रैगिंग का रोग
- गुजरात में पाटन जिले के जीएमईआरएस मेडिकल कॉलेज के प्रथम वर्ष के छात्र अनिल मेथानिया की कथित रैगिंग से हुई मौत दर्दनाक तो है ही, शर्मसार करने वाली भी है। आखिर रैगिंग पर पाबंदी के बाद भी ऐसी घटनाएं कैसे घट जा रही हैं…
गुजरात में पाटन जिले के जीएमईआरएस मेडिकल कॉलेज के प्रथम वर्ष के छात्र अनिल मेथानिया की कथित रैगिंग से हुई मौत दर्दनाक तो है ही, शर्मसार करने वाली भी है। आखिर रैगिंग पर पाबंदी के बाद भी ऐसी घटनाएं कैसे घट जा रही हैं? पिछले दो वर्षों में अकेले गुजरात में रैगिंग की आठ घटनाएं सामने आ चुकी हैं। अभी तीन दिन पहले इंदौर के एमजीएम मेडिकल कॉलेज का एक वाकया सामने आया था, जिसमें पीजी छात्र अभिषेक मसीह ने लगातार रैगिंग की वजह से अपनी सीट छोड़ने का फैसला किया, मगर कॉलेज प्रबंधन ने अभिषेक के साथ संवेदनशील व्यवहार करने और उसे इंसाफ दिलाने के बजाय उसके मूल प्रमाणपत्र लौटाने से ही इनकार कर दिया और इसके लिए उससे पहले 30 लाख रुपये की बॉन्ड राशि चुकाने की मांग कर डाली। अंतत: अभिषेक को हाईकोर्ट की शरण लेनी पड़ी, जहां से उसे राहत मिली। अदालत ने कॉलेज डीन को न सिर्फ फौरन दस्तावेज लौटाने का आदेश दिया, बल्कि अपनी कार्रवाई के संबंध में बाकायदा अदालत को सूचित करने की हिदायत भी दी।
अठारह साल के अनिल मेथानिया ने तो महज एक महीने पहले दाखिला लिया था। खबरों के मुताबिक, सीनियर छात्रों ने तीन घंटे तक उसे खड़ा रखा और फिर डांस करने को मजबूर किया, जिसके बाद वह बेहोश होकर गिर पड़ा और थोड़ी देर में ही उसकी मृत्यु हो गई। अब 15 सीनियर मेडिकल छात्रों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, बल्कि उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया है और कॉलेज ने उन सबको सस्पेंड भी कर दिया है। निस्संदेह, दोषी छात्रों के खिलाफ कार्रवाई हो, मगर कॉलेज प्रबंधन को क्यों बख्शा जाना चाहिए? अनिल को मौत के मुंह में धकेलने का जिम्मेदार कॉलेज प्रबंधन भी कम नहीं है। आखिर कॉलेज में रैगिंग जारी है, इस बात से प्रबंधन कैसे गाफिल रहा? बताया जा रहा है कि सभी आरोपी एमबीबीएस द्वितीय वर्ष के छात्र हैं। यह जीएमईआरएस कॉलेज प्रबंधन की बड़ी नाकामी है कि वह इतने दिनों में इन नौजवानों को मानवीयता का बुनियादी पाठ भी न पढ़ा सकी। इसलिए जिम्मेदारी सिर्फ आरोपी छात्रों की नहीं, बल्कि कॉलेज प्रशासन के संबंधित ओहदेदारों की भी तय होनी चाहिए।
रैगिंग से होने वाली मौतों व हत्याओं ने अब तक न जाने कितने घरों के दीपक बुझा दिए हैं और अनिल की मौत बता रही है कि इस सिलसिले को तोड़ना अब कितना जरूरी हो गया है। यह बताने की जरूरत नहीं कि कितने परिश्रम के बाद एक किशोर एमबीबीएस की परीक्षा पास करता है। फिर उसके सपने यूं खत्म हो जाएं, तो यह सिर्फ उसका व उसके परिवार का नुकसान नहीं, बल्कि समूचे देश का घाटा है। खासकर तब, जब हमें ज्यादा से ज्यादा डॉक्टरों की दरकार है, ताकि अपने नागरिकों को स्तरीय चिकित्सा सेवा मुहैया करा सकें। वैसे तो रैगिंग कहीं पर, किसी भी रूप में अवैधानिक है, फिर मेडिकल कॉलेजों में तो यह कहीं ज्यादा बड़ा गुनाह है। आखिर जिन डॉक्टरों में हम ईश्वर का दूसरा अक्स देखते हैं, वे साल-दो साल की पढ़ाई के बाद भी इतने संवेदनहीन कैसे बने रहते हैं कि अपने ही जूनियर साथी की जिंदगी से खेल जाते हैं? ऐसे डॉक्टर डिग्री लेकर मरीजों की, खासकर हाशिये के रोगियों की किस संवेदनशीलता से इलाज करेंगे? रैगिंग के खिलाफ एक राष्ट्रीय अभियान की त्वरित आवश्यकता है, ताकि अनिल जैसी कीमती प्रतिभाएं यूं न मारी जाएं।
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