ढाका भला काबुल क्यों बने
हर बात पर धर्म की दुहाई देने वाले यह भी जान लें कि दुनिया में एक अरब डॉलर की मिल्कियत वाली 20 कंपनियों के सीईओ हिंदू हैं। इन कंपनियों के मुख्यालय जिन मुल्कों में हैं, वहां ईसाइयों का बाहुल्य है...
बांग्लादेश की नवनियुक्त सरकार अगले महीने की शुरुआत में एक बड़े इम्तिहान से गुजरेगी। उस दौरान वहां पर दुर्गापूजा के विशाल आयोजन किए जाएंगे और समूची दुनिया देखेगी कि वहां पर हिंदुओं की स्थिति क्या है? क्या वे अपना सबसे बड़ा त्योहार पुरानी आबरू के साथ मना पाएंगे?
इन सवालों को बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में गृह मामलों के सलाहकार लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) मोहम्मद जहांगीर आलम चौधरी के एक बयान से और हवा मिली है। वह फरमाते हैं- ‘नमाज के दौरान ऐसी गतिविधियां बंद होनी चाहिए और अजान से पांच मिनट पहले इस तरह की गतिविधियों पर रोक लगानी होगी।’ इस तरह की गतिविधियों से उनका आशय वाद्ययंत्रों और लाउडस्पीकरों के प्रयोग से है।
इसमें दो राय नहीं कि कुछ हफ्ते बांग्लादेशी हिंदुओं पर बहुत भारी पडे़ हैं। शेख हसीना के दुर्भाग्यजनक पलायन के बाद से हिंदू आबादी पर जिस तरह हमले हुए, उन्होंने बांग्लादेश के धर्मनिरपेक्ष चेहरे पर खरोंचे छोड़ दी हैं। ‘बांग्लादेश नेशनल हिंदू गार्ड एलायन्स’ के मुताबिक, हसीना सरकार के पतन के बाद से देश के 48 जिलों में हिंदुओं को हिंसक हमलों और खून-खराबे का सामना करना पड़ा। पहले यह माना गया था कि कुछ अराजक तत्व नए उपजे हालात का लाभ उठाकर अपने हाथ सेंक रहे हैं। ऐसा सोचने वाले गलत साबित हुए। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, गुजरी 5 अगस्त से मुल्क के विभिन्न स्कूलों में पढ़ा रहे 50 हिंदू शिक्षकों से जबरन इस्तीफे लिखवा लिए गए।
वहां के हालात किस कदर संवेदनशील हैं, इसकी जानकारी एक और तथ्य से मिलती है। बांग्लादेश के सरकारी दफ्तरों को पिछले दिनों एक हुक्मनामा हासिल हुआ कि आप जल्दी से जल्दी अपने हिंदू कर्मियों की सूची मुहैया करवाएं। इससे इन खबरों को बल मिला कि नवनियुक्त सरकार जान-बूझकर अल्पसंख्यकों को उनके रोटी-रोजगार के हक से वंचित करना चाहती है। हालांकि, बाद में सरकारी नुमाइंदे ने सफाई दी कि ऐसा हर साल होता है। तब तक देर हो चुकी थी। अफवाहों ने अपने पंख खोल लिए थे और वे समूचे मुल्क में आशंकाओं के अपशकुन रोप रही थीं।
वहां के अल्पसंख्यक समुदाय का कहना है कि हम पुलिस की मौजूदगी में भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। पिछले दिनों जिस तरह की खूंरेजी का सामना उन्हें करना पड़ा, उसमें उन्हें खाकी वर्दी वालों की अनुपस्थिति या उदासीनता बेहद खली। खौफजदा ये लोग अक्सर पिछली 6 सितंबर को हुई हिंसक वारदात का उदाहरण देते हैं, जब 15 साल के किशोर को खुलना शहर में सरेआम पीट-पीटकर मार डाला गया था। उस पर आरोप था कि उसने सोशल मीडिया पर मोहम्मद साहब के विरुद्ध तथाकथित टिप्पणी की है। हमारे देश में भी ऐसी घटनाएं हुई हैं, मगर भारत में समय रहते उस पर कार्रवाई की जाती है। बांग्लादेश में ऐसा नहीं हुआ।
अब बांग्लादेश की अंतरिम सरकार हिंदुओं पर होने वाले हमलों को अतिरंजित बता रही है। उसका कहना है कि खास किस्म के लोगों ने जान-बूझकर ऐसी स्थिति पैदा की है, ताकि बांग्लादेश का नाम बदनाम हो सके। सरकारी प्रवक्ता ने इस तरह के अराजक तत्वों को चेतावनी देते हुए कहा भी- ‘अगर किसी ने पूजा-पंडालों में हंगामा किया, पूजा में बाधा डाली या लोगों को परेशान किया, तो हम उसे बख्शेंगे नहीं। बांग्लादेश की आइन के मुताबिक हम उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई करेंगे और शांति-व्यवस्था सुनिश्चित करेंगे।’
जो नहीं जानते, उन्हें बताने में हर्ज नहीं कि दुर्गापूजा के मौके पर नौ दिनों तक दुर्गा पंडाल सजाए जाते हैं। समूची दुनिया में बिखरा बंगाली समुदाय इस उत्सव को बढ़-चढ़कर मनाता है। उम्मीद है, बांग्लादेश की सरकार अपने दावे के अनुरूप काम करने में सफल होगी। अगर उन्हें अपने मुल्क को पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरह नहीं बनाना है, तो उन्हें सांप्रदायिकता की आंधी से खुद को दूर रखना ही होगा।
मैंने यहां पाकिस्तान अथवा अफगानिस्तान का उदाहरण क्यों दिया?
पाकिस्तान में पिछले सात दशकों में हिंदुओं की संख्या में करीब 11 फीसदी की कमी आई है। वर्ष 1951 में वहां 12.9 प्रतिशत हिंदू हुआ करते थे, अब सिर्फ 2.17 फीसदी रह बचे हैं? यह अल्पसंख्यक आबादी के कम होते जाने का सुबूत है। वहां हाल इतना बुरा है कि वर्ष 2021 में एक हिंदू महिला ने जब डीएसपी का इम्तिहान पास किया, तो वह अखबारों की सुर्खियां बन गई। मनीषा रोपेटा पाकिस्तान की स्थापना के बाद ऐसी पहली हिंदू महिला हैं, जो इस पद को हासिल कर सकीं। पाकिस्तान इस पर इतरा सकता था, मगर भारत के लिए हैरत की बात थी? हिन्दुस्तान में तो जाकिर हुसैन वर्ष 1967 में ही राष्ट्रपति बन गए थे।
अपने पड़ोसी पाकिस्तान के मुकाबले अफगानिस्तान का हाल बेहद बदतर है। अफगान अराजकता के बाद वहां तालिबान आए और तालिबानी परंपराओं के विकास के साथ ही हिंदुओं और सिखों के हालात खराब होते चले गए। अब वहां सौ से भी कम हिंदू और सिख रह बचे हैं। वे भी मौका मिलते ही कहीं न कहीं भाग जाना चाहते हैं। भरोसा न हो, तो नई दिल्ली के विभिन्न मोहल्लों में बिखरे पडे़ अफगान शरणार्थियों पर नजर डाल देखिए। खुद बांग्लादेश का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बनने के बाद वहां पहली मर्दुमशुमारी 1974 में हुई थी। उसके मुताबिक, उस समय वहां हिंदुओं की तादाद 13.5 फीसदी थी। पिछले पांच दशकों में इसमें 5.5 फीसदी की जबरदस्त गिरावट आई है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में भी मुसलमानों के मुकाबले हिंदुओं की आबादी के प्रतिशत में कमी आई है, लेकिन वे अभी भी जबरदस्त बहुमत में हैं और आने वाले सैकड़ों साल तक इस स्थिति में बहुत बड़ा फर्क आता दिखाई नहीं दे रहा है। अपने देश में जो लोग पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान अथवा किसी अन्य देश का भय दिखाकर आशंका की तिजारत करते हैं, उन्हें सतर्क हो जाना चाहिए। इससे बांग्लादेश या पाकिस्तान में उनके स्वधर्मियों पर जुल्म बढ़ जाता है।
उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि कई मुस्लिम देश ऐसे भी हैं, जहां हिंदुओं ने अपनी मेहनत से खास मुकाम बनाया है। वे वहां की संस्कृति, सभ्यता, समाज और आर्थिक उन्नति में योगदान कर रहे हैं। कट्टर माने जाने वाले संयुक्त अरब अमीरात में तो हिंदुओं की तादाद 10 फीसदी तक आंकी जा रही है। इसी वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां 700 करोड़ रुपये की लागत से बने हिंदू मंदिर का लोकार्पण किया। इसी तरह, कुवैत में 15 प्रतिशत और कतर में 10 फीसदी तक हिंदू रहते हैं। यहां इंडोनेशिया के बारे में भी जानना जरूरी है। इंडोनेशिया में दो फीसदी से भी कम हिंदू बसते हैं और संसार के सर्वाधिक मुसलमान वहां रहते हैं। इसके बावजूद वहां के तमाम सरकारी आयोजनों में हिंदू रिवाजों का अनुपालन किया जाता है।
हर बात पर धर्म की दुहाई देने वाले यह भी जान लें कि दुनिया में एक अरब डॉलर की मिल्कियत वाली 20 कंपनियों के सीईओ हिंदू हैं। इन कंपनियों के मुख्यालय जिन मुल्कों में हैं, वहां ईसाइयों का बाहुल्य है। इनके निदेशक मंडल ने अगर धार्मिक चश्मा पहना होता, तो वे समूची दुनिया में व्यापार कैसे कर पाते?
पता नहीं, लंदन की महफूज फिजां में बरसों गुजारने के बावजूद मुहम्मद यूनुस साहब इस तथ्य को कितना जानते-मानते हैं।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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