गुजरे चुनावों के सबक
ये नतीजे समूचे विपक्ष को चेतावनी देते हैं कि अगर आप आपस में लड़ेंगे, तो 2024 में भी परिणाम निराशाजनक हो सकते हैं। विपक्षी दल चाहें, तो अगले वर्ष होने वाले नौ राज्यों के चुनावों में इस सीख का इस्तेमाल क
गुजरात और हिमाचल विधानसभाओं के साथ दिल्ली नगर निगम के चुनाव परिणाम भारतीय लोकतंत्र की सटीक दास्तां बयान करते हैं। ये हर पार्टी को अगर खुशी मनाने की वजह देते हैं, तो सजग होने के लिए भी चेताते हैं।
पिछले साल सर्दियों में गुजरात की सरजमीं का सियासी तापमान माप रहा था। वहां जिससे भी पूछता, एक ही जवाब मिलता- अरे यहां तो भाजपा ही आएगी, क्योंकि यह ‘उनका’ घर है। ‘उनका’ यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी! पिछले हफ्ते की रिकॉर्डतोड़ जीत उनकी लोकप्रियता और मतदाताओं के साथ आत्मिक तादात्म्य की मुनादी करती है। भाजपा ने 156 सीटें जीतकर न केवल 2002 में नरेंद्र मोदी के 127, बल्कि कांग्रेस के माधव सिंह सोलंकी के 1985 से कायम 149 सीटों के रिकॉर्ड को अतीत की बात बना दिया है। और तो और, पुल हादसे का शिकार हुए मोरबी जिले की सारी सीटों पर मिली जीत ने साबित कर दिया कि लोग मोदी की कथनी और करनी पर कितना यकीन करते हैं।
हर रोज बदलती तकनीक, उम्मीदों के पसरते जनज्वार और आबादी के साथ बढ़ती आवश्यकताओं के इस युग में 27 सालों तक अपनी लोकप्रियता को बचाना-बढ़ाना कैसे संभव हुआ? मोदी के इस करिश्मे को यह कहकर अक्सर कम करने की कोशिश की जाती है कि वह हिंदुत्व का सहारा लेते हैं, पर धर्म की ओट से तिलिस्म गढ़ा जा सकता है, विश्वास नहीं। कोरोना काल से आज तक लगभग 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज बांटने का माद्दा कोई और देश नहीं दर्शा सका है। ऐसी तमाम योजनाओं के जरिये वह खुद को लोक-कल्याणकारी राज्य का पोषक साबित करने में कामयाब रहे हैं।
लगातार चुनाव जीतने के लिए सिर्फ इतना काफी नहीं होता। यहां से अमित शाह और उनकी देख-रेख में चुनावी मशीनरी का काम शुरू होता है। वे एक-एक बूथ और कार्यकर्ता पर नजर रखते हैं। मोदी की शख्सियत और कार्यक्रमों को हर वोटर तक पहुंचाने की कठिन जिम्मेदारी इस टीम के हाथ होती है। जरूरत पड़ते ही भाषा, भाव, सुर और तेवर बदलने का काम भी यही टीम करती है।
गुजरात में 52.5 फीसदी वोट यूं ही नहीं हासिल हो गए।
भगवा दल ने पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार तीन प्रतिशत मत ज्यादा हासिल किए। यही नहीं, हिमाचल में हार के बावजूद विजेता कांग्रेस से भाजपा का मत-प्रतिशत सिर्फ एक फीसदी कम रहा। दिल्ली नगर निगम में भी भगवा दल पराजय के बावजूद अपना मत-प्रतिशत बढ़ाने में कामयाब रहा। इसके उलट कांग्रेस के हिस्से में गुजरात में लगभग 14 फीसदी कम वोट आए और वह 17 सीटों पर सिमट गई। वहीं करीब 13 प्रतिशत मत प्राप्त कर आम आदमी पार्टी ने पांच सीटें जीतीं और राष्ट्रीय पार्टी का गौरव हासिल करने की राह प्रशस्त कर ली।
आप की यह आमद कांग्रेस की कीमत पर हुई है।
क्या कांग्रेस ने गुजरात और दिल्ली को इसलिए भगवान भरोसे छोड़ दिया, ताकि सीमित संसाधनों का फलदायी उपयोग हिमाचल में किया जा सके? चाहे जो हो, मतदाताओं और कार्यकर्ताओं पर इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। यही नहीं, जिन अशोक गहलोत को चुनाव संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, वह बीच चुनाव में गुजरात के बजाय राजस्थान की राजनीति करते नजर आ रहे थे। उन्होंने अप्रत्याशित और अवांछित तौर पर सचिन पायलट को प्रकारांतर से गद्दार कह पहले से ही हताश कार्यकर्ताओं को और मायूस कर दिया।
कांग्रेस की अभूतपूर्व पराजय की सबसे बड़ी वजह यही है।
इसके विपरीत आम आदमी पार्टी की उपलब्धि चौंकाने वाली है। गुजरात में पार्टी का कोई जनाधार नहीं है। न ही भाजपा और कांग्रेस जैसी कार्यकर्ताओं की फौज उसके पास है। अरविंद केजरीवाल के अलावा किसी अन्य नेता के प्रति कोई आकर्षण भी गुजरातियों में नहीं है, लेकिन केजरीवाल जानते थे कि भाजपा का विकल्प तलाश रहे लोग कांग्रेस से निराश हो चुके हैं। ऐसे मेें, आम आदमी पार्टी उनकी मंजिल बन सकती है। दिल्ली और पंजाब विधानसभा के बाद एमसीडी चुनावों में वह इस फॉर्मूले का सफल प्रयोग कर चुके हैं। यकीनन, आने वाले दिनों में अरविंद केजरीवाल खुद को नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने की कोशिश करेंगे।
कांग्रेस के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।
आप सोच रहे होंगे कि अगर भाजपा और आप इतने कारगर हैं, तो फिर कांग्रेस ने हिमाचल कैसे जीत लिया? जवाब दुरूह नहीं है। कांग्रेस ने ‘देवभूमि’ को सिर्फ भगवान भरोसे नहीं छोड़ा। हिमाचल के प्रभारी राजीव शुक्ला ने लगातार भाजपा की अंदरूनी खेमेबंदी के मद्देनजर अपनी रणनीति में सुधार किए। पार्टी ने संसाधन की कमी न हो, इसके लिए छत्तीसगढ़ के तेजतर्रार मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को वहां का चुनाव प्रभारी बनाया। यह सब ठीक से चलता रहे, इसके लिए प्रियंका गांधी वाड्रा खुद स्थानीय टीमों के संपर्क में थीं। यही नहीं, अग्निवीर, पुरानी पेंशन योजना, सेब उत्पादकों की हताशा, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दे भी भाजपा के प्रति विक्षोभ बढ़ा रहे थे। गुजरात में ये मुद्दे उतने प्रभावशाली इसलिए साबित नहीं हुए, क्योंकि वह मूलत: कारोबारी और औद्योगिक प्रदेश है। इसके अलावा, भगवा दल यहां गुजरात और उत्तराखंड की तरह मुख्यमंत्री बदलने जैसे ‘बोल्ड’ फैसले नहीं ले सका। मंडी के उप-चुनाव में पराजय के बाद से ही जयराम ठाकुर को हटाने की मांग हो रही थी, पर वह बने रहे।
हिमाचल में उस सीख की उपेक्षा महंगी पड़ी।
अब आते हैं उप-चुनावों पर। समाजवादी पार्टी की डिंपल यादव ने मैनपुरी लोकसभा की सीट पर 2,88,461 वोटों से जीत हासिल कर इस परंपरागत गढ़ पर कब्जा कायम रखा। उत्तर प्रदेश के ही रामपुर में आजम खां की लाख कोशिशों के बाद सपा को हार का सामना करना पड़ा, तो वहीं खतौली से राष्ट्रीय लोकदल के मदन भैया चुनाव जीत गए। समाजवादी पार्टी के लिए एक अच्छी खबर यह भी है कि गुजरात में उसके इकलौते प्रत्याशी ने अच्छे अंतर से जीत हासिल की। इसी तरह, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के उप-चुनावों में कांग्रेस और ओडिशा में बीजद ने विजय हासिल कर ली। हालांकि, बिहार के कुढ़नी में जद(यू) के प्रत्याशी को हराकर भाजपा ने महागठबंधन की ताकत पर सवाल चस्पां कर दिए हैं।
क्या है इन नतीजों का सबक?
दिल्ली, हिमाचल और इन उप-चुनावों के नतीजे भाजपा को सतर्क होने का संकेत देते हैं। बेरोजगारी, महंगाई और कई अन्य ऐसे मुद्दे हैं, जो इस अभूतपूर्व चुनावी मशीन को चुनौती देने में सक्षम हैं। कांग्रेस के लिए दिल्ली और गुजरात का संदेश साफ है कि आपको अपना चाल, चरित्र और चेहरा बदलना ही होगा। ‘आप’ को भी हिमाचल से जो झटका मिला है, उससे स्पष्ट है कि पार्टी को क्षेत्रीय स्तर पर कुछ सबल चेहरे जोड़ने होंगे। इसके साथ कार्यकर्ताओं का संजाल भी खड़ा करना होगा। ये नतीजे समूचे विपक्ष को चेतावनी देते हैं कि अगर आप आपस में लड़ेंगे, तो 2024 में भी परिणाम निराशाजनक हो सकते हैं।
विपक्षी दल चाहें, तो अगले वर्ष होने वाले नौ राज्यों के चुनावों में इस सीख का इस्तेमाल कर सकते हैं।
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