Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan Aajkal Column By Shashi Shekhar 8th March 2020

इस होली पर नफरत का दाह कीजिए

कोरोना वायरस ने जिस तरह देश-दुनिया को अपनी चपेट में लिया है, वह भयावह है। इस वायरस के शिकार को मालूम तक नहीं पड़ता कि वह कब और कैसे इसकी चपेट में आ गया? एक बार देह में घुस जाने के बाद यह तेजी से इंसान...

Rakesh Kumar शशि शेखर, Sat, 7 March 2020 09:15 PM
share Share
Follow Us on
इस होली पर नफरत का दाह कीजिए

कोरोना वायरस ने जिस तरह देश-दुनिया को अपनी चपेट में लिया है, वह भयावह है। इस वायरस के शिकार को मालूम तक नहीं पड़ता कि वह कब और कैसे इसकी चपेट में आ गया? एक बार देह में घुस जाने के बाद यह तेजी से इंसान की श्वसन प्रक्रिया पर ऐसी चोट पहुंचाता है कि कुछ लोग उसे सह नहीं पाते, घुट-घुटकर दम तोड़ देते हैं। विश्व में अब तक फैली महामारियों का इतिहास गवाह है कि देर-सबेर इंसान ने उन पर काबू पा लिया है। हमें यकीन रखना चाहिए कि कोरोना का भी निदान और समाधान वैज्ञानिक खोज लेंगे, पर आज मैं जिस वायरस की चर्चा करना चाहता हूं, वह कोरोना से कहीं अधिक खतरनाक है। यह शरीर के सबसे उर्वर हिस्से मस्तिष्क पर मार करता है। इसका शिकार शख्स मरने की बजाय मारने की बात करता है। मैं भारत में फैलाई जा रही घातक आपसी नफरत की बात कर रहा हूं।

तमाम खलिश के बावजूद दिल्ली के दंगे अब बीते कल की बात हो चुके हैं, मगर सोशल मीडिया पर महासंग्राम जारी है। घृणा का ऐसा उबलता लावा मैंने पहले कभी नहीं देखा। फर्जी ग्राफिक्स, मनगढ़ंत कथाएं और ‘मेरे-तेरे’ के बीच की अंतहीन कहानियां देखकर ऐसा लगता है कि हम जिस हिन्दुस्तान में रहते हैं, वहां सिर्फ जातिवाद और सांप्रदायिकता के उन्मत्त अनुयायी रहते हैं। दिल्ली के दुखद दंगों में जिन 53 लोगों ने जान गंवाई, जिनके घर अथवा व्यापारिक प्रतिष्ठान फूंके गए और जो बेवजह जलावतन हुए, उनकी तकलीफों पर फाहा रखने की बजाय उन्हें इश्तेहार बनाया जा रहा है। इस आत्मघाती शोर में भाईचारे की वे कहानियां बेअसर हो रही हैं, जो साबित करती हैं कि इंसान अभी मरा नहीं है। हम भूले नहीं कि सदियों की जद्दोजहद के बावजूद इंसानियत इसीलिए मरी नहीं, क्योंकि उसके पास ऐसी प्रेरणादायक कहानियां थीं। ये कथाएं संकट के समय सुरक्षा का और रोजमर्रा की जिंदगी में प्रेरणा का काम करती रही हैं। सोशल मीडिया के अदृश्य दानव इन्हें भी लीलने में जुटे हैं।

शुक्र है, बाबरी मस्जिद के ध्वंस, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई हिंसा अथवा ऑपरेशन ब्लू स्टार के वक्त आभासी दुनिया अस्तित्व में नहीं थी। नफरत के सौदागरों को अगर यह मायावी हथियार तब हासिल हो गया होता, तो न जाने कैसे-कैसे अघट घट गए होते! वे घटनाएं दिल्ली के दंगों से कहीं बड़ी थीं। हम उन्हें बिसराकर इसलिए आगे बढ़ सके, क्योंकि तब हमारे मन-मस्तिष्क पर हथौडे़ की तरह लगातार ऐसे आत्मघाती विचार नहीं बरसाए जा रहे थे। हालांकि, आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार का नारा तब भी लगता था, पर वह साधारण फ्लू की तरह जल्द खत्म होने वाला साबित होता। अब सोशल मीडिया ने इस वैचारिक छूत को कोरोना जैसा घातक बना दिया है।

इस आभासी संसार में मोहब्बत की बजाय नफरत ज्यादा बिकती है। नतीजतन, कोई लिख रहा है कि मेरा ड्राइवर दूसरे धर्म का था, मैंने उसे अपने पापा से कहकर निकलवा दिया। दूसरा दूसरी कहानी के साथ और तीसरा तीसरी। किस्से अलग हैं, पर मकसद एक- बांटो और बांटो, बांटते रहो। यही वजह है कि देखते-देखते ऐसे संदेश दर्जनों प्रोफाइल से अवतरित हो जाते हैं। यही नहीं, कुछ महानुभाव ऐसे भी हैं, जिन्होंने नि:शुल्क सलाह की जैसे दुकान खोल रखी है। बेहद संतुलित भाषा में मैंने एक संदेश पढ़ा कि आप अपना निवेश हलाल की कंपनियों में करें। साफ है। ‘दोनों तरफ से’ तलवारें खिंची हुई हैं। दंगा तो महज ‘बाई प्रोडक्ट’ था। सवाल उठता है, क्या हमारे आने वाले दिन मानसिक विभाजन के हैं? ऐसे विभाजन के, जहां खान-पान, व्यापार, आर्थिक निवेश, सब कुछ धार्मिक प्रतीकों पर निर्भर होगा?

हमारे राजनेताओं पर अक्सर दोष लगाया जाता है कि वे सामाजिक बंटवारे के जरिए राजनीतिक फसल काटते हैं। यह अर्द्धसत्य है। अगर हम नहीं चाहेंगे, तो कोई हमें बांट नहीं सकता और बंटे होंगे, तो कोई न कोई इसका लाभ उठाएगा ही। इस तर्क के जवाब में कुतर्क दिया जाता है कि हम तो शुरू से विभाजित हैं। सच है, वैचारिक वैभिन्न से हमारा पुराना नाता है, पर पहले हम उस पर काबू पा लेते थे। कैसे?

कृपया याद करें। 1932 में मशहूर पुणे समझौता हुआ था। अंग्रेजों ने मुस्लिमों और दलितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व की व्यवस्था कर दी थी। गांधी इसे भारतीयता के खिलाफ मानते थे, जबकि आंबेडकर पक्ष में थे। उस समय गांधीजी यरवदा जेल में थे। अपना तर्क जाया होते देख बापू जेल में ही आमरण अनशन पर बैठ गए। उधर बाबा साहब भी टस से मस होने को तैयार न थे। ऐसे में, तिलकधारी पंडित मदन मोहन मालवीय आंबेडकर को समझाने में कामयाब हो गए। ध्यान दें, आंबेडकर मनुवाद के खिलाफ थे, पर मालवीय आधुनिक विचारधारा रखते हुए भी सनातन धर्म में पूरा यकीन करते थे। उनका पहनावा और आचार-विचार खाटी परंपरागत था, फिर भी आंबेडकर ने उनकी बात मानी। क्यों? भारत और भारतीयता के लिए ये सभी नेता एकमत हो जाते थे। उनके आपसी मतभेद देशहित के सामने कोई मतलब नहीं रखते थे।

सिर्फ आंबेडकर और गांधी ही क्यों? पाकिस्तान के ‘बाबा-ए-वतन’ मोहम्मद अली जिन्ना ने भी अगस्त 1947 से फरवरी 1948 के बीच तमाम तकरीरों में पाकिस्तान के लोगों को इस नवोदित देश का बीजमंत्र बताने की कोशिश की थी। जिन्ना का कहना था कि आप अपने मंदिर, मस्जिद अथवा अपनी आस्था के किसी भी उपासना गृह में आने-जाने को स्वतंत्र हैं। पाकिस्तान सभी का है। क्या कमाल है? सरहद के दोनों ओर के शीर्ष नेता गांधी और जिन्ना मुल्कोंके बंटवारे के बावजूद समान बोली बोल रहे थे। दुर्भाग्यवश जिन्ना को बीमारी और गांधी को गोडसे की गोली ने आजादी के चंद महीनों में इस धरती से रुखसत कर दिया। अब उनके शिष्यों पर इस वैचारिक विरासत को बढ़ाने की जिम्मेदारी थी। उन्होंने क्या किया? परिणाम सामने है। सभी दलों और उनके कर्णधारों ने ऐसा दलदल बना दिया है, जिसमें वे अपने साथ देश और समाज को घसीट रहे हैं। क्या आप अपने साथ अपने देश को भी जानलेवा दलदल में धंसता हुआ देखना चाहते हैं? इस प्रश्न पर विचार के लिए प्यार और भाईचारे के त्योहार होली से बेहतर कोई और समय कैसे हो सकता है? होली मुबारक हो!

लेटेस्ट   Hindi News ,    बॉलीवुड न्यूज,   बिजनेस न्यूज,   टेक ,   ऑटो,   करियर , और   राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।

अगला लेखऐप पर पढ़ें