बिहारी राजनीति की पहेली
बिहार के लोग यकीनन सियासी तौर पर संवेदनशील हैं, मगर जातियों को लेकर उनके आग्रह, दुराग्रह की हद छूते नजर आते हैं। ऐसे में, 2014 और 2019 की भांति एनडीए अपना जादू बरकरार रख पाएगा या फिर से मुखर हो चले...
ये पंक्तियां बिहार से, क्योंकि हिन्दुस्तान की सियासी बारीकियां समझनी हैं, तो यहां आना ही होगा। बिहार के राजनीतिक थियेटर में इतना उतार-चढ़ाव है कि पता नहीं चलता, कब कौन किरदार कहां से प्रकट हो, कब नेपथ्य में चला जाएगा।
यहां के नेता वायदों और दावों के मामले में उत्साही और सामाजिक परिवर्तन के अगुवा मालूम पड़ते हैं, लेकिन वक्त आने पर वे सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। कमाल यह कि इससे उनके ‘वोटबैंक’ पर कोई खास असर नहीं पड़ता। यही वजह है कि महागठबंधन तोड़कर भारतीय जनता पार्टी के साथ सरकार बनाने वाले नीतीश कुमार को वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने अपनाने में संकोच नहीं किया था। इस पुनर्जन्म पाए गठबंधन ने 2020 का चुनाव साथ लड़ा और जीता, लेकिन नीतीश कुमार 24 महीने में ही एक बार फिर लालू यादव के साथ चले गए।
यह ‘स्वाभाविक साझीदारी’ से मुक्त होकर ‘पुराने परिवार’ में वापसी जैसा कोई करतब था।
सब जानते थे कि इस वापसी की भी वापसी होनी है। पहले भारतीय जनता पार्टी के साथ ‘घुटन’ महसूस कर चुके नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले फिर भाजपा के साथ सरकार बनाने को राजी हो गए। इन दिनों वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हिस्सा हैं और कहते हैं- ‘अब हम कहीं नहीं जाएंगे, यहीं रहेंगे।’ उनके पुराने गठबंधन के साझीदार, यानी राष्ट्रीय जनता दल के लोग जवाब में वीडियो जारी करते हैं, जिसमें दूसरे गठबंधन के लिए भी वह लगभग ऐसा ही कहते दिखाए जाते हैं।
भाजपा और राजद भी नीतीश कुमार के साथ सुर बदलते रहे हैं। वे जब उनके साथ होते हैं, तो उनकी सी बोलते हैं और जब ‘पाला बदल’ आकार ले लेता है, तो उनके बयान पुन: पुरानी खाल ओढ़ लेते हैं। बिहार इस मामले में अकेला ऐसा राज्य है, जहां पिछले दस सालों में मुख्यमंत्री ने चार बार अपने साझीदारों की अदला-बदली की। सवाल उठता है कि भाजपा और राजद पुराने अनुभवों से सबक लिए बिना उनसे जब-तब हाथ क्यों मिला लेते हैं? जवाब आसान है। बिहार के लगभग 7.64 करोड़ वोटरों में आठ से दस फीसदी ऐसे लोग हैं, जो उनका साथ हर हाल में पसंद करते हैं।
ऐसा क्यों है? उत्तर के लिए पीछे लौटना होगा।
सन् 2005 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने कई क्रांतिकारी काम किए थे। जिस बिहार में महिलाएं शाम को घर से बाहर निकलने में झिझकती थीं, वहां उन्होंने शहर से गांव तक की लड़कियों को सरकार की ओर से साइकिलें मुहैया कराई थीं। इससे पढ़ाई-लिखाई के लिए लड़कियों ने बाहर निकलना शुरू किया, जिससे समाज के निचले तबके में बदलाव की शुरुआत हुई। पिछले दो दशकों में ऐसी हजारों बालिकाएं आगे आईं, जिन्होंने पढ़-लिखकर नौकरियां हासिल कीं या अपना रोजगार स्थापित किया। जो इन सबसे वंचित रहीं, वे भी साक्षरता की पूंजी लेकर ससुराल गईं। बताने की जरूरत नहीं कि हमारे देश की लड़कियां एक नहीं, दो घरों को संवारती हैं।
यही नहीं, वर्ष 2016 में शराबबंदी के जरिये उन्होंने गांव की गरीब महिलाओं का दिल हमेशा के लिए जीत लिया। हालांकि, इस प्रयोग की आलोचना भी होती है। इसके बाद यहां जहरीली शराब पीकर मरने वालों की संख्या में वृद्धि हुई। इससे मदिरा की तस्करी को भी बढ़ावा मिला और सरकार को राजस्व की भयंकर हानि हुई। यह कानून इतनी कठोरता से बनाया गया था कि लोग उसे ‘दानवी’ बताने लगे। विरोध पनपता देखकर इसकी धाराओं में कुछ ढील दी गई, पर अभी भी वे कछुए के कवच की भांति कठोर हैं।
घर-घर बिजली और हर घर नल-जल जैसी योजनाएं मूलत: नीतीश कुमार के दिमाग की उपज थीं। बिहार की कानून-व्यवस्था और सड़कों के सुधार में भी उनका अनूठा योगदान रहा है। उनके विपक्षी दावा करते हैं कि पिछली बार के पाला बदल ने उनकी छवि को सांघातिक चोट पहुंचाई है। उनके कुछ बयानों पर पिछले दिनों जमकर बवंडर भी हुआ। मौजूदा चुनाव उनके प्रति मतदाता के रुख-रवैये का सबसे बड़ा इम्तिहान साबित होने जा रहा है।
यहां तेजस्वी यादव का उल्लेख करना जरूरी है। 2020 के विधानसभा चुनाव में वह महागठबंधन के अगुवा थे। उनके भगीरथ प्रयासों से बिहार विधानसभा में राष्ट्रीय जनता दल सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरा था। यह बात अलग है कि पिछले दिनों उनके पांच विधायकों ने पाला बदल लिया। न जाने क्यों, राजद ने इसकी कोई आधिकारिक शिकायत विधानसभा अध्यक्ष के यहां दर्ज नहीं कराई और वे सत्ता पक्ष के साथ बैठने लगे। अब भारतीय जनता पार्टी 85 विधायकों के साथ सदन में सर्वाधिक संख्या रखती है।
बताने की जरूरत नहीं कि भाजपा सोच-समझकर सियासी दांव खेलती है। उसे मालूम है कि कब किसको दोस्त बनाना है और किसको मंझधार में छोड़ देना है। पासवान परिवार इसका जीवंत उदाहरण है। 2020 के चुनाव से ऐन पहले रामविलास पासवान की मृत्यु हो गई थी। उनके पुत्र चिराग पासवान और अनुज पशुपति कुमार पारस में विरासत की लड़ाई थी। पारस को केंद्रीय मंत्रिमंडल में ले लिया गया और वह छह में से पांच सांसदों को तोड़कर सत्ता-सुख के भागीदार हुए थे। नतीजतन, खुद को ‘मोदी का हनुमान’ बताने वाले चिराग निस्संग रह गए थे। मौजूदा चुनावों से पहले भगवा दल ने एक बार फिर उन्हें वरीयता दी और अब पारस अकेले हैं। कमाल यह कि इसके बावजूद न चिराग ने कभी एनडीए से नाता तोड़ा था, न पारस ऐसा कर रहे हैं।
एनडीए से भीतर-बाहर होने वालों में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी शामिल हैं। वह समय के साथ पाला बदलते रहे हैं, जिसका उन्हें भरपूर लाभ मिला है। कभी नीतीश कुमार के अनुयायी रह चुके मांझी अब एनडीए के साथ हैं। वह गया से उम्मीदवार भी हैं। देखना होगा कि मतदाता उनके बार-बार पाला बदल को कैसे लेते हैं? इस बार उन्हें साथ लेने वाले एनडीए का उनकी जाति के मतों से कितना फायदा होता है?
भारतीय जनता पार्टी ने बड़ी समझदारी से प्रदेश के जातिगत समीकरणों को साधा है। इसके बावजूद उसके सारे उम्मीदवार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम के सहारे वैतरणी पार होने का मनसूबा बांधे हुए हैं। मोदी यहां भी सर्वाधिक आकर्षक नेता हैं, पर एनडीए को इंडिया ब्लॉक से कड़ी चुनौती मिल रही है। पहले चरण में जिन चार सीटों पर मतदान हुआ, वहां हिंदी पट्टी के अन्य प्रदेशों की भांति मत प्रतिशत लगभग पांच फीसदी कम रहा। इसने एनडीए को और सजग कर दिया है।
बिहार के लोग यकीनन सियासी तौर पर संवेदनशील हैं, मगर जातियों को लेकर उनके आग्रह, दुराग्रह की हद छूते नजर आते हैं। ऐसे में, 2014 और 2019 की भांति एनडीए अपना जादू बरकरार रख पाएगा या फिर से मुखर हो चले जातीय समीकरण कोई नया गुल खिलाएंगे? ऊपर से देखने पर चाणक्य और चंद्रगुप्त की इस धरती पर उदासीन सन्नाटा पसरा दिखता है, मगर हर बिहारी के मानस में इस वक्त यही सवाल गूंज रहा है।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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