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समस्या से समस्या जनता देश

हमारा देश एक संकट से दूसरा संकट जनने का अभ्यस्त हो चुका है। यकीन न हो, तो 21 अगस्त की घटनाओं पर नजर डाल देखें, एक तरफ अस्पतालों में मरीज बिना इलाज तड़प रहे थे, तो दूसरी तरफ आरक्षण के समर्थक ट्रेनें...

Shashi Shekhar शशि शेखर, Sat, 24 Aug 2024 07:51 PM
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समस्या से समस्या जनता देश

रांची के अनिमुद्दीन अंसारी और उनकी पत्नी से मिलिए। ये वे बदनसीब हैं, जो 200 किलोमीटर का दुरूह सफर तय कर यहां राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान (रिम्स) में इलाज कराने आए थे। उन्हें क्या पता था कि डॉक्टर हड़ताल पर हैं और अगले 10 दिन उनकी जिंदगी एक ऐसे नरक से गुजरेगी, जिसकी उन्हें कल्पना तक न थी। श्रीमती अंसारी के हाथ पर प्लास्टर है और वह तमाम अन्य रोगों की शिकार हैं। उन्हें लगता था कि यहां नि:शुल्क और अच्छा इलाज हो जाएगा। हुआ उलटा। हड़ताल की वजह से वे अस्पताल के गलियारे में पड़े रहने को अभिशप्त हो गए। रांची में बसर लायक पैसे उनके पास थे नहीं, पर गरीब की उम्मीद ही उसकी जिंदगी होती है। 
‘हिन्दुस्तान’ में उनकी पीड़ा प्रकाशित होने के बाद आला चिकित्सा अधिकारियों की नजर उन पर पड़ी और उन्हें माकूल इलाज मिल सका। यह कहानी अकेले अंसारी दंपति की नहीं है। समूचे देश में, जहां भी डॉक्टर हड़ताल पर थे, यही हाल था। कहीं कोई गर्भवती इलाज के लिए तड़प रही थी, तो कहीं किसी नवजात की प्राण-रक्षा के लिए इमदाद की जरूरत थी, पर ‘हिप्पोक्रेटिक ओथ’ से बंधे डॉक्टर पसीज नहीं रहे थे। क्या उनकी मांग नाजायज थी? यकीनन नहीं। कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में जो हुआ, वह अकल्पनीय, असहनीय और अस्वीकार्य है। उसके दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी ही चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि समूचे देश के ज्यादातर डॉक्टर लंबे समय के लिए काम से अपने हाथ खींच लें?  
इसमें कोई दोराय नहीं कि डॉक्टरों और खासकर महिला चिकित्सकों को खास सुरक्षा की आवश्यकता है। मैं यहां डॉक्टरों के साथ समूचे पैरा-मेडिकलकर्मी दल को जोड़ना चाहूंगा। वे डॉक्टरों से कहीं अधिक संवेदनशील स्थिति में कार्य करते हैं। उन्हीं को मरीजों की तीमारदारी करनी होती है। वे ही प्रारंभिक चिकित्सा करते हैं और उन्हीं पर डॉक्टर के निर्देश के पालन की जिम्मेदारी होती है। यही वजह है कि वे मरीजों और उनके परिजनों के गम या गुस्से का पहला शिकार बनते हैं। डॉक्टरों की बात करते समय हमें अस्पतालों की संपत्ति और वहां काम करने वाले सभी लोगों की सलामती की चर्चा करनी ही होगी, लेकिन हम संपूर्ण विमर्श के अभ्यस्त कहां? 
यही वजह है कि डॉक्टरों की इस लंबी हड़ताल ने एक और जरूरी मुद्दे को मुकाम तक पहुंचने से रोक दिया। यह मुद्दा है, महिला सुरक्षा का। आपको याद होगा। वर्ष 2012 में जब ‘निर्भया’ के साथ दिल्ली में दरिंदगी हुई थी, तब पूरा देश अपनी उस बेटी के पक्ष में उठ खड़ा हुआ था। उस समय जो कठोर कानून बनाए गए, उससे ये आशंकाएं भी पैदा हुई थीं कि उनका दुरुपयोग किया जा सकता है। मुझे याद है कि एक सांसद ने राज्यसभा में बहस के दौरान कहा था कि मान्यवर, इसका दुरुपयोग हम सभी के खिलाफ किया जा सकता है, मगर उन जैसों की बातों पर कान नहीं दिया गया। संसद जन-भावनाओं का आईना होती है। उस उबलते वक्त में ऐसा कानून तो पास होना ही था। 
इस कानून के कारण क्या बलात्कार रुक गए? 
आरजी कर अस्पताल की घटना गवाह है कि बलात्कार, हत्या और ऐसे अन्य जघन्य अपराध कानूनों से नहीं, सिर्फ सामाजिक चेतना के जरिये रोके जा सकते हैं। समय आ गया है, जब हम प्राथमिक कक्षाओं से ही समाज में सही तरीके से रहने के तौर-तरीकों का प्रशिक्षण शुरू करें। निर्भया की घटना के बाद से एक सकारात्मक परिवर्तन शायद आपने भी महसूस किया हो। अब पढ़ी-लिखी माएं अपनी बेटियों को बचपन से ही ‘गुड टच’ और ‘बैड टच’ का फर्क बताती हैं। इसका लाभ भी हुआ है। छोटे बच्चों ने उन तमाम दुराचारियों को, जो रिश्तों की खाल ओढ़कर उनका शोषण कर रहे थे, बेपर्दा किया है। अब इस सिलसिले को मुकाम तक पहुंचाने की जरूरत है।
जो लोग पुरुष प्रधान समाज का रोना रोते रहते हैं, उन्हें भी यह मालूम होना चाहिए कि समाज में पुरुष और महिला, दोनों बराबर के भागीदार हैं। बलात्कार होने के बाद कई बार घर की महिलाओं की भूमिका भी कानून के पक्ष में नहीं पाई गई है। अगर हमें शुरू से इसकी शिक्षा मिलेगी, तो प्रतिरोध की संपूर्ण शुरुआत परिवार से ही हो सकेगी। पर्याप्त सामाजिक जागरूकता के बाद ही राजनीति के उन ठेकेदारों की भी खबर ली जा सकेगी, जो हर विभीषिका को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल के लती हो चुके हैं। याद करें, जो आज कोलकाता में हो रहा है, वही कल हाथरस में हुआ था। हाथरस से पहले बदायूं में हमने ऐसा ही गुस्सा देखा था। यह किसी एक दल अथवा नेता की हुकूमत का मामला नहीं है। यह भारत की बच्चियों से जुड़ा मुद्दा है और इस पर सियासत नहीं, संजीदगी की जरूरत है। 
उनके इतने हो-हल्ले और कोलकाता की रोंगटे खडे़ कर देने वाली घटना के बाद देहरादून, पुणे और मुजफ्फरपुर सहित देश के विभिन्न हिस्सों में बच्चियों के साथ दुराचार के तमाम मामले सामने आए। मसलन, 11 अगस्त को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में एक दलित किशोरी को रात्रि में गुंडे उठा ले गए। बाद में उसका शव बुरी हालत में पाया गया। पुलिस का कहना है कि यह निजी प्रेम प्रसंग का मामला है। प्रेम प्रतिशोधी हो जाए, तब भी ऐसी हिंसा को कैसे कमतर ठहराया जा सकता है? इसी तरह, 12 अगस्त को देहरादून के अंतरराज्यीय बस अड्डे पर पांच लोगों ने एक किशोरी की अस्मत लूट ली। ये सभी उत्तराखंड राज्य सड़क परिवहन निगम के कर्मचारी हैं। यह कांड सरकारी बस में हुआ। सरकारी स्थान पर हुआ और जहां हुआ, वहां 30 से अधिक कैमरे स्थापित हैं। निजी गार्ड की व्यवस्था है। इसके बावजूद भेड़ियों का झुंड अपनी मनमर्जी कर गया। कैसे? 
हम ऐसी घटनाओं से बजबजा ही रहे थे कि अगले दिन यानी 13 अगस्त को महाराष्ट्र के पुणे जिले में एक नया मामला सामने आ गया। वहां एक नामचीन स्कूल में चार और छह साल की दो अबोध बच्चियों का एक सफाईकर्मी ने यौन उत्पीड़न किया। इनमें से एक बच्ची ने स्कूल जाने से मना किया और जब उसकी मां ने पूछा, तो तीन दिन बाद इस सानिहे की जानकारी हो सकी। बदलापुर में तो लोग इससे आक्रोश में आ गए और उन्होंने टे्रन का चक्का जाम कर दिया। घंटों तक न कोई ट्रेन आई और न ही गई। दुर्व्यवहार की शिकार उन बच्चियों को इंसाफ अपनी गति से ही मिलेगा, लेकिन हजारों ट्रेन यात्री इस प्रदर्शन से सांसत में पड़ गए। हमारा देश एक संकट से दूसरा संकट जनने का अभ्यस्त हो चुका है। यकीन न हो, तो 21 अगस्त की घटनाओं पर नजर डाल देखें, एक तरफ अस्पतालों में मरीज बिना इलाज तड़प रहे थे, तो दूसरी तरफ आरक्षण के समर्थक ट्रेनें रोक रहे थे, बसों में आग लगा रहे थे और सड़कें जाम कर रहे थे। इससे परेशान कौन हुआ? सरकार या आम आदमी? 
हमें इस फर्क को समझना ही होगा। 

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