चढ़ चुका था। नव-पूंजीवाद विकास की नूतन बारहखड़ी के साथ हमारे दरवाजों पर दस्तक दे रहा था। अगले तीन दशक अति-निर्धनता के अभिशाप पर आघात के थे। इस दौरान समूची दुनिया में एक अरब से अधिक लोग गरीबी की रेखा से मुक्ति पाने में कामयाब हुए। यह अभूतपूर्व था।
इस बीच आतंकवाद की कुछ बड़ी वारदातों ने अवश्य आकार लिया। इसमें सबसे बड़ा न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला था, जिसमें तकरीबन तीन हजार लोग मारे गए और अरबों डॉलर की संपत्ति स्वाहा हो गई। उसी दिन अमेरिकी रक्षा विभाग के मुख्यालय से भी दहशतगर्दों द्वारा कब्जाया हुआ एक जहाज टकराया। इससे कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ, पर अमेरिकी अभेद्यता की नाक अवश्य कट गई। बौखलाए अमेरिका और उसके दोस्तों ने अफगानिस्तान पर जवाबी हमला बोल दिया। वे मानते थे कि ‘न्यूयॉर्क का हत्यारा’ ओसामा बिन लादेन वहीं छिपा हुआ है। यह बात अलग है कि ओसामा अगले दस वर्ष उन्हें वहां नहीं मिला। बाद में उसे पाकिस्तान के अति-सुरक्षित एबटाबाद के सैन्य इलाके में मार गिराया गया। इससे पूर्व अमेरिका और उसके मित्र देशों ने इराक पर इस संगीन आरोप के साथ हमला बोला था कि वहां के तानाशाह सद्दाम हुसैन ने घातक रासायनिक हथियार बना रखे हैं, जो मानवता के खिलाफ हैं।
इराक से पश्चिमी वैज्ञानिकों की भरमार वाली अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसी हाथ मलती लौटी थी। उस समय सवाल उठा था कि ऐसा अनर्थ क्यों? क्यों हजारों निरपराध लोगों के खून से हाथ रंगे गए? क्यों इराक जैसे खुशहाल मुल्क को यूं बर्बाद कर दिया गया? अमेरिका के पास जवाब न थे। यही वजह है कि जब उसने शक की बिना पर अफगानिस्तान पर धावा बोला, तो पश्चिमी मुल्कों के प्रति शेष दुनिया का भरोसा डगमगा गया। सयाने कहने लगे कि यह प्रवृत्ति बलशाली के लिए भली और निर्बलों के लिए घातक है।
वे गलत नहीं थे, क्योंकि इसी कालखंड में चीन और रूस ने भी आततायी रुख अपना लिया। रूस ने सीरिया पर बम बरसाए, क्रीमिया पर कब्जा किया और बाद में यूक्रेन के ऊपर धावा बोल दिया। चीन ने भारत के साथ गलवान में खूनी झड़प की। ताइवान की संप्रभुता को चुनौती दी और अब दक्षिण चीन सागर में फिलीपींस का गुजर-बसर दूभर कर रखा है।
आज की दुनिया में जो तबाही फैल रही है, वह इसी बदनीयती की कोख से जन्मी है।
कोई आश्चर्य नहीं कि आज पूर्वी यूरोप और पश्चिमी एशिया में जारी जंग हर रोज नई आशंकाएं जन रही हैं। यूक्रेन-रूस के बीच युद्ध अपने तीसरे साल में है। इजरायल का गाजा पर सितम भी अगले महीने दूसरे साल में प्रवेश कर जाएगा। समूची दुनिया के पचास से अधिक मुल्क आंतरिक अथवा बाह्य संघर्षों से आक्रांत हैं। यही नहीं, ईरान अपने राष्ट्रपति की मौत के बाद सदमे से उबरा न था कि उसकी सरजमीं हमास के सदर इस्माइल हानियाह के खून से लाल हो गई। ईरान ने बदला चुकाने की कसम खाई है और उधर लेबनान व इजरायल के बीच जंग गरमाती जा रही है। आप इसे इस्लाम बनाम यहूदी का युद्ध मानने की गलती मत कर बैठिएगा। हम विरोधाभासों की नई दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं।
इस विरल वक्त में ‘ऑर्थोडॉक्स’ रशियन चर्च को मानने वाले मॉस्को और कीव को रोटी-बेटी, आचार-विचार और बरसों पुराने साथ की सौगंध तक नहीं रोक पा रही। वहां अब तक एक लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और खरबों की संपत्ति स्वाहा हो चुकी है। यह जंग कब रुकेगी, इस सवाल का जवाब पुतिन और जेलेंस्की भी नहीं दे सकते। यही हाल इजरायल का है। नेतन्याहू जानते हैं कि वह जो कर रहे हैं, उसका हासिल सिर्फ आर्थिक तबाही है, पर वह तबाही की आग को हवा दिए जा रहे हैं। इजरायल के लिए आए दिन नए मोर्चे खुल रहे हैं और इससे समूचा भू-भाग थर्रा उठा है।
यह थर्राहट उन लोगों के मन में भी दहशत पैदा कर रही है, जो जानते हैं कि जंग आर्थिक विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होती आई है। भारत जैसे तमाम देश इसी मत को मानते आए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसीलिए पिछले हफ्ते कीव गए थे। वह इसके पहले मॉस्को की यात्रा कर चुके हैं। मोदी ने अनेक बार पुतिन, जेलेंस्की, बाइडन और अन्य बड़े नेताओं से इस संबंध में फोन पर चर्चा भी की, मगर युद्धग्रस्त भूमि के अधिपति कम जिद्दी नहीं हैं। जेलेंस्की ने मोदी के प्रस्थान के तत्काल बाद जैसी बचकानी बयानबाजी की, उससे जाहिर है कि वह शांति से ज्यादा अपनी छवि को तरजीह देते हैं। यही हाल नेतन्याहू का है। वह अमेरिकी सदर की चेतावनियों तक को दरकिनार कर चुके हैं। बढ़ते संघर्षों के इस दौर में राष्ट्राध्यक्षों की ऐसी सनक द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले के महीनों की डरावनी याद दिलाती है।
इस पर अंकुश कैसे लगाया जाए?
सैद्धांतिक उत्तर तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद इसके लिए पूरी तरह अधिकृत है। उसे इस विनाश पर लगाम लगानी चाहिए, मगर परिषद कुछ मुल्कों की जागीर बनी हुई है। ऐसा न होता, तो इराक, अफगानिस्तान के बाद अब गाजा और यूक्रेन न सुलग रहे होते। स्लोवानिया की राष्ट्रपति नताशा पिर्क मुसर ने ठीक ही कहा है, ‘आखिर संयुक्त राष्ट्र का गठन क्यों हुआ था? इसका गठन इस पूरे ग्रह पर शांति और सुरक्षा की स्थापना के लिए किया गया था। लेकिन इस संगठन के साथ एक बड़ी समस्या है। युद्ध न सिर्फ मैदानों में लडे़ जाते रहे, बल्कि सुरक्षा परिषद (संयुक्त राष्ट्र) के भीतर वीटो शक्तियों के साथ भी जंग लड़ी जाती रही हैं। पिछले 25 वर्षों से हम संयुक्त राष्ट्र में सुधार को लेकर बहस कर रहे हैं। पर आज हम क्या देख रहे हैं? सुरक्षा परिषद निष्क्रिय है और जब भी हमारे हित की कोई बात होती है, कम से कम तीन देश वहां अपने वीटो के इस्तेमाल के लिए तत्पर होते हैं। मैं मानती हूं, अब वक्त आ गया है कि हम वीटो पावर में बडे़ बदलाव के बारे में गंभीर विमर्श की शुरुआत करें।’
संयोग से नताशा अकेली नहीं हैं। आत्ममुग्ध पश्चिम के मुल्कों को छोड़ दें, तो आधी से अधिक धरती की आबादी इसके पक्ष में है। अगर हमें पिछले दशक तक जारी आर्थिक सुधारों को जारी रखना है, तो इन सुधारों के प्रति गंभीर नजरिया अपनाना ही होगा। अनैतिक विस्तारवाद और विकास के बीच झूलती दुनिया को बेहतर संतुलन की जरूरत है।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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