Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan opinion column 19 February 2025

चुनाव आयुक्तों के चयन से जुड़ी चिंताएं

  • नव नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार पदभार संभालने से पहले ही सवालों में घिर गए हैं। नियुक्ति-प्रक्रिया से जुडे़ ये सवाल उनकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता को संदेहास्पद बनाने वाले हैं। ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति…

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानTue, 18 Feb 2025 11:35 PM
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चुनाव आयुक्तों के चयन से जुड़ी चिंताएं

राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

नव नियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार पदभार संभालने से पहले ही सवालों में घिर गए हैं। नियुक्ति-प्रक्रिया से जुडे़ ये सवाल उनकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता को संदेहास्पद बनाने वाले हैं। ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति नए कानून के मुताबिक 17 फरवरी को हुई। हरियाणा के मुख्य सचिव विवेक जोशी भी नए चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए हैं। बड़ा सवाल तो विपक्ष यही उठा रहा है कि जब नियुक्ति से जुडे़ नए कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में 19 फरवरी को सुनवाई है, तब इस नियुक्ति की जल्दबाजी क्यों? 17 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नामित कैबिनेट मंत्री अमित शाह के साथ बैठक में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी इसी तर्क के साथ अपनी असहमति की टिप्पणी देकर निकल भी गए थे। फिर भी, ज्ञानेश कुमार को नया मुख्य चुनाव आयुक्त बनाने की अधिसूचना जारी कर दी गई।

एक संयोग यह भी है कि चुनाव आयुक्त के रूप में भी ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह संधू की नियुक्ति 14 मार्च, 2024 को अचानक कर दी गई थी। निवर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार के साथ चुनाव आयुक्त रहे अनूप चंद्र पांडेय 14 फरवरी को रिटायर हो चुके थे, तो लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले 9 मार्च को दूसरे चुनाव आयुक्त अरुण गोयल ने अचानक इस्तीफा दे दिया। तब सवाल पूछा जा रहा था कि क्या अकेले राजीव कुमार लोकसभा चुनाव करा सकेंगे?

याद नहीं पड़ता कि टीएन शेषन के बाद किसी चुनाव आयुक्त या मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल निर्विवाद गुजरा हो। एक अनुशासित नौकरशाह की छवि वाले शेषन अपनी सख्ती से तमाम राजनीतिक दलों के लिए आतंक-सा बन गए थे। बेशक, देश भर में शेषन की साख और जनता के बीच भी सम्मान, उसके बाद चुनाव आयोग के लिए बेहद कठिन कसौटी बन गए हैं। यह स्वाभाविक तो है, पर सवाल भी पैदा करता है कि चुनाव आयोग की स्वतंत्रता व निष्पक्षता पर सवाल और संदेह हमेशा विपक्ष की ओर से ही उठते हैं, जबकि सत्ता पक्ष को वह आदर्श संस्था नजर आता है। आज कांग्रेस चुनाव आयोग की साख को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित नजर आती है, लेकिन राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही चुनाव आयोग को एक से तीन सदस्यीय बना दिया गया था, ताकि अंकुश और संतुलन की गुंजाइश बनी रहे।

दरअसल, चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्तों की संख्या को लेकर संविधान मौन है। संविधान का अनुच्छेद 324 (2) कहता है कि चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त हो सकते हैं, जिनकी संख्या राष्ट्रपति पर निर्भर करेगी। इसलिए, आजादी के बाद देश में सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त ही रहे। नौवीं लोकसभा के चुनाव से पहले 16 अक्तूबर, 1989 को राजीव गांधी सरकार ने दो और चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिए, जिससे आयोग बहु-सदस्यीय संस्था बन गया। तब विपक्ष ने आरोप लगाया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरीशास्त्री पर अंकुश लगाने के लिए ऐसा किया गया।

सांविधानिक संस्था चुनाव आयोग से सत्ता का खिलवाड़ आगे भी जारी रहा। केंद्र में सत्ता परिवर्तन के साथ व्यवस्था फिर बदली। 2 जनवरी, 1990 को विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने चुनाव आयोग को फिर एक सदस्यीय बना दिया। फिर जब 1991 में पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता में वापसी हुई, तो 1 अक्तूबर, 1993 को मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो चुनाव आयुक्त नियुक्त कर चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया गया। शायद बहु-सदस्यीय चुनाव आयोग बाद की सरकारों को भी उचित लगा, इसलिए यह व्यवस्था जारी है।

ज्ञानेश कुमार को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय में लंबित सुनवाई के अलावा,सरकार से उनकी निकटता के चलते भी सवाल उठाए जा रहे हैं। चुनाव आयुक्त सुखबीर सिंह संधू पर भी उत्तराखंड कैडर के चलते सवाल उठाए जाते रहे हैं, तो अब नियुक्त दूसरे चुनाव आयुक्त विवेक जोशी को भी सरकार का विश्वस्त माना जाता है। वैसे, एक दिलचस्प आकलन यह भी है कि साल 2029 में होने वाले अगले लोकसभा चुनाव के समय विवेक जोशी मुख्य चुनाव आयुक्त होंगे, क्योंकि ज्ञानेश कुमार 27 जनवरी, 2029 को सेवानिवृत्त हो जाएंगे।

ठीक इसी तरह की गणना को लेकर सवाल भारतीय जनता पार्टी ने तब उठाए थे, जब 2005 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने नवीन चावला को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया था। चावला के मुख्य चुनाव आयुक्त काल में ही साल 2009 के आम चुनाव हुए। उन पर, खासकर पत्नी रुपिका की कांग्रेस से निकटता को लेकर सवाल उठाए गए थे। और अतीत में झांकें, तो शेषन की सेवानिवृत्ति के बाद 1996 से 2001 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे मनोहर सिंह गिल को कांग्रेस ने न सिर्फ राज्यसभा सदस्य, बल्कि मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री भी बनाया। जाहिर है, चुनाव आयोग सरीखी सांविधानिक संस्था में अपने अनुकूल व्यक्तियों की नियुक्ति में संकोच किसी भी सत्तारूढ़ दल ने कभी नहीं किया, पर जब वही दल विपक्ष की भूमिका में आता है, तो उसे आयोग की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की चिंता सताने लगती है।

इस सांविधानिक संस्था में नियुक्ति की बाबत सात दशक तक किसी कानून का न होना भी सवाल खड़े करता है। कानून न होने के चलते सत्तारूढ़ दल पसंदीदा नौकरशाहों को चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त बनाते रहे, जिनका आचरण अक्सर सवालों व संदेह के दायरे में रहा, इसीलिए यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 2 मार्च, 2023 को दिए फैसले में कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति तब तक प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और प्रधान न्यायाधीश का पैनल करेगा, जब तक कि इस बाबत संसद कोई कानून नहीं बना लेती। संसद ने वह काम 21 दिसंबर, 2023 को कर दिया। संसद द्वारा बनाए गए कानून में नियुक्ति पैनल से प्रधान न्यायाधीश को बाहर करते हुए प्रधानमंत्री द्वारा नामित कैबिनेट मंत्री को शामिल किया गया है। विपक्ष समेत कुछ संगठनों की मुख्य आपत्ति यही है कि पैनल में सत्ता पक्ष के बहुमत से फिर नियुक्ति-प्रक्रिया संदेहास्पद हो गई है।

बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम में सबके अपने-अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन साझा चिंता चुनाव आयोग की विश्वसनीयता की होनी चाहिए, जिसके बिना चुनाव-प्रक्रिया पर सवाल और संदेह से नहीं बचा जा सकता।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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