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कोरोना डायरी 2: अभिशाप के चलते-फिरते शिकार

23 मार्च 2020, रात्रि-01 बजे नींद नदारद है। रात 10.30 से पहले बत्ती बुझा दी थी। सोचा था, आँख लग जाएगी पर नहीं। खबरों के मौसम में मैं उत्तेजित हो उठता हूं। समाचारों की बारिश मुझे उत्तप्त करती...

Amit Gupta शशि शेखर , नई दिल्लीSat, 28 March 2020 04:43 PM
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कोरोना डायरी 2: अभिशाप के चलते-फिरते शिकार

23 मार्च 2020, रात्रि-01 बजे

नींद नदारद है। रात 10.30 से पहले बत्ती बुझा दी थी। सोचा था, आँख लग जाएगी पर नहीं। खबरों के मौसम में मैं उत्तेजित हो उठता हूं। समाचारों की बारिश मुझे उत्तप्त करती है और गुज़र जाने के बाद इंतेहा का सुकून भी यही देती है। आज की रात तो ऐसे ही कटनी भी थी। खबरें बदल रही हैं, खबरें बरस रही हैं। अंधेरा होते वक़्त देश के 75 जिलों में लॉकडाउन था, अब यह आँकड़ा 343 तक जा पहुँचा है। इतनी तेज़ी से तो कोरोना के मरीज़ों की आधिकारिक संख्या भी नहीं बढ़ी।

पुरानी कहावत है- सौ दवा से एक परहेज़ भला। भारत उसी राह पर चल पड़ा है। नतीजतन, सब ठप पड़ गया है। जागने से पहले देहरी पर अख़बार डालने वाले दोस्त हॉकर से लेकर देर रात ‘गुड नाइट’ बोलने वाले द्वारपाल तक कोई नदारद है, तो किसी का चित्त उखड़ गया है। सन्नाटा पांव पसार रहा है। नज़दीक हाइवे पर कुछ ट्रक कभी हुंकार भरते सुनाई पड़ते हैं पर वे भी कुछ इस अंदाज में चल रहे हैं, मानो नीरवता की किसी महानदी में प्रवेश कर गए हों। जैसे जहाज आगे से पानी चीरता है पर पीछे से जल अपनी पुरानी शक्ल अख्तियार करता चलता है, वैसे ही इनकी आवाजें दम तोड़ने के लिए ही उपज रही हैं। वे भी संख्या में बहुत कम हैं। वजह? सिर्फ आवश्यक वस्तुओं को लाने, ले जाने वाले वाहनों को सड़क पर उतरने की इजाजत है। दो दिन पहले तक खिड़की खोलने पर ऐसा लगता था, जैसे ध्वनि का महासागर हिलोरें मार रहा है। एक के पीछे एक, इतनी गाड़ियां दौड़ रही होतीं कि उनके शोर तक में तारतम्यता बन जाती। शुरुआती दिनों में ऐसा लगता था, जैसे कोई वाद्ययंत्र अहर्निश गूं-गूं कर रहा है।

सरकार कहती है कि खुद को काट और बांध लेने में ही बचाव है। इंसान ने अपने लिए जो ताना-बाना बुना है, वो आज भी कितना खोखला है? एक छोटे से वायरस ने एटम बमों के जोर पर इठलाती दुनिया को चित्त करके रख दिया है। कुछ दिनों पहले तक बब्बर शेर की तरह गर्वोक्ति भर रहे डोनॉल्ड ट्रम्प किसी बकरे की तरह गर्दन नीची करके मितियाते नजर आते हैं। इन्होंने ही ईरान को धमकी दी थी कि हमने ऐसे विनाशकारी हथियारों को ईजाद कर रखा है जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। अगर ईरान ने अगला हमला किया, तो हम उसे तहस-नहस कर देंगे। कोरोना के एक वार ने अमेरिका और ईरान को समान पंक्ति में ला खड़ा किया है। रात का आखिरी पहर आने वाला है। सुबह को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं रात सोया था या नहीं। अखबार का काम नौ बजे से ही शुरू होना है तो होगा। फिर बेटी को अस्पताल छोड़ने भी जाना है क्योंकि ड्राइवर को छुट्टी दे दी है।

सुबह 9.20 बजे।

बेटी को अस्पताल छोड़ने जा रहा हूं। नोएडा से ग्रेटर नोएडा की सड़क कल जैसी अलसाई हुई पड़ी है। 9-10 किलोमीटर की यात्रा में कुल तीन कारें, चार मोटर साइकिलें और एक टैम्पो मिले। खुशी की बात है कि ‘लॉकडाउन’ को जनता ने स्वीकर किया है। मैंने वो दिन भी देखे हैं जब कफ्र्यू के लिए लोगों पर बेरहमी से डंडे बरसाने पड़ते थे। पर देश के अन्य भागों में सिरफिरे इसे मानने को तैयार नहीं। पंजाब में तो कफ्र्यू लगाना पड़ गया। यह सिलसिला जोर पकड़ सकता है। अस्पताल में भी रोजमर्रा के मुकाबले कम भीड़ है। ये अस्पताल वही है जहां गौतमबुद्ध नगर जिले का सबसे बड़ा ‘आइसोलेशन सेंटर’ बनाया गया है। इस वक्त यहां आठ मरीज कोरोना से जंग लड़ रहे हैं।

मध्याह्न-12.20 बजे।

अभी सारे प्रादेशिक संपादकों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में दर्दनाक तस्वीर उभरकर सामने आई। ट्रेन से जो लोग विभिन्न स्थानों पर उतरे उनके गंतव्य तक जाने के लिए वाहनों की व्यवस्था करना राज्य सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बन गया था। दिल्ली के कश्मीरी गेट, सराय कालेखां और आनंद विहार बस अड्डों पर भीड़ लगी है। गाजियाबाद हाई-वे पर भी बहुत से लोग सिर पर सामान रखे डगमग-डगमग चले जा रहे हैं। ये भारत माता की वो संतानें हैं, जो अपने देश को ‘प्रोडक्टिव मेन पावर’ का धनी बनाती हैं पर मुफलिसी उन्हें चारों ओर से घेरे रहती है। आगरा हाईवे पर सुबह बच्चे, बूढ़े, औरतें तक बेबस थे। धूप चढ़ रही थी। इनके सिर पर छत, पीने को पानी, खाने को दाना- कुछ न था। ये अपने देश के जलावतन हैं। वक्त उन्हें हर रोज बेआबरू करता है। ये बदनसीब किसी तरह जब अपने गांव-घर पहुंच भी जाएंगे, तो उन्हें स्वागत की बजाय तिरस्कार मिलेगा। खबरें मिल रही हैं कि उनके मूल स्थानों पर अपने ही इनका बहिष्कार कर रहे हैं। वे पुलिस से आग्रह कर रहे हैं कि इन्हें पकड़कर ले जाइए, ये कोरोना फैला देंगे।उन शंकालुओं की शंका नाजायज नहीं है। दर्जनों की संख्या में ऐसे लोग हैं जिनकी मुट्ठियों पर ‘सेल्फ क्वारंटाइन’ की मोहर लगी थी पर वे ट्रेन या बसों से चंपत हो गए हैं। एक तरफ वे करोड़ों लोग हैं, जो ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के निर्देशों का पालन कर रहे हैं और दूसरी तरफ ये चंद सिरफिरे! ऐसी गैर-जिम्मेदाराना हरकत करते वक्त वे कैसे भूल जाते हैं कि एक व्यक्ति कई दर्जन लोगों को कोरोना का अभिशाप सौंप सकता है?

हमारे चारों ओर मानव बम घूम रहे हैं। पता नहीं कब हम खुद इस अभिशाप के चलते-फिरते शिकार बन जाएं?

क्रमश:

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