एक छोटे मुल्क की बड़ी सीख
चीन ने एक हजार साल उन पर हुकूमत की थी। शताब्दियां बीत गईं, पर वियतनाम के खुद्दार लोग चीनियों की दमन-गाथा को बिसरा नहीं पाते। पराधीनता के विरुद्ध भावनाओं का ऐसा सामूहिक ज्वार मैंने कभी कहीं और...
उस वक्त हम हो ची मिन्ह सिटी के युद्ध संग्रहालय में थे। वे लम्हे चकित कर देने वाले रोमांच के थे। वहां सिर्फ युद्ध का साजो-सामान न था, बल्कि कदम-दर-कदम मानवीय जिजीविषा और सामरिक रचनात्मकता का संगम पसरा हुआ था। वियतनामियों ने फ्रांस, अमेरिका और अपने गृहयुद्ध की यादों को काफी करीने से संजो रखा है। इन अजर-अमर गाथाओं को वे सिर्फ दूसरों को नहीं दिखाते, अपने दिल में भी हरदम बसाए रखते हैं।
गुलामी से स्थायी मुक्ति का अकेला रास्ता यही है।
इस भवन तक पहुंचने से पहले ही हमें उन अमेरिकी तोपों और टैंकों के दर्शन होने लगते हैं, जिन्हें अमेरिकी सैनिक छोड़ भागे थे। मैंने बड़ी संख्या में स्थानीय लोग वहां देखे। युवा अपने बच्चों को और बुजुर्ग अपने नाती-पोतों को अनूठी समरगाथा से रू-ब-रू कराने वहां आए थे। संगृहीत तोप, गोले, हेलीकॉप्टर और अन्य आयुधों के आगे चस्पां विवरणों को वे बेहद ध्यान से देखते और इत्मीनान से बच्चों को बताते। मैं इतने मुल्कों में घूमा किया, पर ऐसा अंदाज इससे पहले कहीं नहीं दिखाई दिया।
वियतनाम में गुजरे वे चार दिन रह-रहकर हॉवर्ड फास्ट की माई ग्लोरियस ब्रदर्स का वह संवाद याद दिलाते, जो ईसा से पूर्व स्थापित हुए यहूदी मुल्क के हर बाशिंदे की जुबान पर था- हम एक हजार साल पहले मिस्र में गुलाम थे। आज तक इजरायल उसी राह पर चल रहा है। वियतनाम ने उसे सुथरे तरीके से अपना लिया है। वह इजरायल की तरह पड़ोसियों से जंग नहीं लड़ रहा। इधर, चीन से भी उसके रिश्ते सुधरे हैं। हालांकि, वहां का आम आदमी चीन के नाम पर मुंह बिचकाता है। चीन ने एक हजार साल उन पर हुकूमत की थी। शताब्दियां बीत गईं, पर वियतनाम के खुद्दार लोग चीनियों की दमन-गाथा को बिसरा नहीं पाते। पराधीनता के विरुद्ध भावनाओं का ऐसा सामूहिक ज्वार मैंने कभी कहीं और नहीं देखा।
वे महज अपनी आजादी से संतुष्ट नहीं हैं। उनमें जबरदस्त प्रगति-कामना भी है।
यही वजह है कि भूगोल में हमारे राजस्थान से छोटा होने के बावजूद उनकी तरक्की आंखें खोलने वाली है। युद्ध और गृहयुद्ध के दशकों लंबे दौर से गुजरकर वह 1976 में अपने पैरों पर खड़ा हो पाया, मगर अगले पच्चीस वर्ष घावों से उबरने के थे। उसने गति पकड़ी इस सदी के आरंभ से और अभी चौबीस साल भी नहीं पूरे हुए, पर 99 फीसदी से ज्यादा घरों में बिजली है। वियतनाम में बिजली आंख-मिचौली भी नहीं खेलती और 50 प्रतिशत से अधिक आबादी के पास साफ पीने का पानी है। यही नहीं, 87 प्रतिशत से भी अधिक वियतनामी राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा का लाभ उठा रहे हैं। विश्व बैंक की रपट बताती है कि साल 2022 में महज 4.2 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे रह बचे थे।
यात्रा के दौरान हम 70 किलोमीटर दूर मेकांग डेल्टा देखने के लिए राजमार्ग से गए। ‘एक्सप्रेस वेज’ का ऐसा रूप मैंने अमेरिका में भी नहीं देखा। कहीं कोई गड्ढा नहीं, गति अवरोधक नहीं और आगे निकलने की जानलेवा होड़ भी नहीं। इससे पहले राजधानी की सड़कों को भी परखा था, कहीं कोई ट्रैफिक सिपाही नहीं, लेकिन जाम का नामोनिशान तक नहीं। मैंने एक बार भी वहां हॉर्न की ध्वनि नहीं सुनी। इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल में जगह-जगह लिखवाया नारा याद आ गया - अनुशासन ही देश को महान बनाता है। हम उस थोपे गए अनुशासन से कितना महान देश बना पाए? वियतनाम में स्व-अनुशासन जीवनशैली का मुकम्मल हिस्सा लगा।
कोई आश्चर्य नहीं कि दस करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क की अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति क्षमता यानी पीपीपी के हिसाब से 1.350 ट्रिलियन डॉलर पार कर चुकी है। विश्व बैंक ने चालू वित्तीय वर्ष में यहां की विकास दर छह फीसदी से अधिक आंकी है। अगले वर्ष इसमें बढ़ोतरी का अनुमान है। यही वजह है कि इस वर्ष के पहले आठ माह में ही उसे 14.15 बिलियन डॉलर का विदेशी निवेश हासिल हुआ है। भारत आकार, आबादी और अर्थव्यवस्था में उससे कहीं बड़ा है, पर इस वर्ष हमें 2023 के मुकाबले कम विदेशी निवेश प्राप्त हो सका है।
यह हमारे लिए खतरे की घंटी भले न हो, पर चेतने की बात जरूर है। वियतनाम आसियान का सदस्य है। इसके देशों की कुशल आबादी दुनिया के सामने असीम संभावनाएं पेश करती है। वियतनाम में शिक्षा को कितनी तरजीह दी जाती है, इसका अंदाज सिर्फ इस तथ्य से लग जाता है कि अकेले हो ची मिन्ह सिटी में 55 विश्वविद्यालय हैं। इसी चलन के चलते इन देशों ने पिछले 30 वर्षों में काबिल-ए-गौर तरक्की हासिल की है।
लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता का दंभ भरने वाले पश्चिमी देशों का नकाब यहां भी हवा का झोंका बन जाता है। उन्हें ऐसे मुल्कों का राजनीतिक वातावरण रास आता है। इनमें से अधिकांश देशों में आर्थिक प्रगति को लोकतांत्रिक मूल्यों पर तरजीह दी जाती है। वियतनाम में एकदलीय व्यवस्था है। चीन की तरह वहां भी कम्युनिस्ट पार्टी की हुकूमत है। वहां बोलने की आजादी है, पर सरेआम अपने देश के बारे में बात करने में लोग हिचकते हैं। मॉस्को और बीजिंग की भांति वहां के बाशिंदों को भी लगता है कि उन पर नजर रखी जा रही है।
मुझे इसका इल्म न होता, अगर फैन्सी सैगॉन मॉल में मैंने एक नौजवान से पूछ न लिया होता कि क्या आप खुद को कॉमरेड मानते हैं? उसने इधर-उधर देख फुसफुसाकर बोला था- हम ‘रेड कैपिटलिस्ट’ हैं। मतलब? उसका उत्तर था- ऊपर से हमारे नेता सोशलिस्ट हैं, पर अंदर से कैपिटलिस्ट। कहीं हर ओर पसरे अनुशासन की असली वजह यही तो नहीं? चाहे जो हो, पर विलासिता की वस्तुओं से दमकते स्टोर्स भरे पडे़ थे। दिल्ली और एनसीआर के कम ही मॉल ऐसे होंगे, जहां एक साथ इतने लग्जरी स्टोर हों।
कहते हैं, हर चमक-दमक के पीछे गहरी कालिमा छिपी होती है। वियतनाम में भी इसका असर दिखाई पड़ रहा है। वहां के युवा विवाह संस्था से मुंह मोड़ रहे हैं। एक 28 साल के नौजवान ने बताया कि हमारी शादी करने की हिम्मत नहीं पड़ती। महंगाई इतनी है कि बच्चे कैसे पलेंगे? मैंने उससे पूछा कि आपके यहां तो शिक्षा ‘फ्री’ है, फिर कैसी दिक्कत? उसका उत्तर था, यह ठीक है कि बच्चे के लिए फीस की व्यवस्था नहीं करनी होगी, पर उसे पालने के लिए कई अन्य खर्चे करने पड़ेंगे। वे कहां से आएंगे? वह गलत न था। मेरे लिए यह पहला मुल्क था, जहां मैंने पांच लाख का नोट देखा। भारतीय मुद्रा में उसकी कीमत अमूमन दो हजार रुपये होती है।
हालांकि, वियतनाम अकेला इस बला का शिकार नहीं है। लगभग सभी देश इस सामाजिक संक्रमण की चपेट में हैं। मैं इससे चिंतित होने के बजाय अपने हमवतनों से इस छोटे मुल्क की बड़ी छलांग से सीखने की आकांक्षा रखता हूं।
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