गांधी गाथा से गुजरते हुए
ब्रांड गांधी आज भी भारत की सबसे मजबूत नुमाइंदगी करता है।... अगर गांधी नई पीढ़ी को नहीं लुभा रहे होते, तो भला एक जापानी मेयर को क्या पड़ी थी कि वह बापू के गुजरने के दशकों बाद उनकी प्रतिमा की स्थापना...
हम उस वक्त एक खूबसूरत संध्या से गुजर रहे थे। दक्षिण अफ्रीका में अक्तूबर की शामें वसंत में नहायी होती हैं, लेकिन पंचतारा होटल के उस रोशन हॉल में विचारों की गुनगुनाहट तैर रही थी। हमारे बीच अहमद कथराडा थे। उनके विचार आंदोलन की आंच में पककर परिपक्व हुए थे। हम लोग पूरे उतावलेपन के साथ उनसे दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की स्थिति, नव-स्थापित लोकतंत्र और मोहनदास करमचंद गांधी के शुरुआती आंदोलनों को जानने की कोशिश कर रहे थे। उन्हीं लम्हों में मैंने कथराडा से पूछा था कि गांधी को दक्षिण अफ्रीका में गाहे-बगाहे विरोध क्यों झेलना पड़ता है? क्या लोग उन्हें दक्षिण अफ्रीका का दोस्त नहीं मानते?
उनका जवाब गौरतलब था- गांधी को कहां विरोध का सामना नहीं करना पड़ा? उन पर जीते-जी हमले हुए और अब गुजरने के इतने बरस बाद अगर लोग उनके विरोध के नाम पर मशहूरियत पाते हैं, तो साफ है कि गांधी आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने आगे कहा था, भूलिए मत, जैसे-जैसे उनका विरोध होगा, वैसे-वैसे नई पीढ़ी उनके बारे में उत्सुक होगी। वे उनके बारे में जब भी, जितना भी जानेंगे, उतना सीखेंगे। कितनी सही बात कह गए थे कथराडा!
जो नहीं जानते, उन्हें बताने में हर्ज नहीं कि अहमद कथराडा को उन दिनों नेल्सन मंडेला का उत्तराधिकारी माना जाता था। पीटर बोथा की रंगभेदी सरकार के पतन के बाद मंडेला ने उन्हें अपना संसदीय सचिव नियुक्त किया था। कथराडा ने मंडेला के साथ जेल काटी थी और वह उनके विश्वस्त थे। भारतीय गुजराती बोहरा मूल का होने के कारण कथराडा राष्ट्रपति भले न बन सके, मगर जीवन भर अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं आई। उस दिन एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने यह भी कहा था कि गांधी ने ही हमें सिविल नाफरमानी सिखाई। मैं भी पहली बार अवज्ञा आंदोलन के आरोप में गिरफ्तार हुआ था।
बरसों बीत गए। कथराडा की बातें आज भी उस वक्त दिमाग में घंटियां बजा उठती हैं, जब हम गांधी के बारे में अनर्गल प्रलाप सुनने को अभिशप्त होते हैं। अगले हफ्ते बापू की जयंती है। आपने पता नहीं ध्यान दिया या नहीं, पिछले कुछ वर्षों से गांधी जयंती के दिन सोशल मीडिया में एक जुमला ‘टॉप ट्रेंड’ कराया जाता है- नाथूराम गोडसे अमर रहें। ग्लानि के उन गर्हित लम्हों में हमेशा मुझे कथराडा याद आते हैं। वह सही थे, गांधी की यह शक्ति है और यही तत्व उन्हें अमरत्व प्रदान करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या नहीं की होती, तो आज उसे कोई जानता तक नहीं। उसका अकेला कारनामा राष्ट्रपिता के खून से हाथ धोना था। इसके उलट अगर 30 जनवरी, 1948 की उस अभागी शाम को गांधी किसी अन्य वजह से चल बसे होते, तब भी वह अपने 78 वर्षीय जीवन में इतना कुछ कर चुके थे कि सदियों तक उन्हें भुला पाना संभव नहीं होगा। यह अकारण नहीं है कि जब कोई शीर्ष राजनेता भारत आता है अथवा हमारे सत्तानायक परदेस जाते हैं, तो गांधी को नमन करना नहीं भूलते।
पिछले ही महीने की तो बात है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेहद महत्वपूर्ण यात्रा पर यूक्रेन गए थे। वहां ‘पीस पार्क’ में उन्होंने मोहनदास करमचंद गांधी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की और ट्वीट किया- बापू के आदर्श सार्वभौमिक हैं और वे लाखों लोगों को उम्मीद देते हैं। हम सब उनके दिखाए मानवता के मार्ग का अनुसरण करें। मोदी खुद इस उम्मीद से कीव गए थे कि तीसरे हत्यारे वर्ष में प्रवेश करती रूस और यूक्रेन की जंग थम सके। आज विश्व के तमाम नेता भारत की ओर इस उम्मीद से क्यों देख रहे हैं? उनके मन में यकीनन यह ख्याल आता होगा कि गांधी के देश-प्रदेश से आया मोदी जैसा शख्स ही ऐसा करा सकता है।
ब्रांड गांधी आज भी भारत की सबसे मजबूत नुमाइंदगी करता है। इसका एक और उदाहरण देता हूं। बीती 28 जुलाई को विदेश मंत्री एस जयशंकर जापान की राजधानी टोक्यो में थे। वहां के फ्रीडम पार्क में उन्होंने महात्मा गांधी की प्रतिमा का अनावरण किया। अगर गांधी नई पीढ़ी को नहीं लुभा रहे होते, तो भला एक जापानी मेयर को क्या पड़ी थी कि वह बापू के गुजरने के दशकों बाद उनकी प्रतिमा की स्थापना टोक्यो में करवाए? सदी बदल गई, पर गांधी आज भी शांति, स्वतंत्रता और समानता के प्रतीक हैं।
यही वजह है कि बांग्लादेश में पिछले दिनों जब हिंदुओं पर कहर बरपा हुआ, तो वहां के सुधी जनों ने गांधी का ही स्मरण किया। बंगालियों की यादों में बापू का खास मुकाम है। आजादी से कुछ महीने पहले भड़के दंगों में सर्वाधिक झुलसने वाली जगहों में नोआखाली भी था। वहां सदियों से साथ रह रहे लोग एक-दूसरे के प्राणों के दुश्मन बन गए थे। वह साल 1946 की 7 नवंबर थी, जब गांधी वहां अमन का पैगाम लेकर पहुंचे। वह नंगे पांव गांव-दर-गांव नापते। लोगों के आंसू पोंछते। यह उन्हीं का जादू था कि बाद में मुसलमानों ने क्षतिग्रस्त मंदिरों के पुनर्निर्माण में शिरकत की।
महान वैज्ञानिक न्यूटन ने कहा था- हर क्रिया की समान व विपरीत प्रतिक्रिया होती है। बापू इसके अपवाद न थे। उनके शांति प्रयासों को कुछ लोगों ने उलटे भाव से लिया, लेकिन गांधी विपरीत धाराओं को अनुकूल बनाना जानते थे। कैसे? इस घटना पर गौर फरमा देखें।
आजादी से दो दिन पहले वह कलकत्ता पहुंचे थे। वहां नाराज भीड़ ने उन्हें घेर लिया। नारे लग रहे थे- गांधी वापस जाओ। उस समय गांधी ने जो कहा, उसे इतिहास ने अपने दिल में दर्ज कर लिया। आप भी सुनें- ‘मैं यहां हिंदुओं और मुसलमानों की एक समान सेवा करने आया हूं। अपनी सुरक्षा मैं आपके हवाले करता हूं। मेरा विरोध करने के लिए आपका स्वागत है... मैं अपनी जीवन-यात्रा के आखिरी हिस्से में हूं... लेकिन अगर आप फिर से पागल हुए, तो मैं उसका साक्षी बनने के लिए जीवित नहीं रहूंगा।’ उनकी कोशिशों ने कलकत्ता को बचा लिया और गदगद भाव से अखबारों ने उन्हें ‘वन मैन आर्मी’ के खिताब से नवाजा था।
एक तरफ बांग्लादेश में गांधी इस ऐतिहासिक अवदान के लिए याद किए जा रहे थे, तो भारत में कुछ हफ्ते पहले इसका उल्टा हो रहा था। पिछली 19 मई को ग्वालियर में गोडसे की जयंती मनाई गई और कुछ लोगों ने उसकी तस्वीर की आरती उतारी। इस आयोजन के चित्र अखबारों में छपे। पता नहीं, यह वक्त का विद्रूप है या फिर कुछ लोगों का अपनी दुकान चलाने का उपक्रम?
चाहे जो हो, पर यह सच है कि इंसानियत असत्य के अंधेरों में भटकने के बावजूद सत्य की अनथक तलाश का दूसरा नाम है। कथराडा की तरह मुझे भी गांधी की अजरता में कोई संदेह नहीं।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
लेटेस्ट Hindi News , बॉलीवुड न्यूज, बिजनेस न्यूज, टेक , ऑटो, करियर , और राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।