Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan Aajkal Column By Shashi Shekhar 22nd March 2020

आप चाहें तो इतिहास रच सकते हैं

आज का दिन हम भारतीय अपने शानदार इतिहास को समर्पित कर सकते हैं। उस इतिहास को, जो सीख देता है कि राजा अथवा नेता भले ही सत्ता रथ पर सवारी गांठते आए हों, पर समाज का संचालन हमेशा आम आदमी की आकांक्षाओं से...

Rakesh Kumar शशि शेखर, Sat, 21 March 2020 10:05 PM
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आप चाहें तो इतिहास रच सकते हैं

आज का दिन हम भारतीय अपने शानदार इतिहास को समर्पित कर सकते हैं। उस इतिहास को, जो सीख देता है कि राजा अथवा नेता भले ही सत्ता रथ पर सवारी गांठते आए हों, पर समाज का संचालन हमेशा आम आदमी की आकांक्षाओं से जुड़ा रहा है। यही नहीं, जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आ पड़ी है, भारतीय सामाजिक समूहों ने सत्ता नायकों के साथ मिलकर उससे निपटने के रास्ते तय किए हैं।

पहले राजनीति की बात। आपको ईसा से 322 साल पहले ले चलता हूं। उस वर्ष पाटलिपुत्र में संसार की पहली राज्य क्रांति हुई थी। उसे सुदूर तक्षशिला से आए चाणक्य और अनाम कुल में जन्मे चंद्रगुप्त ने रचा था क्या? वह जन-असंतोष था, जिसका चेहरा बनकर वे उभरे थे। इसी तरह, बहादुरशाह जफर की हुकूमत की सीमाएं सिर्फ लाल किले के आसपास तक सीमित थीं। बेबसी के उन दिनों में अचानक मेरठ से विद्रोही सैनिकों का एक जत्था उन तक पहुंचता है और उन्हें आजादी की पहली लड़ाई का नेता चुन लेता है। अगर सैनिक विद्रोह न हुआ होता, तो क्या बहादुरशाह को कोई याद रखता? वार्धक्य काट रहे मोरारजी देसाई की दास्तां भी रोचक है। उनका प्रधानमंत्रित्व आपातकाल के विरुद्ध उठे जनाक्रोश की उपज था।

यह सब याद दिलाने के पीछे मेरा तात्पर्य बस इतना है कि आज, यानी रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस जन-कफ्र्यू का आह्वान किया है, उसे राजनीतिक रूप न दिया जाए। इस आपात स्थिति में हर देशवासी का फर्ज है कि वह अपने और अपने परिवार की सेहत के हित में सरकार का साथ दे। आज यदि हम खुद पर पाबंदी लगाने में सफल हो जाते हैं, तो तय जानिए कि हम जाने-अनजाने कोरोना वायरस से उपजी महामारी से लड़ाई का एक अनोखा तरीका ईजाद कर रहे होंगे। अब तक वुहान, पेरिस, रोम, जहां कहीं ‘लॉक-डाउन’ हुआ है, उसके लिए सत्ता को अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना पड़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनशक्ति का इस्तेमाल करना चाहते हैं। उम्मीद है, आप इसका भावार्थ समझेंगे। महामारियों से लड़ाइयां जन-जागृति से ही जीती जा सकती हैं।

आजाद भारत आम तौर पर महामारी  मुक्त रहा है। वर्ष 1994 में सूरत में प्लेग फैल गया था। तत्कालीन सरकार ने त्वरित कार्रवाई करते हुए उसे आगे बढ़ने से रोक दिया था। एक स्थान विशेष तक सीमित होने के कारण आज वह लोगों की स्मृतियों से नदारद है। हालांकि, यह लड़ाई भी जन-सहयोग से जीती गई थी। इसको अपवाद मान लें, तो आजादी के बाद नई दवाओं की ईजाद व चिकित्सकीय सुविधाओं में बढ़ोतरी ने तपेदिक से लेकर चेचक तक को काबू में करने में कामयाबी हासिल की है। एक वक्त   था, जब मौसम के हिसाब से हैजा और ‘बड़ी-माता’ (स्मॉल पॉक्स) व चेचक का हमला हुआ करता था।

मेरे पिता बताते थे कि 1930 के दशक में जब वह सात-आठ साल के अबोध थे, उन पर भी बड़ी-माता का प्रकोप फूटा था। बुखार के साथ ही जैसे शरीर में ‘स्मॉल पॉक्स’ के फफोले फूटने शुरू हुए, उन्हें गांव के विशाल घर से निकालकर बाहर एक कच्ची कोठरी में शिफ्ट कर दिया गया था। उसमें सिर्फ मेरी दादी और एक अन्य बुजुर्ग महिला को जाने की इजाजत थी। उस कोठरी में प्रवेश से पहले वे नहातीं और कपडे़ बदलतीं और निकलने के तत्काल बाद भी यही करना होता। इस बीमारी की कोई दवा नहीं थी, मगर शरीर में खुजली होने पर नीम के पत्ते फेरे जाते। अशिक्षित ग्रामीणों तक को पता था कि नीम में विषाणुओं से लड़ने की क्षमता होती है। आज प्रधानमंत्री को सामाजिक दूरी बनाए रखने का अनुरोध करना पड़ रहा है, मगर उस समय का ग्रामीण समाज इसका खुद-ब-खुद पालन करता था। हमें यह मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि आधुनिक सुविधाओं ने हमारी जिंदगी आसान की है, तो कुछ अच्छी परंपराओं से वंचित भी किया है। भारतीय सभ्यता ने अपने पांच हजार साल ऐसी रवायतों के जरिए ही तय किए हैं।

यही नहीं, जिस किसी के घर में हैजा, चेचक अथवा तपेदिक का प्रकोप होता, वहां मरीज को खुद-ब-खुद क्वारंटीन में डाल दिया जाता। घर वाले भी तमाम बंदिशों का पालन करते। इस दौरान वे कई बार स्नान करते, कपडे़ बदलते। एक बार ओढे़ अथवा बिछाए बिस्तरों का दोबारा इस्तेमाल न करते और घर में बेहद सादा भोजन बनता। ऐसा इसलिए, ताकि शरीर में जाने वाला अन्न सुपाच्य हो और घर वालों की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में सक्षम हो। बताने की जरूरत नहीं, स्वस्थ शरीर पर संक्रमण कम हमला करता है।

ये सद्गुण संस्कार के तौर पर हमारे बचपन तक जिंदा थे। बाहर से घर लौटने पर परिवार के हर सदस्य के लिए कपडे़ बदलकर हाथ-पांव और मुंह धोना अनिवार्य होता था। हमारे शहर स्थित आवासों में 24 घंटे पानी और साबुन उपलब्ध थे, पर गांवों में इनका अभाव स्वच्छता की प्रवृत्ति के आडे़ नहीं आता था। वहां हर घर के कोने में सुबह ही खेत की साफ मिट्टी रख दी जाती थी, ताकि  भोजन से पूर्व हाथ उनसे मल-मलकर मांज लिए जाएं। उम्मीद है, कोरोना जब लौटेगा, तो विश्व बिरादरी को पुराने सद्गुण सिखाकर लौटेगा।

एक और बात। कोरोना से यह युद्ध अविश्वास के बूते नहीं जीता जा सकता। ऐसे समय में हमें अपनी राज्य और केंद्र सरकारों पर भरोसा करना होगा। यकीन मानें, केंद्र सरकार ने भी इस मामले में समय रहते कार्रवाई शुरू कर दी थी। संसार के अधिसंख्य देश जब महामारी के इस झपट्टे की गंभीरता से गाफिल थे, तब नई दिल्ली की सरकार प्रोटोकॉल बनाने में जुटी थी। यही वजह है कि दो महीने बीत जाने के बावजूद भारत में यह बीमारी पूरे तौर पर तीसरे चरण में नहीं आ पाई है। आइए कोशिश करें कि इसे चौथे चरण में किसी हालत में न पहुंचने दिया जाए। आप तो जानते ही होंगे कि चौथा चरण, यानी महामारी। इससे कौन नहीं बचना चाहेगा?

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