Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan aajkal column by shashi shekhar Rahul Ranchod or Strategist 5 may 2024

राहुल, रणछोड़ या रणनीतिज्ञ

राजनीति में मतदाता का निर्णय ही सर्वोपरि होता है। यदि कांग्रेस अपने गठबंधन के माध्यम से किसी तरह सत्ता हासिल करने में कामयाब हो जाती है, तो ये सारे कयास हवा हो जाएंगे। इतिहास विजेताओं पर लगे दाग...

Shashi Shekhar शशि शेखर, Sat, 4 May 2024 07:31 PM
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राहुल, रणछोड़ या रणनीतिज्ञ

‘मैंने पहले ही यह भी बता दिया था कि शहजादे वायनाड में हार के डर से अपने लिए दूसरी सीट खोज रहे हैं। अब इन्हें अमेठी से भागकर रायबरेली सीट चुननी पड़ी है। ये लोग घूम-घूमकर सबको कहते हैं- डरो मत! मैं भी इन्हें यही कहूंगा- डरो मत! भागो मत!’- अपनी चुटीली शैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगे जोड़ते हैं- ‘मैं पहले भी आपसे कहता था कि इनकी सर्वोच्च नेता भाग जाएंगी, वह भाग गईं। उन्होंने उत्तर प्रदेश छोड़कर राजस्थान से चुनाव लड़ा।’ 
प्रधानमंत्री को सोनिया और राहुल गांधी पर तंज कसने का यह मौका खुद कांग्रेस पार्टी ने दिया है। गए गुरुवार की शाम से ही संकेत मिलने लगे थे कि राहुल गांधी रायबरेली से और किशोरी लाल शर्मा उर्फ केएल शर्मा अमेठी से ताल ठोकेंगे। शर्मा जी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सचिव हैं और पिछले तीन दशकों से ‘परिवार’ की ओर से रायबरेली व अमेठी निर्वाचन क्षेत्रों में ‘कामकाज’ संभाल रहे हैं। 
जो उनके इतिहास और भूगोल से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें बता दें कि वह मूलत: पंजाब के रहने वाले हैं, पर परिवार का स्थायी प्रतिनिधि होने के नाते उनके दोनों संसदीय सीटों के कार्यकर्ताओं से बेहतरीन संबंध हैं। कांग्रेस का कहना है कि इस नाते केएल शर्मा अमेठी से चुनाव लड़ने के हकदार हैं, और वह स्मृति ईरानी को हरा देंगे।
क्या ऐसा संभव है?
लोकतंत्र में असंभव तो कुछ भी नहीं। जब 1977 में राज नारायण इंदिरा गांधी को हरा सकते हैं और 2019 में स्मृति ईरानी राहुल गांधी को क्लीन बोल्ड कर सकती हैं, तो नतीजे घोषित होने तक इस सिलसिले में कुछ न बोलना ही बेहतर रहेगा। हालांकि, स्मृति ईरानी और केएल शर्मा की ‘फेस वैल्यू’ में जमीन-आसमान का अंतर है। शर्मा अब तक नेपथ्य से कामकाज सम्हालते थे, जबकि स्मृति बेहद आक्रामक हैं। यह लड़ाई फिलहाल बराबर की प्रतीत नहीं होती है।
नेहरू-गांधी परिवार का अमेठी से पुराना नाता रहा है। 1977 में संजय गांधी यहां से चुनाव लडे़, पर हार गए थे। संजय अकेले नहीं थे, उनकी मां इंदिरा गांधी भी पड़ोस की रायबरेली से रपट गई थीं। अगला चुनाव मध्यावधि था और 1980 के मतदान ने संजय और इंदिरा, दोनों के पक्ष में मुनादी की थी। तब से 2019 तक नेहरू-गांधी परिवार और अमेठी दूध-शक्कर माने जाते थे। अब, राहुल की रुखसती से बीच चुनाव में यह संदेश जरूर जाएगा कि कांग्रेस कहीं-न-कहीं हिचक रही थी। भाजपा ने बिना समय गंवाए हमला बोल दिया है। प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री सहित सभी के शब्दबाण चुनावी फिजां को गरमा रहे हैं।
नेहरू-गांधी परिवार ने अमेठी का परित्याग क्यों किया?
कांग्रेस के कर्णधारों ने संभवत: सोचा होगा कि अगर प्रियंका और राहुल पड़ोसी सीटों से चुनाव लड़ते हैं, तो उन पर परिवारवाद का आरोप सघन हो जाएगा। जीत जाने की स्थिति में भाई-बहन सदन में खुद भले ही सहज रहते, पर विपक्ष और नुक्ताचीनी के अभ्यस्त आलोचक, दोनों को मौका मिल जाता, वे तुलना शुरू कर देते। किसने क्या, कितना और क्यों बोला, सत्र-दर-सत्र यह बहस चलती, इससे गलत संदेश जा सकता था। गांधी परिवार इस मामले में बेहद सजग रहता है। वहां जिम्मेदारियां साफ तौर पर विभाजित की जाती रही हैं। यही वजह है कि किसी पारिवारिक कलह के संकेत एक बार के अलावा कभी बाहर नहीं आए। वह मौका था, संजय गांधी के दुखद अवसान के बाद मेनका गांधी की ‘1 सफदरजंग रोड’ से रवानगी। तब से अब तक मेनका और वरुण गांधी के राजनीतिक रास्ते राहुल गांधी और उनके परिवार से अलग हैं। 
कांग्रेस के नेता इस तथ्य से वाकिफ हैं कि अमेठी को छोड़ना गलत संदेश दे सकता है, इसीलिए वे तर्क दे रहे हैं कि रायबरेली से नेहरू-गांधी परिवार का नाता अमेठी के मुकाबले दशकों पुराना है। वर्ष 1952 में फिरोज गांधी यहां से जीते थे। उनके बाद इंदिरा गांधी, इंदिरा के पश्चात सोनिया और सोनिया के चुनावी राजनीति से संन्यास लेते ही राहुल इस विरासत को संभालने के लिए आगे आए हैं। उनके नामांकन में समूचे परिवार के साथ कांग्रेस के आला पदाधिकारी जुटे। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता एकजुटता दिखाते हुए उनके साथ थे। मतलब साफ है, गठबंधन अमेठी परित्याग को तार्किक जामा पहनाना चाहता है। 
इस विमर्श में एक और अहम सवाल उठता है कि अगर राहुल गांधी जीत भी जाते हैं, तो इससे कांग्रेस को कितना लाभ होगा? पार्टी प्रदेश की 17 सीटों पर यह चुनाव लड़ रही है, लेकिन क्या आपको उसके पांच प्रत्याशियों के भी नाम ध्यान आते हैं? कांग्रेस प्रदेश में पहले से दयनीय स्थिति में है। पिछले विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी पार्टी की प्रभारी महासचिव थीं। कांग्रेस ने कुलजमा 398 सीटों पर ताल ठोकी थी, मगर जीती कितनी? सिर्फ दो! इनमें से एक आराधना मिश्र हैं। रामपुर खास की जिस सीट पर वह पिछले लगभग दस साल से जीत रही हैं, उसे उनके पिता प्रमोद तिवारी ने बडे़ जतन से गढ़ा है। प्रमोद तिवारी के ही संबंधों, संपर्कों का असर था कि समाजवादी पार्टी ने यहां से उम्मीदवार न उतारकर उनकी राह आसान की। दूसरे हैं, महाराजगंज जनपद के फरेंदा से वीरेंद्र चौधरी। चौधरी साहब अब कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। क्षेत्र में उनका जो भी प्रभाव हो, पर समूचे प्रदेश में उन्हें जानने वालों की संख्या कुछ खास नहीं है। 
ऐसे में, राहुल अगर जीत भी जाएं, तो उससे कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में कोई खास फायदा होता नहीं दिख रहा है। इसके लिए उन्हें उत्तर प्रदेश में अधिक समय लगाने के साथ लोगों को समझाने के लिए पर्याप्त नैतिक आधार भी जुटाना होगा। सोशल मीडिया के इस दौर में सभी जानते हैं कि वह कुछ दिनों पहले वायनाड में वायदा कर रहे थे कि यही मेरा परिवार है और मैं इसे छोड़कर नहीं जाऊंगा। आज रायबरेली में वह विरासत के नाम पर ताल ठोक रहे हैं। अगर वह दोनों सीट जीत जाते हैं, तो किसका परित्याग करेंगे? केरल छोड़ेंगे, तो यह उन लोगों की अवहेलना होगी, जिन्होंने संकट के समय में उन्हें जिताया। यदि रायबरेली छोड़ेंगे, तब भी इसी तरह की बातें उठेंगी। 
यहां एक और तथ्य गौरतलब है। कन्नौज में अखिलेश यादव ने अपने भतीजे तेजप्रताप यादव को चुनावी मैदान में उतारा था। पता नहीं क्यों, दो दिन के भीतर उनका इरादा बदल गया और वह खुद चुनावी मैदान में ताल ठोकने उतर आए। क्या उन्हें आभास हो गया था कि गांधी परिवार इस बार अमेठी को अलविदा बोलने वाला है? अब अगर राहुल और अखिलेश, दोनों विजयी घोषित होते हैं, तब भी अखिलेश यादव लोकसभा में उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा चेहरा होंगे। इससे उनकी राजनीतिक छवि मजबूत होगी। कभी मायावती ने भी लोकसभा की सदस्यता का बेहतरीन उपयोग किया था। 
यहां एक चेतावनी। राजनीति में मतदाता का निर्णय ही सर्वोपरि होता है। यदि कांग्रेस अपने गठबंधन के माध्यम से किसी तरह सत्ता हासिल करने में कामयाब हो जाती है, तो ये सारे कयास हवा हो जाएंगे। इतिहास विजेताओं पर लगे दाग-धब्बों की अनदेखी करने का अभ्यस्त जो है। क्या आपको लगता है कि ऐसा होने जा रहा है? 

@shekharkahin
@shashishekhar.journalist

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