घायल दिल्ली जो पूछती है
दिल्ली का दंगा अपने पीछे सिर्फ 42 शवों का बोझ नहीं, बल्कि जलते हुए सवालों की भरी-पूरी शृंखला भी छोड़ गया है। हम हिन्दुस्तानियों के लिए जरूरी है कि किसी और की नहीं, सिर्फ अपनी भलाई के लिए इन प्रश्नों...
दिल्ली का दंगा अपने पीछे सिर्फ 42 शवों का बोझ नहीं, बल्कि जलते हुए सवालों की भरी-पूरी शृंखला भी छोड़ गया है। हम हिन्दुस्तानियों के लिए जरूरी है कि किसी और की नहीं, सिर्फ अपनी भलाई के लिए इन प्रश्नों पर गौर फरमाएं। यह बताने की जरूरत नहीं कि दिल्ली में पिछले तीन महीनों से अंगारे बोए जा रहे थे। पिछले कई चुनावों से हमारे सियासतदां जिन भड़काऊ मुद्दों को सामाजिक विमर्श के केंद्र में लाने की कोशिश कर रहे थे, इसे उसकी त्रासद परिणति कहा जाएगा। सोशल मीडिया के अदृश्य योद्धा इस तंत्र-क्रिया में आहुति दे रहे थे। उनकी मेहरबानी से जहां भी नजर डालें, कोई न कोई बताने वाला मिल जाता कि अगर आप हिंदू हैं, तो असुरक्षित हैं; मुसलमान हैं, तब भी असुरक्षित हैं। सवाल उठता है कि सैकड़ों साल से साथ रह रहे लोग अगर 21वीं शताब्दी में एक-दूसरे से इतने असुरक्षित हैं, तो उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए क्या किसी और ग्रह से लोग आएंगे?
हमें यह भी समझना होगा कि देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से राजनेताओं की भाषा बदल जाती है। अब दिल्ली के एक पूर्व विधायक को ही देखिए। कल तक वह आम आदमी पार्टी में रहकर देश के प्रधानमंत्री तक के लिए अपशब्द बोलते थे। पिछले चुनाव में वह भाजपा के पाले में आ गए और अचानक हिंदुओं के स्वघोषित हितरक्षक बन बैठे। टेलीविजन पर आपने उन्हें एक डीसीपी की मौजूदगी में कहते हुए सुना होगा कि हम अमेरिकी राष्ट्रपति के जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उसके बाद रास्ते नहीं खुले, तो हम नहीं रुकेंगे। यही वह मुकाम था, जिसने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के विनाशकारी दंगे की पृष्ठभूमि तैयार की।
यहां ‘आप’ पार्षद ताहिर हुसैन का जिक्र जरूरी है। उनके यहां से जिस तरह पेट्रोल बम, पत्थर, रसायन आदि मिले, वे दर्शाते हैं कि राजनेता और राजनीति कहां तक फिसल चुकी है! पार्षद इन आरोपों को नकार रहे हैं, पर इंटेलिजेंस ब्यूरोकर्मी अंकित शर्मा की हत्या के आरोप में उन पर मुकदमा दर्ज हो चुका है। यहां मैं एआईएमआईएम के पूर्व विधायक वारिस पठान के बयान का भी जिक्र करना चाहूंगा। उन्होंने कहा था, हम 15 करोड़ 100 करोड़ पर भारी पड़ेंगे। कपिल मिश्रा और पठान, क्या आपको एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नहीं लगते? दोनों के बयानों ने सतह के भीतर सुलगते शोलों को हवा दी। सरकार को ऐसे तत्वों से सख्ती से निपटना होगा। 21वीं सदी में विश्व गुरु बनने का स्वप्न और ऐसे लोग साथ नहीं चल सकते।
शाहीन बाग आंदोलन ने भी ऐसे लोगों की अनजाने में मदद की। यह सही है कि यहां बैठी महिलाओं ने हर हाल में सामाजिक एका बनाए रखा, पर उनकी वजह से लाखों लोगों को हर रोज जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ा, उससे उन लोगों में भी असंतोष की भावना प्रबल हुई, जो उनसे सहानुभूति रखते थे। अंदरखाने खदबदाती इस बेचैनी ने जाफराबाद में जाम लगने पर कपिल मिश्रा जैसों को अवसर प्रदान किया। शाहीन बाग के लोगों को समझना चाहिए कि आप अपने असंतोष को दूसरों पर थोप नहीं सकते।
अब दिल्ली पुलिस की बात। अगर राजधानी की पुलिस सही समय पर हरकत में आती, तो लोगों को मदद की गुहार लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाने की जहमत नहीं उठानी पड़ती। यह हाल तब है, जब खुद उनका मुख्य आरक्षी रतन लाल इस हिंसा की भेंट चढ़ चुका था। दर्जनों पुलिस वाले घायल थे और एक आईपीएस अधिकारी तक अस्पताल में भर्ती था। ऐसा पहली बार हुआ है, जब अपने लोगों पर आ पड़ने के बावजूद पुलिस सिर्फ खानापूरी करती दिखी हो। सवाल उठता है, क्या हमारी पुलिस तटस्थ नहीं रह गई है? या, वह अकर्मण्य हो गई है? आप जामिया मिल्लिया के पास तमंचा लहराने वाले उस 17 साल के नौजवान को याद करें। प्रदर्शनकारियों को अपशब्द कहते हुए वह दिल्ली पुलिस जिंदाबाद के नारे लगा रहा था। उसे यह विश्वास किसने दिलाया कि पुलिस ‘हमारे’ साथ है?
राजनीति, अपराध और आम आदमी के बीच पसरी असुरक्षा के घालमेल ने हालात इतने बिगाड़ दिए कि खुद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को कमान सम्हालनी पड़ी। उत्तेजित भीड़ को शांत करते हुए उन्होंने कहा कि इंशाल्लाह, सब ठीक हो जाएगा। हम यहां प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के हुक्म पर अमन कायम कराने आए हैं। यहां एक और तथ्य गौरतलब है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस रही थी, पर पुरानी दिल्ली के उन मोहल्लों में, जहां मिश्रित आबादी सैकड़ों साल से रह रही है, एक पत्थर तक नहीं चला। क्यों? बाहर से आए हुए लोग ज्यादा असुरक्षित होते हैं और फिर उनके पास लौटने के लिए एक ठिकाना होता है। यहां के स्थाई बाशिंदे आपस में लड़-झगड़कर साथ रहना सीख चुके हैं।
यहां दिल्ली की नई हुकूमत की कार्य-प्रणाली पर भी सवाल उठते हैं। हर बला को केंद्र के मत्थे मढ़ देने वाले अरविंद केजरीवाल कुछ ही हफ्ते पहले दिल्ली के अधिकांश मतदाताओं की मर्जी से सत्ता में लौटे हैं। वह कहते हैं कि दंगा बाहर के लोगों ने फैलाया, दिल्ली वालों ने नहीं। क्या वह इन दंगाग्रस्त इलाकों के मुख्यमंत्री नहीं? क्या उन्हें यहां के लोगों ने वोट नहीं दिया था? यह ठीक है कि उनके मंत्रियों और विधायकों ने संबंधित अधिकारियों से बात करने की कोशिश की, पर केजरीवाल के प्रशंसकों को उनसे कहीं अधिक की दरकार थी। अगर वह राजघाट पर जा बैठने की बजाय बापू की कार्य-प्रणाली पर अमल करते, तो शायद कुछ लोगों की जान बच जाती। गांधी ऐसे वक्त पर राजप्रासादों में नहीं बैठे रहते थे। वह उपद्रवग्रस्त इलाके में पहुंच दूसरों की जान बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा देते थे। इस मामले में कांग्रेस ने भी आप का अनुसरण कर इतिश्री कर ली।
अंत में, एक सवाल इस मुल्क के उन लोगों से, जो धरती के इस हिस्से को हिन्दुस्तान बनाते हैं। क्या इस देश के आमजन इतने भोले हैं कि वे अपने नेताओं के बरगलाने में आ जाते हैं? या, उनके अंदर की सांप्रदायिकता राजनीतिज्ञों की जुबान पर जा बैठती है? यदि हम ही ऐसे नेताओं को वोट देना बंद कर दें, तो वे भी इन उलटबांसियों को भूल जाएंगे। संसार में सर्वाधिक स्नातक हमारे यहां हैं, लेकिन वैचारिक तौर पर हम इतने दरिद्र क्यों हैं?
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