नए चावल, तिल और गुड़ की मीठी महक का मौसम
नए साल के आगमन के साथ ही अपने देश में उत्सव शुरू हो जाते हैं। शुरुआत मकर संक्रांति से होती है। प्राचीन हिंदू कैलेंडर के अनुसार, यह वह समय है, जब सूर्य 12 राशियों में से एक मकर राशि में प्रवेश करता है…
रविशंकर उपाध्याय, व्यंजन विशेषज्ञ
नए साल के आगमन के साथ ही अपने देश में उत्सव शुरू हो जाते हैं। शुरुआत मकर संक्रांति से होती है। प्राचीन हिंदू कैलेंडर के अनुसार, यह वह समय है, जब सूर्य 12 राशियों में से एक मकर राशि में प्रवेश करता है। चूंकि मौसम में उतार-चढ़ाव बना रहता है, इसलिए तिल या इससे बने व्यंजन हमारे खान-पान में शामिल किए जाते हैं। इन दिनों धान की नई फसल भी घर में आती है, जिसका न सिर्फ चावल बनता है, बल्कि पोहा (चिवड़ा) भी बनता है।
वास्तव में, उत्तर-पूर्वोत्तर से लेकर मध्य व दक्षिण भारत में जिन अनाजों पर शुरुआती व विविध प्रयोग हुए, उनमें पोहा एक है। इसके तरह-तरह के प्रयोग बिहार-झारखंड और उनसे सटे पश्चिम बंगाल के साथ ही उत्तर प्रदेश व नेपाल में खूब देखने को मिलते हैं। जहां बिहार-झारखंड और बंगाल में लोग इन दिनों, विशेषकर मकर संक्रांति के दिन अपने इष्ट देव को चिवड़ा-दही, गुड़ व तिल से बने व्यंजनों का भोग लगाते हैं, वहीं तमिलनाडु में लोग कृषि देवता के प्रति कृतज्ञता दर्शाने के लिए नई फसल के चावल और तिल के भोज्य पदार्थ से विधिपूर्वक पोंगल मनाते हैं। बिहार के मिथिला क्षेत्र में तो दही-चिवड़ा सदियों से भोजन-परंपरा का अहम हिस्सा रहा है। रामचरितमानस में इसके स्वाद की विशिष्टता का उल्लेख हुआ है। बालकांड में दही-चिवड़ा का उल्लेख करते हुए गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं- मंगल सगुन सुगंध सुहाए, बहुत भांति महिपाल पठाए।। दधि चिउरा उपहार अपारा, भरि भरि कांवरि चले कहारा।। यह राम-विवाह का वह प्रसंग है, जब भगवान राम की बारात अयोध्या से चलती है, तो राजा जनक ने रास्ते में बारातियों के लिए बहुत प्रकार के सुगंधित और सुहावने मंगल द्रव्य और सगुन पदार्थ भेजे, जिसमें दही-चिवड़ा भी एक था।
तिल और तिल से बने व्यंजनों का सर्दियों से बहुत गहरा ताल्लुक है। चूंकि तिल अपनी प्रकृति में तीखा, मधुर, भारी, स्निग्ध, गर्म तासीर का, कफ व पित्त को कम करने वाला और बलदायक होता है, इसलिए मकर संक्रांति में इसके दान और पान (अर्थात भोजन के रूप में ग्रहण) का विशेष महत्व होता है। उपनिषदों में मगध में उपजाई जाने वाली दस फसलों में चावल, गेहूं, जौ, तिल, मसूर, कुल्थी आदि का जिक्र है। उत्तर वैदिक काल में भी तिलहन में तिल, रेड़ी और सरसों का जिक्र है। माना जाता है कि यह पहला बीज है, जिससे तेल निकाला गया, इसीलिए इसका नाम संस्कृति में तैल पड़ा। तैल, यानी तिल से निकाला हुआ। हिंदी में यही तेल हो गया। तिल का इतना महत्व है कि पूरे तिलहन का नाम इसी पर आधारित है। अथर्ववेद में तिल के दैनिक सेवन के साथ आध्यात्मिक प्रयोग का वर्णन भी मिलता है। तिल हवन में प्रयोग में आता है, तो तर्पण में भी। मकर संक्रांति में तिल का दान करने की परंपरा इसी वजह से रही है, ताकि धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक रीतियों में भी सभी तिल की महत्ता से परिचित हों। बिहार में गया तो एक तरह से तिल से बने व्यंजनों का स्थापित शहर बन गया है। वैसे, इसके पौराणिक कारण भी हैं। गयाजी में चावल और तिल का दान तर्पण के मध्य किया जाता है। इसी शहर में तिल पर कई प्रयोग करके तिलकुट, तिलपापड़ी और तिलछड़ी जैसे व्यंजन शताब्दियों पूर्व बनाए गए हैं। महर्षि पाणिनी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अष्टाध्यायी में पलल नामक सुस्वादु मिष्ठान्न का जिक्र किया है, जिसके बारे में उन्होंने लिखा है कि इसे तिल का चूर्ण, शर्करा या गुड़ मिलाकर बनाया जाता है। प्राचीन मगध में इसका पर्याप्त प्रचार रहा होगा, तभी तो आज भी गया के तिलकुट की शान विदेश तक है। ये व्यंजन यहां के लोगों के लिए रोजगार के बड़े आधार भी है।
बहरहाल, इन दिनों उत्तर प्रदेश, दिल्ली में नए चावल के साथ दाल मिलाकर विशेष तौर पर खिचड़ी बनाई जाती है। यह मौसम के साथ खान-पान के सामंजस्य का भी द्योतक है। माना जाता है कि चूंकि चावल की तासीर ठंडी होती है और दाल की गरम। इसलिए, जिस तरह इस समय गरमी और ठंड का आना-जाना लगा रहता है, ठीक उसी तरह का समायोजन आहार में भी किया जाता है, ताकि बदलते मौसम का स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव न पड़े। इन दिनों उत्तराखंड में तो आटे और गुड़ का प्रयोग कर ‘घुघुतिया’ व्यंजन भी बनाया जाता है। कुल मिलाकर, यह समय ठंड के साथ-साथ विविध तरह के पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद लेने का भी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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