Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगhindustan aajkal column by shashi shekhar 14 november 2021

नेहरू : नायक या खलनायक

आज पंडित जवाहरलाल नेहरू की 132वीं जयंती है। इस मौके पर मैं आपको अगस्त, 1947 की सैर कराना चाहता हूं। उन दिनों दिल्ली सहित समूचे उत्तर भारत में आग लगी हुई थी। बंटवारे के ज्वालामुखी ने तकरीबन 10 लाख...

Manish Mishra शशि शेखर, Sat, 13 Nov 2021 08:20 PM
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आज पंडित जवाहरलाल नेहरू की 132वीं जयंती है। इस मौके पर मैं आपको अगस्त, 1947 की सैर कराना चाहता हूं। उन दिनों दिल्ली सहित समूचे उत्तर भारत में आग लगी हुई थी। बंटवारे के ज्वालामुखी ने तकरीबन 10 लाख जिंदगियों को लील लिया था। लाखों लोग अपना घर -बार छोड़ने को विवश हुए थे। कल तक जो मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, वे आज एक-दूसरे के खून के प्यासे थे। सरकारी खजाना बदहाल था। इतने बड़े देश के पुनर्निर्माण के लिए जरूरी भाईचारा और संसाधन सिरे से नदारद थे।
ऐसे में, जब जवाहरलाल नेहरू  ने आजाद भारत का अपना पहला भाषण दिया कि हम नियति से साक्षात्कार करने जा रहे हैं, तो हालात जैसे चीख-चीखकर पूछ रहे थे कि बदनीयती के इस वक्त से उपजी नियति कैसी होगी? 

आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के  तौर पर नेहरू जी की जिम्मेदारियां विकराल थीं। सांप्रदायिक हिंसा के अलावा चारों तरफ फैली हुई असमानता, विद्वेष और भारतीय राज्य से मोल-तोल कर रहे लगभग 550 रजवाड़े थे। देश के एकीकरण से लेकर आम आदमी की रोजमर्रा की जरूरियात पूरी करना उस समय असंभव लगता था, पर बहैसियत प्रधानमंत्री उन्होंने जब अपना पहला कार्यकाल पूरा किया, तो लोगों की उम्मीदें पुनर्जीवित हो चली थीं। अंग्रेज हमें 0.72 प्रतिशत की जो अपंग विकास दर सौंप गए थे। वह पांच सालों में 3.8 फीसदी तक पहुंच चुकी थी। यही नहीं, रजवाडे़ अतीत बन चुके थे और कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक भारत का सपना स्थायी आकार ले चुका था।
जवाहरलाल नेहरू जानते थे कि बदलती दुनिया में भारत को उसका सही स्थान दिलाने के लिए हमें तेजी से वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। जब पर्याप्त मात्रा में रेलगाड़ियां और सड़कें नहीं थीं, तब उन्होंने अंतरिक्ष और परमाणु संस्थानों की नींव रखी। शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी, एम्स और ऐसे तमाम संस्थानों की शुरुआत उन्हीं दिनों की गई थी। यह सब कुछ उस देश का प्रधानमंत्री कर रहा था, जिसे आजादी के दिन मात्र 12 प्रतिशत की साक्षरता दर हासिल हुई थी। बडे़ सपने देखना उनकी आदत थी।
यही वजह है कि मार्शल टीटो और अब्दुल सादेर नासिर जैसे जननायकों के साथ मिलकर उन्होंने तीसरी दुनिया का सपना बुना। यह दुनिया सोवियत संघ की तरह कट्टर साम्यवादी नहीं थी। उसे अमेरिकी पूंजीवाद को आत्मसात करने से भी परहेज था। ये देश गरीब नहीं, खुद को गुटनिरपेक्ष कहते और कहलाते थे। इससे भारत अपना अलग स्थान बनाने में कामयाब हुआ। पंडित नेहरू उपनिवेशवाद से मुक्त होती धरती के ऐसे नेताओं में शामिल थे, जिनकी लोकप्रियता राष्ट्रीयताओं की जकड़न से आजाद थी। क्या इस रुतबे ने उन्हें अति-आत्मविश्वास का शिकार बना दिया था? क्या इसी वजह से उन्होंने हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे का यकीन कर लिया था? 1962 की ग्लानि उसी स्वप्नजीवी विश्वास की परिणति थी। तब से अब तक बीजिंग हमारे भरोसे को तोड़ता चला आ रहा है।
ऐसा नहीं है कि पंडित नेहरू की यह अकेली गलती थी। जम्मू-कश्मीर के मामले में भी वह सही हालात को आंकने में नाकामयाब रहे। वह कश्मीर के लोगों से जनमत-संग्रह का वादा कर बैठे थे। बाद में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी से जो हालात बिगड़े, वे आज तक सामान्य नहीं हुए हैं। हालांकि, नेहरू ने बाद में सार्वजनिक तौर पर यह माना था कि शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी गलत फैसला था। आलोचनाओं को सहन करने और अपनी गलतियों को स्वीकर करने का उनमें अद्भुत             माद्दा था। 
हिंदू कोड बिल पर भी उनके आलोचक मुखर रहते हैं कि ऐसा करते समय उन्हें अल्पसंख्यकों को भूलना नहीं चाहिए था। क्या वह अकेले इसके दोषी थे? यहां भूलना नहीं चाहिए कि उस समय कांग्रेस कद्दावर नेताओं की पार्टी हुआ करती थी। नेहरू को मंत्रिमंडल के अंदर के साथ पार्टी फोरम पर भी चुनौतियां मिलती थीं। उन्हीं के शहर इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के निवासी पुरुषोत्तम दास टंडन से उनकी कभी नहीं बनी। टंडन उनकी मर्जी के बिना कांगे्रस के अध्यक्ष बने थे और बाद में नेहरू ने अपने रसूख का उपयोग करते हुए उन्हें पद छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया था। उनकी नीतियों के विरोध में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर जनसंघ की स्थापना की। उसी जनसंघ से उपजी भारतीय जनता पार्टी आज देश पर हुकूमत कर रही है। अगर श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनसे अलग न हुए होते तो?
सरदार वल्लभ भाई पटेल और गोविंद वल्लभ पंत से उनके मतभेद जगजाहिर थे। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर उनकी काबीना के सदस्य थे, वह भी बाद में अलग हो गए। दरअसल, उस समय की कांग्रेस सही अर्थों में एक लोकतांत्रिक पार्टी थी। उसमें नेहरू का दर्जा बराबर की बिरादरी में अगुआ का था। वह अपनी पार्टी के अगुआ थे, पर नियंता नहीं। यह दौर इंदिरा गांधी के वक्त से शुरू हुआ। इंदिरा अपने पिता के स्वर्णकाल में सियासी दुनिया में दाखिल हुई थीं। इस नाते नेहरू राजनीति में वंशवाद के पुरोधा पुरुष कहे जा सकते हैं।  
इसके बावजूद वह खुद को आम आदमी के प्रति जवाबदेह मानते थे। कहते हैं कि वह चुनाव प्रचार के दौरान एक बार कानपुर गए थे। जनसभा के बीच से उठकर उनसे एक व्यक्ति ने कहा कि पंडित जी, आपने एक भ्रष्ट व्यक्ति को टिकट दिया है। उन्होंने उसकी बात धीरतापूर्वक सुनी और कहा कि हो सकता है, मुझसे गलती हो गई हो, पर आप किसी बेईमान को वोट देने की भूल मत कीजिएगा। इसी नीयत से शायद उन्होंने पंचायती राज की स्थापना की थी। आज देश की ढाई लाख से अधिक पंचायतों से 31,87,320 लोग चुनकर आते हैं। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और दलित होते हैं। समाज के दबे-कुचले लोगों को लोकतंत्र के जरिये आगे बढ़ने का अवसर देने का यह अनूठा प्रयास है। एक बात और, नेहरू का आकलन करते वक्त हमें ध्यान रखना होगा कि हमारे साथ जन्मे पाकिस्तान में 1958 में ही सैनिक तख्ता पलट हो गया था, पर भारत इससे बचा रहा। क्या जम्हूरियत को जमाने और आस-पड़ोस की लपटों से अपने देश को बचाने के लिए उनके योगदान को कोई बिसरा सकता है?
अक्सर हम किसी व्यक्ति और उसके काम की तुलना करते वक्त वर्तमान के चश्मे से उसे देखने की गलती करते हैं। यही वजह है कि मैंने इस लेख की शुरुआत में आपसे अगस्त, 1947 के दौर में लौटने का अनुरोध किया था। उन्हें आंकते वक्त उस समय के हालात की भी बात होनी चाहिए, जिन्हें उनके आलोचक सुविधापूर्वक दरकिनार कर देते हैं। 

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