सियासी भूलभुलैया के नए समीकरण
देश की दो प्रमुखतम पार्टियां जैसे कॉरपोरेट युद्ध में मुब्तला हो गई हैं। एक-दूसरे के मत हथियाते-हथियाते अब वे सामने वाले के बेहतरीन लड़ाकों को अपने पाले में करने में जुटी हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया की...
देश की दो प्रमुखतम पार्टियां जैसे कॉरपोरेट युद्ध में मुब्तला हो गई हैं। एक-दूसरे के मत हथियाते-हथियाते अब वे सामने वाले के बेहतरीन लड़ाकों को अपने पाले में करने में जुटी हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया की भाजपा खेमे में आमद इसका जीता-जागता उदाहरण है। पहले भारतीय जनता पार्टी की बात। यह ठीक है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाले भगवा दल और उनके सहयोगियों ने मई 2019 का चुनाव समूची शान से जीता था, पर उससे पहले और बाद के शकुन अच्छे नहीं रहे। कर्नाटक से फिसलने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह दिल्ली तक आ पहुंचा। इस दौरान शिव सेना जैसा पुराना सहयोगी छिटक गया। उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसे चिर-विरोधियों से हाथ मिला लिया। यह कल्पनातीत तथ्य मई 2019 की विजयगाथा को धूमिल कर रहा था।
इसी बीच तमाम देशी और विदेशी कारणों से भारतीय अर्थव्यवस्था को गहरा झटका लगा, पर इन सबसे हताश हुए बिना केंद्र सरकार ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया और नागरिकता संशोधन कानून बनाने में सफलता भी हासिल कर ली। इस बीच राम मंदिर पर आला अदालत ने जो फैसला सुनाया, वह मंदिर चाहने वालों के पक्ष में था। इन सारे कारकों ने देश में सांप्रदायिक तनाव का माहौल पैदा कर दिया। नागरिकता कानून के बहाने लोग सड़कों पर आ गए। दिल्ली में तो उस समय सांप्रदायिक हिंसा भड़की, जब अमेरिकी सदर डोनाल्ड ट्रंप प्रधानमंत्री के खास मेहमान के रूप में भारत यात्रा पर थे।
जाहिर है कि सरकार को तात्कालिक तौर पर अपनी छवि सुधारने की जरूरत थी। साथ ही यह जताना भी जरूरी था कि मोदी-शाह की जोड़ी का अजेय तत्व बरकरार है। कांग्रेस के सर्वाधिक आकर्षक व्यक्तित्व ज्योतिरादित्य सिंधिया की भाजपा में आमद तात्कालिक तौर पर इन उद्देश्यों को पूरा करती दिखती है। सिंधिया जमीनी नेता हैं। इसके कुछ ही पहले 20 से अधिक विधायकों ने बगावत कर दी थी, जिनमें आधा दर्जन मंत्री भी हैं। अब तक विपरीत परिस्थितियों को भी ‘मैनेज’ कर ले जाने वाले कमलनाथ अपने नए बने हमराह दिग्विजय सिंह के साथ सरकार बचाने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं। सरकार गिरेगी या नहीं, यह तो अगले हफ्ते पता चलेगा, पर इतना तय है कि भोपाल के सत्ता-सदन ने अपना इकबाल खो दिया है और हुकूमतें इकबाल से चला करती हैं।
कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में कांग्रेस और कुछ अन्य पार्टियों के युवा चेहरे भारतीय जनता पार्टी में दिखाई पडे़ं। ऐसा मानने की एक वजह यह भी है कि देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी के बुजुर्ग नेता संन्यास की उम्र में भी राजसत्ता का मोह पाले बैठे हैं। जिस दिन सिंधिया के लिए भोपाल में लोग उमड़े पड़ रहे थे, उसी दिन हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा आलाकमान पर दबाव बना रहे थे कि कुमारी शैलजा की जगह उनके पुत्र को राज्यसभा टिकट दिया जाए। वह सफल भी रहे। अब अगर भाजपा शैलजा को अपने पाले में लाने की कोशिश करे, तो आश्चर्य नहीं। वह पढ़ी-लिखी हैं और दलित परिवार से आती हैं। कांग्रेस के पास दलित नेताओं का टोटा है, तो भाजपा भी यही अभाव महसूस करती है।
सिर्फ शैलजा ही क्यों? पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान अफवाह उड़ी थी कि उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद भारतीय जनता पार्टी ‘ज्वॉइन’ कर सकते हैं। उधर महाराष्ट्र के मिलिंद देवड़ा और पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू भी असंतोष और अवहेलना के दौर से गुजर रहे हैं। मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा कि ये नेता भाजपा में शामिल होने वाले हैं, पर ज्योतिरादित्य सिंधिया के जाने के बाद ऐसे सवाल हवा में मंडराने लगे हैं। कांग्रेस में युवा असंतुष्टों की तादाद अच्छी-खासी है। नेतृत्व को उन पर ध्यान देना होगा।
क्या कांग्रेस इस मन:स्थिति में है? लगता तो नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि वक्त का चक्का उल्टा घूम गया है। 1967 में जब इंदिरा गांधी की अगुवाई में युवा नेता संगठित हो रहे थे, तब कांग्रेस निर्णायक तौर पर विभाजन का शिकार हुई थी। मोरारजी देसाई, निजलिंगप्पा, नीलम संजीव रेड्डी, के कामराज जैसे तमाम दिग्गज कांग्रेस(ओ) में थे। उसके बरअक्स थी कांग्रेस(आई) अर्थात् कांग्रेस (इंदिरा)। नई कांग्रेस ने पुराने धुरंधरों को धूल चटा दी थी।
उन दिनों इंदिरा गांधी पचास वर्ष की थीं। आज राहुल गांधी 49 साल के हैं। अपनी दादी की तरह सामने से लोहा लेने की बजाय 2019 की पराजय के बाद उन्होंने मैदान छोड़ दिया। हालांकि, कांग्रेस छह राज्यों में सत्ता में थी और लोकसभा चुनाव में लगभग 12 करोड़ लोगों ने पार्टी को वोट दिया था। उनके पलायन से कांग्रेस के अंदर पुराने बनाम नए का द्वंद्व तेजी से पनपा, और जिसमें पुरानों के हाथ लॉटरी लग गई। होना इसका उल्टा चाहिए था। वजह? अशोक गहलोत दिल्ली की राजनीति कर रहे थे, जबकि सचिन पायलट बहैसियत प्रदेश अध्यक्ष राजस्थान की रेत फांक रहे थे। इसी तरह, ज्योतिरादित्य सिंधिया मंदसौर के किसानों की लड़ाई लड़ रहे थे और कमलनाथ चुनिंदा सभाओं में जाकर कोरम सा पूरा करते दिख रहे थे। दोनों राज्यों में नतीजे सकारात्मक आए। जनता को उम्मीद थी कि पायलट और सिंधिया मुख्यमंत्री होंगे, पर जो हुआ, वह सबके सामने है। मौजूदा विखंडन को ऐसे निर्णयों ने ही जना है।
तय है कि नेहरू-गांधी परिवार से संचालित होने वाली कांगे्रस को कठोर निर्णय लेने की कुव्वत जुटानी होगी। उन्हें मानना होगा सार्वदेशिक लोकप्रियता का उनका तिलिस्म टूट रहा है और ऐसे में पुराने सिपहसालार सूद सहित अपना लाभ वसूलने की जुगत में पड़ गए हैं। उन्हें इस पर काबू पाना होगा। उनके सामने हार को जीत में बदलने की हरसंभव कोशिश वाली पार्टी है। यहां यह भी गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी अपने रुख को लचीला बनाते हुए कटुतम प्रतिस्प्द्धिधयों को अपने पाले में लाने में जुटी है। इससे जहां पार्टी की छवि सुधरेगी, वहीं अगली पीढ़ी के नेताओं का टोटा दूर होगा। इसके उलट कांग्रेस अपने भरोसेमंद लोगों को भी साथ नहीं रख पा रही है। कांग्रेस आलाकमान के लिए यह वक्त अपनी रीति-नीति पर विचार करने का है। क्या वे ऐसा कर सकेंगे?
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