भाजपा को इस भंवर से निकलना होगा
आशा और जन-अवधारणा के विपरीत आए नतीजों ने गफलतों को उतार फेंकने का अवसर भाजपा को प्रदान किया है। उसके पास सबक लेने का समय, साधन और सक्षम नेतृत्व है। पहले दल की दलदल बाहर से नहीं दिखती थी। अब जब...
ऐसा लगता है, जैसे भारतीय जनता पार्टी की इस्पाती सतह के भीतर कुछ खदबदा रहा है। कभी किसी केंद्रीय मंत्री के बयान पर चर्चाओं का बवंडर उठ आता है, तो कभी किसी उप-मुख्यमंत्री का कथन सुर्खियां बन जाता है। क्या भारतीय जनता पार्टी का अनुशासन एक ऐसा तिलिस्म था, जो उम्मीद के मुताबिक जीत के अभाव में उघड़ने लगा है?
इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए पहले मौजूदा उथल-पुथल पर नजर डाल लेते हैं। जिन राज्यों में इस लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को झटका लगा, उनमें उत्तर प्रदेश अव्वल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद वाराणसी से चुनाव लड़ते हैं। उनके डिप्टी राजनाथ सिंह लखनऊ से चुने जाते हैं। सबसे काबिल मुख्यमंत्रियों में जिनकी गणना होती है, वह योगी आदित्यनाथ वहां के मुख्यमंत्री हैं। इससे पहले के दो लोकसभा चुनावों में भाजपा ने वहां से क्रमश: 71 और 62 सीटें जीती थीं। ऐसे में, 29 सीटों का नुकसान पार्टी को हिला गया। अगर भाजपा को पिछले चुनाव के बराबर सीटें मिल गई होतीं, तो उसे रह बची तीन सीट जुटाकर लोकसभा में बहुमत हासिल करने में कोई खास दिक्कत नहीं पेश आती।
जाहिर है, पार्टी को गंभीर मंथन की जरूरत है, पर भाजपा के तमाम नेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में व्यस्त हैं। जो भूल गए हैं, उन्हें याद दिला दूं, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्त में कल्याण सिंह को लेकर ऐसी ही चर्चाएं हुई थीं। कल्याण सिंह का जो नुकसान हुआ, वह अपनी जगह है, पर अगली बार विधानसभा में भाजपा औंधे मुंह जा पड़ी थी। यही नहीं, उसके दो साल बाद अटल जी को भी सत्ता गंवानी पड़ी थी। केंद्र की हुकूमत पाने के लिए भाजपा को दस और उत्तर प्रदेश के लिए पंद्रह बरस का वनवास झेलना पड़ा था। वर्ष 2017 से आज तक योगी आदित्यनाथ वहां के मुख्यमंत्री हैं। पार्टी ने योगी के चेहरे को आगे कर 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ा और इस बार भी बहुमत हासिल हुआ। यही वजह थी कि लोकसभा चुनावों से पहले माना जा रहा था कि पार्टी वहां 75 के करीब सीटें जीतेगी। ऐसा नहीं हुआ। क्यों?
रॉबर्ट्सगंज संसदीय क्षेत्र का यह किस्सा सुनिए, जवाब मिल जाएगा। चुनाव से ऐन पहले हम रेणुकूट से चलकर हाथी नाला पहुंचने वाले थे। दोनों तरफ जंगल था। अचानक मेरी नजर दूर बाईं तरफ बकरी चरा रही कुछ महिलाओं पर पड़ी। महिलाओं की वेशभूषा से स्पष्ट था कि वे आदिवासी हैं। उन तक पहुंचकर मैंने पूछा कि क्या पिछले 10 सालों में आपकी जिंदगी में कोई परिवर्तन हुआ है? गोंडी, भोजपुरी और हिंदी के मिले-जुले शब्दों में उन्होंने बताया कि हमारे गांव में पानी आ गया है। घर में पानी! उन्होंने ‘हां’ की मुद्रा में सिर हिलाया। मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई। दूर-दूर तक बस रेत, कंटीले पेड़ और चमड़ी झुलसाती धूप। घर पूछा, तो उन्होंने दूर दिखती पहाड़ी की ओर इशारा कर दिया। इस इलाके में घर में नल तो दूर, पेयजल तक दुर्लभ होता था। उनसे अगला सवाल था कि आप किसे वोट देंगी? जवाब मिला- फूल। फूल, यानी कमल। मैंने पूछा, आपको मालूम है कि देश के प्रधानमंत्री कौन हैं? मेरे हाथ में मौजूद अखबार में छपी मोदी की तस्वीर की ओर उन्होंने इशारा कर दिया। मन में सवाल उभरा कि यहां तो अपना दल की उम्मीदवार कप-प्लेट के चिह्न पर चुनाव लड़ रही हैं। ये अबोध महिलाएं ईवीएम पर फूल ढूंढ़ेंगी, तो कैसे मिलेगा?
पूछने पर उन्होंने यह भी बताया कि अभी तक कोई उनसे वोट मांगने नहीं आया है। सुनता आ रहा था कि पार्टी कार्यकर्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग इस बार उतने सक्रिय नहीं हैं, जितने पहले होते थे। कहीं ये महिलाएं ईवीएम से निराश होकर लौटने वाली तो नहीं? ऐसा ही हुआ। नतीजतन, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, यानी एनडीए की प्रत्याशी रिंकी कोल सवा लाख से अधिक मतों से हार गईं। अति-आत्मविश्वास और बिना हाथ-पांव मारे अपने नेता पर अंधा अवलंबन, मजबूत से मजबूत संगठन और शख्सियत को कमजोर कर सकता है। भारतीय जनता पार्टी इसका अपवाद साबित नहीं हुई।
अब एक और वाकया सुन लीजिए। मैं लोकसभा के एक प्रत्याशी से मिला। उनका पहला वाक्य था- भाई साहब, मुझे तो पिछला रिकॉर्ड तोड़ना है। मैंने पूछा, इस आत्मविश्वास की वजह? उन्होंने कहा कि मोदी जी का ‘क्रेज’ ही इतना है कि यदि आपको मेरी जगह खड़ा कर दिया जाए, तो आप चुनाव जीत जाएंगे। मैं हक्का-बक्का रह गया था। राजनीति में गफलत की गुंजाइशें नहीं होतीं। आशा और जन-अवधारणा के विपरीत आए नतीजों ने इन गफलतों को उतार फेंकने का अवसर भाजपा को प्रदान किया है। उसके पास सबक लेने का समय, साधन और सक्षम नेतृत्व है। पहले दल की दलदल बाहर से नहीं दिखती थी। अब जब बिखराव दिख रहा है, तो पार्टी को अपना लौह-कवच फिर से धारण करना होगा।
भगवा दल को अपने कार्यकर्ताओं के मनोभाव का भी मान रखना होगा। पिछले 10 वर्षों के दौरान कई नए लोग भाजपा के तंबू में आए। इनमें से बहुतों पर भ्रष्टाचार के दाग हैं। इसके बावजूद उन्हें महत्वपूर्ण पदों से नवाजा गया। इससे इन आरोपों को बल मिला कि केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई से बचने का एक ही तरीका है कि आप भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो जाएं। अन्य दलों से आए लोगों ने निस्संदेह भाजपा के विजय-रथ को गति दी, पर बाद में यह दांव फेल हो गया।
यहां विधानसभा की 13 सीटों पर हाल ही में हुए उप-चुनावों का स्मरण जरूरी है। भाजपा इनमें से महज दो जीत सकी। पाला बदलने वाले लगभग सभी लोग हार गए। अभी चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के अतिरिक्त कई राज्यों में उप-चुनाव हैं। उस दौरान इस रीति-नीति की समीक्षा जरूरी है। कार्यकर्ताओं की उदासीनता की एक वजह यह भी है कि उन्हें लगता है, बाहर से आए हुए लोग हमारी हकमारी करते हैं। इसके साथ भाजपा को पार्टी का संदेश देने के तरीकों में भी सुधार करना होगा। संविधान को लेकर फैलाई गई चर्चाओं में भारतीय जनता पार्टी ऐसी उलझी कि उसे उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं हासिल हुए। इसकी एक वजह यह भी है। बडे़ नेताओं द्वारा बार-बार खंडन के बावजूद प्रभावी ढंग से इस नैरेटिव की काट नहीं हो सकी।
अंत में सबसे जरूरी बात। इसमें कोई दोराय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी देश के सबसे आकर्षक नेता हैं, जैसा कि मैंने पहले अनुरोध किया कि सोनभद्र जिले की मीडिया से दूर रहने वाली आदिवासी महिलाएं तक उन्हें पहचानती थीं और उनको वोट देना चाहती थीं। भाजपा के पास पिछले 10 सालों में हुए तमाम लोक-कल्याण के काम गिनाने को हैं। लोक-लुभावन नेता और ये कार्य इस लड़खड़ाहट को सम्हालने के लिए काफी हैं। बस पार्टी को निरर्थक बयानवीरों की बोलती बंद करने के साथ अपने संदेशों पर नई सान चढ़ानी होगी।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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