Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan editorial column 11 January 2025

काम के घंटे

  • निजी क्षेत्र के एक दिग्गज अधिकारी ने सप्ताह में 90 घंटे काम करने की जो बात कही है, उस पर हंगामा होना स्वाभाविक है। एलऐंडटी के चेयरमैन एस एन सुब्रमण्यन अगर लोगों से सप्ताह में 90 घंटे काम करने के लिए कह रहे हैं…

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानFri, 10 Jan 2025 10:50 PM
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निजी क्षेत्र के एक दिग्गज अधिकारी ने सप्ताह में 90 घंटे काम करने की जो बात कही है, उस पर हंगामा होना स्वाभाविक है। एलऐंडटी के चेयरमैन एस एन सुब्रमण्यन अगर लोगों से सप्ताह में 90 घंटे काम करने के लिए कह रहे हैं, तो इन्फोसिस के नारायण मूर्ति प्रतिदिन 14 घंटे और सप्ताह में साढ़े छह दिन काम करने की वकालत करते रहे हैं। दोनों उद्यमी-महाप्रबंधकों के कामकाज की प्रशंसा होनी चाहिए, दोनों ही उद्यमशीलता की मिसाल हैं, लेकिन शायद यह भूल जा रहे हैं कि सबकी कार्य क्षमता समान नहीं होती है और सबका वेतन भी संतोषजनक नहीं होता है। अगर हम अनुमान लगाएं, तो औसत भारतीय की मासिक कमाई 20,000 रुपये भी नहीं है। प्रश्न यह है कि इतनी कम औसत कमाई पर 15 घंटे काम करने की मांग कौन कर रहा है? जिस व्यक्ति की तनख्वाह चार करोड़ रुपये मासिक है, वह बहुत शिक्षित-प्रशिक्षित भी है और उसे यह अवश्य निर्दिष्ट करना चाहिए कि वह 90 घंटे काम लेने की उम्मीद किससे कर रहा है? जाहिर है, सुब्रमण्यन आलोचना के निशाने पर आ गए हैं।

अफसोस, उन्होंने यह भी कहा है कि ‘मुझे खेद है, मैं आपसे रविवार को काम नहीं करवा पा रहा हूं। अगर मैं आपसे रविवार को काम करवा सकूं, तो मुझे अधिक खुशी होगी।’ पूंजीवाद आज की जरूरत है, पर नव-पूंजीवादियों को नहीं भूलना चाहिए कि श्रमिक एक समय 18 घंटे और सातों दिन काम करते थे। लंबे आंदोलनों के बाद ही धीरे-धीरे श्रमिकों की सुविधाएं बढ़ीं, काम के घंटे घटे, पर अब वापस काम के घंटे बढ़ाने की पैरोकारी तेज होने लगी है। व्यापक नजरिये से देखना चाहिए कि क्या श्रम सुधारों का यही फल है? कोई शक नहीं कि अगर कुशलता या हुनर हो, तो ज्यादा परिश्रम से ज्यादा धन अर्जित किया जा सकता है। जीवन में बड़ी सफलता अर्जित करने वाली और झोंपड़ी से महल में पहुंचने वाली बहुत सी हस्तियों ने खूब-खूब घंटे काम करके ही बुलंदियों को छुआ है। यह सामान्य बात सभी को पता है। हां, लोगों को ज्यादा काम के लिए अवश्य प्रेरित करना चाहिए, लेकिन प्रेरित करने की अलग भाषा और अलग ढंग होना चाहिए। पूंजी और श्रम के इतिहास को भूलना कतई सराहनीय नहीं है। साथ ही, यह भी देखना चाहिए कि ऐसी कोई भी सलाह क्या केवल निजी क्षेत्र के लिए होती है? क्या निजी क्षेत्र में ऐसी सलाहों या अपेक्षाओं के चलते ही सरकारी नौकरी पाने के लिए होड़ लग जाती है?

यह एक ऐसा विषय है, जो पूरी संवेदना के साथ विचार की मांग करता है। श्रम से जुड़े नियम-कायदे सर्वोच्च योग्यता को देखकर नहीं, बल्कि औसत योग्यता को देखकर ही बनाए जाते हैं। जब उद्योग-दर-उद्योग और सरकारी महकमों में भी रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने की वाजिब कवायद आगे बढ़ चली है, तब काम के घंटों की चर्चा में मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य की चिंता भी अवश्य शामिल होनी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है कि एक विकसित राष्ट्र बनने के लिए निजी क्षेत्र में ऐसे युवाओं की जरूरत पड़ेगी, जो दिलोजान से मेहनत और नवाचार करेंगे, जिससे देश में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर बनेंगे। निजी क्षेत्र यह भी उम्मीद करेगा कि सार्वजनिक क्षेत्र भी अपनी मेहनत-लगन से मिसाल गढ़े। बहरहाल, सुब्रमण्यन या नारायण मूर्ति जैसे दिग्गजों पर विश्व स्तरीय गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा का जो दबाव है, उसे भी ध्यान में रखकर हमें आगे बढ़ना चाहिए।

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