गलवान संघर्ष और कुछ यक्ष प्रश्न
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के नेताओं से बातचीत में साफ कर दिया कि चीन के कब्जे में हमारी कोई चौकी, भूमि अथवा जवान नहीं है। विपक्ष ने भी इस वर्चुअल बातचीत में उनसे तमाम सवाल पूछे। उन्हें क्या...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के नेताओं से बातचीत में साफ कर दिया कि चीन के कब्जे में हमारी कोई चौकी, भूमि अथवा जवान नहीं है। विपक्ष ने भी इस वर्चुअल बातचीत में उनसे तमाम सवाल पूछे। उन्हें क्या उत्तर मिले, वे उनसे आश्वस्त हुए या नहीं, फौरी तौर पर इसकी कोई जानकारी नहीं मिल सकी है। आने वाले दिनों में बहुत कुछ छन-छनकर सामने आने वाला है। वह कितना सत्य अथवा अद्र्धसत्य होगा, इसकी तसल्ली आम आदमी को भला कौन देगा?
वैसे आम आदमी की तसल्ली की परवाह किसे है? युद्ध राजनेताओं के इशारे पर लडे़ जाते हैं और उनका रचा हुआ मायाजाल ही राजकीय अभिव्यक्ति की शक्ल में सामने आता है। अपनी बात समझाने के लिए मैं आपको इतिहास के सीलन भरे महलों की सैर पर ले चलता हूं। आज तक तय नहीं हो सका है कि 1962 में चीन ने हम पर हमला किया था या जैसा कि सुब्रमण्यम स्वामी का दावा है कि हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री ने हकीकत को दरकिनार कर हुक्म दे डाला था? सच जो भी हो, पर भारतीय सत्ता-सदन का आधिकारिक बयान यही है कि चीन ने हमारी पीठ में खंजर घोंपा और उस युद्ध में हमारे जवान वीरता से लड़ते हुए परास्त हुए थे। यह पराजय भी ऐसी-वैसी न थी। चीन ने अक्साई चिन सहित हजारों वर्ग किलोमीटर भारत-भूमि पर कब्जा जमा लिया था। हमारी संसद ने एक स्वर से कसम खाई थी कि हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक कि इस जमीन को वापस न ले लें।
नई पीढ़ी को शायद मालूम न हो कि 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन आज तक चीन के कब्जे में है। इस युद्ध के पांच साल बाद 1967 और फिर 1975 में हुई खूनी झड़पों ने पूरे युद्ध की शक्ल भले ही अख्तियार न की हो, पर घावों पर जमी पपड़ियां जरूर उघड़ती रहीं। यही वजह है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी जनता पार्टी की हुकूमत में बहैसियत विदेश मंत्री बीजिंग गए थे, तब विपक्षी कांगे्रस और तमाम अखबारों ने वह कसम याद दिलाई थी। हालांकि, तब तक सत्ता प्रतिष्ठान में यह धारणा पनपने लगी थी कि चीन से संबंध सामान्य किए जाने चाहिए। इसीलिए इंदिरा गांधी ने 1981 में बीजिंग से दोस्ती के कदम बढ़ाए, जिसे राजीव गांधी ने गति प्रदान की। इसके पश्चात भी नरसिंह राव हों या अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह हों अथवा मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सब इस महादेश से मित्रता के गुण गाते नजर आए। समय के साथ संसद की कसम हो या पराजय के जख्म, धूमिल पड़ते चले गए।
पुरानी कहावत है कि वक्त हर घाव को भर देता है, पर कूटनीति किसी एक मुहावरे के आधार पर नहीं तय की जा सकती। ईसा के जन्मने से पहले हमारी ही धरती पर जन्मे चाणक्य ने कहा था कि पड़ोसी से बड़ा शत्रु कोई नहीं हो सकता। इस भेड़चाल में जॉर्ज फर्नांडिस जैसे दीगर नेता याद आते हैं। अटल बिहारी सरकार में रक्षा मंत्री का ओहदा संभालते हुए भी उन्होंने बयान दे दिया था कि चीन दुश्मन नंबर एक है। इस बयान से मानो आसमान ही फट पड़ा था। उन पर दबाव पड़ा, तो वह भी चुप्पी लगा गए, पर सैन्य अधिकारियों से वह हमेशा अनौपचारिक तौर पर इस तथ्य की चर्चा करते रहे। पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी भारत की तिब्बत नीति पर सवाल उठाए थे।
गलवान घाटी हादसे के बाद जॉर्ज इस टीस के साथ कई बार याद आए कि उनकी बात को क्यों नजरअंदाज किया गया? क्यों हमारा सत्ता-सदन अपेक्षाकृत एक कमजोर मुल्क पाकिस्तान को दुश्मन नंबर एक बताता रहा? हमने चीन से लगने वाली सीमा पर पुख्ता इंतजामात नहीं किए, बस ‘बॉर्डर मैनेज’ करते रहे। उधर चीन तैयारी करता रहा। उसने वास्तविक नियंत्रण रेखा के काफी नजदीक तक सड़कें बनाईं, रेल पटरियां बिछाईं और फौज के लिए सभी जरूरी सरंजाम जुटाए। आज हम इसी का दुष्परिणाम भोग रहे हैं।
साल 1999 में जब पाकिस्तान के सैनिक कारगिल में घुस आए, तब भी तमाम सवाल खडे़ हुए थे, पर गलवान घाटी की शहादतें गवाह हैं कि उसके बाद भी माकूल इंतजामात नहीं किए गए। इस लहतलाली के दोषी वे भी हैं, जो चीन समस्या का दोष नेहरू के माथे मढ़ मुक्ति पा लेना चाहते हैं। जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह कांगे्रस काबीना में मंत्री नहीं थे। खुद कांग्रेस भी महज आरोप लगाकर मुक्त नहीं हो सकती। सबसे लंबी हुकूमत का उसका अतीत जवाबदेही तय करता है, पर करें तो क्या करें? हमारी राजनीति हमेशा शतरंज के घोडे़ की तरह ढाई घर चलने की आदी रही है। कारगिल के बाद के बीस साल इसकी मुनादी करते हैं। इस दौरान दस साल एनडीए ने तो दस साल कांग्रेस ने हुकूमत की।
ध्यान दें। भारत ने आधिकारिक तौर पर अब तक चार जंगें लड़ीं। हरेक की कहानियां हैं, जो जनता के अनुत्तरित सवालों की अनदेखी कर गढ़ी गईं और राजकोषों के दम पर आती-जाती पीढ़ियों के मन में गहरे तक रोपी गईं। सिर्फ भारत ही नहीं, समूची दुनिया की हुकूमतें यही करती आई हैं। इसलिए मुझे मौजूदा निजाम से सियासी सवालों के जवाब से कहीं ज्यादा उन कारणों के निवारण की दरकार है, जिनकी वजह से चीन या पाकिस्तान यह हिमाकत कर पाते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस समय विपक्ष के नेताओं को विश्वास में लेने की कोशिश कर रहे थे, ठीक उसी वक्त मैं कारगिल युद्ध के समय सेनाध्यक्ष रहे जनरल वीपी मलिक से वेब-वार्ता कर रहा था। उनके कुछ शब्दों को यहां दोहरा रहा हूं, क्योंकि वे जन-अभिव्यक्ति को सच्चे तौर पर बुलंद करते हैं- ‘राष्ट्रीय सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा होता है। यह बडे़ दुख की बात है कि हमारी जो पॉलिटिकल पार्टियां हैं, वे सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर एक-दूसरे के ऊपर उंगली उठाती हैं। आपको सवाल उठाने हैं, तो जरूर उठाइए, वह आपका हक है, लेकिन पब्लिकली तू-तू, मैं-मैं करने की बजाय मीटिंग में इस पर चर्चा करें, तो बहुत अच्छा रहेगा।’
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