चीन ने जो ख्वाब तोड़ा है
शुक्रवार की सुबह, जब हिन्दुस्तान के बाशिंदे अलसाई आंखें झपका रहे थे, ठीक उसी समय नई दिल्ली में प्रधानमंत्री का काफिला पालम हवाई अड्डे की ओर प्रस्थान कर रहा था। शीघ्र ही उन्होंने भारत-चीन सीमा पर...
शुक्रवार की सुबह, जब हिन्दुस्तान के बाशिंदे अलसाई आंखें झपका रहे थे, ठीक उसी समय नई दिल्ली में प्रधानमंत्री का काफिला पालम हवाई अड्डे की ओर प्रस्थान कर रहा था। शीघ्र ही उन्होंने भारत-चीन सीमा पर स्थित चौकियों के लिए उड़ान भरी। नीमू स्थित सीमावर्ती पोस्ट पर उन्होंने सारी तैयारियों को खुद जांचा-परखा। थल तथा वायु सेना के साथ-साथ भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल के जवानों का हाल-चाल जाना और लेह सैनिक अस्पताल में उपचाररत सैनिकों से भी मिले। असहज समय में प्रधानमंत्री की यह कोशिश न केवल सैनिकों, बल्कि देश और दुनिया को सीधा संदेश देती है- भारत किसी दबाव के आगे झुकेगा नहीं। गलवान घाटी के हादसे के बाद देश में जैसा गम और गुस्सा है, उसे देखते हुए यह दौरा बेहद जरूरी था।
इसका असर जवानों के मनोबल अथवा राष्ट्रीय मानस पर जो पड़ा, वह अपनी जगह है, मगर चीन ने भी इसे पूरी गंभीरता से लिया। प्रधानमंत्री अभी लेह में ही थे कि बीजिंग में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बयान दे डाला कि सीमा मामले को हल करने के लिए दोनों देशों में बातचीत जारी है। ऐसे में, किसी को भी ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए कि हालात फिर से बिगड़ उठें। क्या चीन रक्षात्मक हो चला है या हमें नसीहत दे रहा है? वे जो सोचना चाहें, सोचें। पर प्रधानमंत्री का यह दौरा बिना लाग-लपेट बहुत कुछ कह जाता है। भारत का यह रुख चीन की महत्वाकांक्षाओं का रास्ता रोकने वाला साबित हो सकता है। पहले से ही उसने दुनिया के तमाम ताकतवर देशों से अनबन कर रखी है, ऐसे में हाथी से टकराव ड्रैगन की महत्वाकांक्षाओं को चोटिल कर सकता है।
यहां मैं ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन का वक्तव्य पेश करने की इजाजत चाहूंगा। उन्होंने इस दशक के राष्ट्रीय रक्षा खर्च में 40 फीसदी बढ़ोतरी करते हुए कहा कि हम 1930 के हालात की ओर बढ़ रहे हैं। क्या हुआ था 1930 में? हम सब जानते हैं कि वह अमेरिका से उपजी विकराल मंदी के दिन थे। इसकी ओट में दूसरा विश्व युद्ध छिपा हुआ था। मैं यह कतई नहीं कह रहा कि हम तीसरे महायुद्ध की ओर बढ़ रहे हैं, पर यह सच है कि चीन की आक्रामक महत्वाकांक्षाओं ने दुनिया की कूटनीति को उलट-पुलटकर रख दिया है। भारत, ताइवान, वियतनाम और जापान से तो उसके हमेशा खट्टे-मीठे रिश्ते रहे हैं और ऑस्ट्रेलिया ऐसा देश है, जो कदापि युद्ध-पिपासु नहीं है, फिर भी उसे चीन से इतनी आशंका? चीन के अति-अभिलाषी नेता शी जिनपिंग ने जिस उद्धत राष्ट्रवाद को अपनाया है, वह खुद उनके देश के लिए भी अच्छा नहीं है। कुछ दिनों पहले तक कनाडा, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, और जर्मनी सहित तमाम देश अमेरिका के साथ चीन से भी बराबर की दोस्ती बनाने में रुचिशील थे, पर हालात ने तेजी से पलटा खाया है।
हांगकांग और शिंजियांग के दमन, कोविड-19 और उसकी सागर-नीति की वजह से दुनिया बीजिंग के प्रति शंकालु हो चली है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने पिछले दिनों अपनी संसद में बाकायदा चीन के खिलाफ बयान दिया और हांगकांग के आंदोलनरत नागरिकों के साथ एकजुटता दिखाई। उन्होंने तो हांगकांग के 30 लाख लोगों को ब्रिटिश नागरिकता देने तक का प्रस्ताव किया है। उधर अमेरिका ने भी हांगकांग के मसले पर चीन की नकेल कसने वाला एक विधेयक पारित किया है। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में सर्वसम्मति से पास ‘हांगकांग ऑटोनॉमी ऐक्ट’के जरिए उन बैंकों पर भारी जुर्माना व प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है, जो हांगकांग में लोकतंत्र समर्थकों के दमन में शामिल अफसरों के साथ कोई ‘बिजनेस’करेंगे। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल इससे पहले ही बीजिंग को चेता चुकी थीं। फ्रांस और जापान ने भी गलवान की घटना के बाद भारत के प्रति समर्थन जाहिर किया है। कनाडा के जस्टिन ट्रूडो बीजिंग के समर्थक माने जाते हैं, पर देश में उनके खिलाफ वातावरण बनने लगा है। जो कनाडाई पहले चीन को उभरती हुई महाशक्ति मानते थे, वे भी उसके रवैये से हतप्रभ हैं। एक सर्वे में वहां चीन की लोकप्रियता में 20 फीसदी से अधिक की गिरावट दिखाई गई है।
जो लोग सोचते हैं कि चीन बहुत ताकतवर बन गया है, उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि चीनी आबादी आज भी आम अमेरिकी नागरिक के मुकाबले 55 फीसदी कम औसत आय पर बसर कर रही है। जो लोग इस देश की भौतिक समृद्धि की तुलना अमेरिका से करते हैं, उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि अमेरिका इतना खुला देश है कि वहां पुलिस का एक आला अधिकारी अपने राष्ट्रपति को मुंह बंद करने की नसीहत सार्वजनिक तौर पर दे सकता है, जबकि चीन में बंद कमरे की असहमति भी जानलेवा साबित हो सकती है। इसके बावजूद नई पीढ़ी शी जिनपिंग से कई मुद्दों पर जवाबदेही चाहती है। घबराए शी उन्हें भटकाने के लिए सीमाएं गरमा रहे हैं, ताकि ध्यान बंटाया जा सके और जरूरत पड़ने पर विरोधियों पर प्रहार किया जा सके। तानाशाहों का यह पुराना टोटका है।
अब आते हैं चीन की कंपनियों पर। यह सोचना गलत है कि 5जी से संपन्न हुआवेई अथवा अन्य चीनी कॉरपोरेट सरकार की मदद से रियायतें बांटकर हमेशा प्रतिस्पद्र्धा में बने रहेंगे। हुआवेई और चीन में बने साजो-सामान पर शक की नजरें उठने लगी हैं। इस बदली हुई दुनिया में, जहां डाटा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, चीनी डिजिटल कंपनियां आपके डाटा से अपना कैसा हित साध रही हैं, इसका खुलासा अभी बाकी है। भारत ने इसी तर्क के आधार पर 59 चीनी एप प्रतिबंधित किए हैं। चीन की कंपनियां कई ठेकों से भी वंचित हो गई हैं। अगर यह सिलसिला धरती के कुछ और हिस्सों में जोर पकड़ता है, तो यकीनन बीजिंग को अपनी नीति पर पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पडे़गा।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस घेरेबंदी को एक आंदोलन बनाना चाहते हैं। अगले चुनाव में उन्हें चुनौती देने जा रहे जो बिडेन भी इसी नीति का वादा कर रहे हैं। निहितार्थ साफ है कि एक तरफ ताकतवर पश्चिमी देश व एशिया में चीन से सशंकित देश होंगे और दूसरी तरफ, उससे उपकृत लातिन अमेरिकी, अफ्रीकी, छोटे एशियाई व पूर्वी यूरोप के देश। यह स्थिति तब बनेगी, जब चीन रूस के साथ मिलकर दूसरे शीतयुद्ध की प्रस्तावना मजबूती से लिख सके। हालांकि बहुत से विशेषज्ञ इसको दूर की कौड़ी मानते हैं।
कल जो भी हो, पर एक बात तो अभी ही निश्चित है कि चीन ने अपने हिंसक रवैये से मानव इतिहास के एक शानदार अध्याय के पुनर्लेखन पर पूर्ण-विराम लगा दिया है। यह एक जाना-बूझा तथ्य है कि पहली शताब्दी ईस्वी से 1820 तक भारत और चीन संसार की लगभग आधी जीडीपी पर काबिज थे। ये दोनों देश मिलकर अतीत की उस शान को फिर से साकार कर सकते थे, मगर अतिक्रमणवादी चीन ने इस हसीन ख्वाब पर फिलहाल पानी फेर दिया है।
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