पिछले पांच वर्ष और पुरानी ग्रंथियां
कल जम्मू-कश्मीर के विभाजन और अनुच्छेद-370 की रुखसती के पांच साल पूरे हो रहे हैं... पिछले पांच सालों में इस सूबे की हवा में बदलाव आया है। लोकसभा को छोड़ दें, तब भी स्थानीय निकाय और ग्राम समितियों के...
यह उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले का गांव, सभा नगर है। इसी के एक सहमे हुए से मकान में रुचि रह-रहकर अपने फोन की ओर देखती है। उसके मन में टिमटिमाती आस कायम है कि घंटी बजेगी और उधर से मोहित बोल रहा होगा। मोहित, यानी उसका पति, स्वर्गीय लांस नायक मोहित राठौर।
पिछली 26 जुलाई की रात उसका फोन आया था। मोहित ने खैर-खबर के बाद कहा कि मैं तुम्हें कल कॉल करता हूं। अगले दिन फोन आया जरूर, पर मनहूस खबर लेकर। पता चला कि कल रात पाकिस्तान बॉर्डर एक्शन टीम ‘बैट’ के हमले में मोहित शहीद हो गया। रुचि को इस वज्रपात से पूर्व यह तक नहीं मालूम था कि मोहित कहां तैनात हैं?
रुचि अकेली दुर्भाग्य की मारी नहीं है। आजादी से लेकर अब तक जम्मू-कश्मीर में जितने जवानों ने बलिदान दिया है, उतने तो पांचों लड़ाइयों में नहीं मारे गए। हाल-फिलहाल, जम्मू खित्ते में आतंकवादी हरकतों में तेजी आई है। इतनी ज्यादा कि सिर्फ जुलाई के महीने में 12 जवान शहादत दे चुके हैं। तय है, दहशतगर्दों ने अपनी रणनीति बदली है। वे अब जम्मू क्षेत्र पर अपना ध्यान लगा रहे हैं। क्यों?
यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि कल जम्मू-कश्मीर के विभाजन और अनुच्छेद-370 की रुखसती के पांच साल पूरे हो रहे हैं। ये हिंसा की घटनाएं, ये हमले क्या दर्शाते हैं? क्या केंद्र सरकार की कश्मीर-नीति फेल हो चुकी है? क्या अनुच्छेद-370 को हटाने का फैसला ठीक नहीं था? क्या जम्मू-कश्मीर की जनता आतंकवादियों का साथ दे रही है?
यकीनन ऐसा नहीं है।
देश के इस हिस्से में जब अम्न-ओ-अमान लौटने लगता है, तो पाकिस्तान बौखला उठता है। 1990 के दशक में जब बड़ी संख्या में पंडितों का पलायन हुआ था, तब ऐसा लगा था कि वे अपनी कश्मीर-नीति में सफल हो गए। दिल्ली और श्रीनगर की हुकूमतों के साथ वहां के बाशिंदों ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने अपने-अपने तरीके से आतंकवाद से जूझने की कोशिश की। सन् 2000 के आसपास वहां शांति की घर वापसी शुरू हुई और मुफ्ती मोहम्मद सईद के वक्त में बरसों बाद घाटी में पर्यटकों की आमद आरंभ हुई। उनके हटते ही कुछ समय के लिए गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री बने। उसी दौरान श्रीनगर में गुजरात के पर्यटकों पर हमला हुआ था। इसमें चार बच्चे व किशोर मारे गए और छह अन्य जख्मी हो गए थे।
कुछ वर्षों बाद जब पुन: लगने लगा कि हालात काबू में हैं, तो पत्थरबाजी का नया दौर शुरू कराया गया। कुछ पैसों के बदले बेरोजगार नौजवानों के हाथों में पत्थर थमा दिए गए थे। महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला ने उस पर काबू पाने की हरचंद कोशिश की। साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आने के बाद से हालात और तेजी से बदले। उन्होंने राज्यपाल के पद पर दशकों बाद एक राजनीतिज्ञ सतपाल मलिक की नियुक्ति की। मलिक अपने तौर-तरीकों के कारण वहां अधिक वक्त तक नहीं टिके, लेकिन उन्होंने वहां की जनता से संवाद स्थापित करने की कोशिश अवश्य की। दूसरी बार हुकूमत संभालने के पहले से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनुच्छेद-370 को हमेशा के लिए विदा करने का मन बना लिया था। जब 5 अगस्त, 2019 को गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में इसकी घोषणा की, तब सरकार जानती थी कि इतनी आसानी से इसका क्रियान्वयन नहीं होगा।
वहां बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों की तैनाती की गई और मोदी-शाह के विश्वस्त जीसी मुर्मु को पहला उप-राज्यपाल बनाया गया। हालांकि, सार्थक बदलाव की शुरुआत मनोज सिन्हा की तैनाती के बाद हो सकी। सिन्हा तपे-तपाए राजनेता हैं। उन्होंने स्थानीय लोगों के दिलों में अभूतपूर्व स्थान बनाने में सफलता हासिल की। इसका सार्थक संदेश पूरी दुनिया में गया। पिछले साल दो करोड़ से अधिक लोग जम्मू-कश्मीर के मुख्तलिफ हिस्सों में घूमने गए। इस दौरान कश्मीरियों को आर्थिक तरक्की की मुख्यधारा से जोड़ने पर भी केंद्र ने जमकर काम किया। पिछली मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच हजार करोड़ रुपये से अधिक की योजनाओं का लोकार्पण किया। इसी तरह, घाटी को रेल से शेष भारत से जोड़ने की योजना पर तेजी से काम हो रहा है।
कश्मीरियों ने भी इन बदलावों को हाथों-हाथ लिया। लोकतंत्र की सफलता पार्टियों की हार और जीत से नहीं, मतदान के प्रतिशत से आंकी जाती है। लोकसभा के पिछले चुनाव में दशकों के रिकॉर्ड टूट गए। सिर्फ चुनाव ही क्यों? ऐसा पहली बार हुआ, जब नए साल के स्वागत के लिए गुजरी 31 दिसंबर की रात को हजारों लोग लाल चौक पर इकट्ठा हो गए। घंटाघर में संगीत सभा का आयोजन हुआ। अगले महीने गणतंत्र दिवस की परेड देखने को बख्शी स्टेडियम भर गया। डल झील में 130 नावों में तिरंगे की रैली निकली। बरसों बाद आयोजित हुए मोहर्रम के जुलूस ने भी नए संदेश सुनाए।
सरहद के इस हिस्से की खुशी रावलपिंडी के सेना मुख्यालय और आईएसआई के लिए मातम बन जाती है। पहले वे अनुच्छेद-370 को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाना चाहते थे, पर असफल रहे। सुरक्षा परिषद् में यह मुद्दा दो बार औंधे मुंह गिरा। इस्लामी देशों से भी मदद हासिल नहीं हुई, उल्टे पाक अधिकृत कश्मीर में भी आंदोलन होने लगे।
जम्मू की वारदातें इसी से उपजी खीझ का नतीजा हैं। इसके लिए उन्होंने रणनीति भी बदली है। अब आतंकवादी घात लगाकर हमला करते हैं और जीपीएस रहित उपकरणों के जरिये जंगली पगडंडियों को पकड़कर गुम हो जाते हैं। उनका जोर सुरक्षाबलों को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाने पर होता है। यही वजह है कि फिलवक्त सेना और सैनिकों का अधिक नुकसान हो रहा है। घाटी के बजाय जम्मू पर जोर देने की कुटिलता भरी रणनीति का एक कारण यह भी है कि यह हिंदू बहुल इलाका है। यहां तीर्थयात्रियों और निरीह ग्रामीणों की हत्या से सांप्रदायिक उबाल पैदा किया जा सकता है। अगर ऐसा होता है, तो पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हल्ला मचा सकता है कि सिर्फ घाटी नहीं, समूचा जम्मू-कश्मीर जल रहा है।
इसके लिए समय भी सोच-समझकर चुना गया है। अनुच्छेद-370 की रुखसती के पांचवें वर्ष में ऐसी घटनाओं का सहारा लेकर यह साबित करने की नापाक कोशिश हो रही है कि पूरे प्रदेश की जनता इससे आंदोलित है, जबकि ऐसा कतई नहीं है। यही नहीं, तीन महीने के अंदर वहां विधानसभा चुनाव होने हैं। आईएसआई के आका लोकसभा चुनावों में उमड़ी भीड़ से हतप्रभ हैं। वे विधानसभा चुनावों को दागदार करना चाहते हैं, लेकिन उनकी सफलता संदिग्ध है। पिछले पांच सालों में इस सूबे की हवा में बदलाव आया है। लोकसभा को छोड़ दें, तब भी स्थानीय निकाय और ग्राम समितियों के चुनावों में गोली खाकर भी लोगों ने मतदान किया। लोकतंत्र का कारवां वहां कदम-दर-कदम बढ़ा है, उसे रोकना किसी के वश में नहीं है।
एक बार फिर मोहित पर लौटते हैं। संयोग से कल उसकी त्रयोदशी भी है। अफसोस! लोकतंत्र की इस सुर्खरू रंगत में हमारे जोशीले जवानों का लहू भी शामिल है।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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