संविधान महज एक पोथी नहीं
- उम्मीद है, संविधान के प्रति राय कायम करते वक्त आप उन घटनाक्रमों का ध्यान रखेंगे। गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर हमें अपने उन पुरखों को भी नमन करना चाहिए, जिन्होंने ऐसा संविधान रचा…
आज अपना हीरक जयंती वर्ष पूरा कर रहे भारतीय गणतंत्र के बारे में आपकी क्या राय है? अभिव्यक्ति की आजादी से संपन्न भारतीयों के एक वर्ग की दशकों पुरानी शिकायत है कि संविधान मोटी पोथी में दर्ज ऐसा लेखा-जोखा है, जिसे सत्ता और श्री संपन्न लोग मनमर्जी से उपयोग में लाते हैं। इसके उलट ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो इसे भारतीय लोक का आलोक मानते हैं।
अपनी ओर से कोई निष्कर्ष निकाले बिना मैं आपको तीन कहानियां सुनाना चाहूंगा। इन घटनाओं ने आजाद भारत की दशा-दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
आजादी, भीमराव आंबेडकर और जोगेंद्रनाथ मंडल : स्वतंत्र भारत में शायद ही कोई ऐसा अभागा होगा, जिसने डॉ भीमराव आंबेडकर का नाम न सुना हो, लेकिन कितने लोग जोगेंद्रनाथ मंडल को जानते हैं? भारत से ज्यादा उन्हें पाकिस्तान में जाना और माना जाना चाहिए था, लेकिन वहां उनका कोई नामलेवा तक नहीं। मुझे जब कोई पाकिस्तानी पत्रकार या व्यक्ति मिलता है, तो उससे मंडल के बारे में पूछना नहीं भूलता। संयोगवश आज तक एक भी पाकिस्तानी ऐसा नहीं मिला, जो उनके बारे में मामूली सी मालूमात रखता हो।
आपको भी जोगेंद्रनाथ मंडल के बारे में जरूर जानना चाहिए। मंडल का जन्म 29 जनवरी, 1904 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के बारीशाल जिले में एक नामशुद्र परिवार में हुआ था। उस समय नामशुद्रों को ‘चांडाल’ भी कहा जाता था। आंबेडकर की तरह मंडल ने भी तमाम दुश्वारियों के बावजूद उच्च शिक्षा हासिल की थी। गांव से निकलने के बाद उन्होंने पाया कि अस्पृश्यता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उनको आसानी से नष्ट नहीं किया जा सकता। इससे क्षुब्ध जोगेंद्रनाथ ने विभाजन से पहले ही पाकिस्तान में बसने का फैसला किया। उन्हें लगता था कि इस्लामी पाकिस्तान में गैर-बराबरी का कोई स्थान नहीं होगा। कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना खुद उनकी प्रतिभा के कायल थे।
यही वजह है कि 11 अगस्त, 1947 को जब जिन्ना ने पाकिस्तान के पहले गवर्नर-जनरल की हैसियत से शपथ ली, तब उन्होंने उस सत्र के सभापतित्व के लिए मंडल को चुना। आजाद भारत में अगर आंबेडकर पहले विधि मंत्री थे, तो मंडल पाकिस्तान के पहले वजीर-ए-इंसाफ होते थे।
उनके मुरीद जिन्ना सिर्फ 13 महीने की हुकूमत के बाद दुनिया से रुखसत हो गए थे। जिन्ना के गुजरते ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली ने मंडल के सार्वजनिक बयानों पर रोक लगा दी। इससे पूर्व जोगेंद्रनाथ मंडल ने फटी हुई आंखों से आठ हजार हिंदुओं का कत्लेआम देखा था। दंगाइयों के नेजे और तलवारें सवर्ण या दलित का भेद नहीं जानती थीं। पुरजोर कोशिशों के बावजूद वह पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को एक भी सांविधानिक गारंटी दिलाने में नाकामयाब रहे थे। हताश मंडल ने 8 अक्तूबर, 1950 को इस्तीफा दे दिया। आठ हजार शब्दों का उनका लंबा-चौड़ा त्यागपत्र न केवल उस वक्त के पाकिस्तान की दुर्दशा, बल्कि आने वाले दिनों की मुनादी करता है।
बाद में जोगेंद्रनाथ कलकत्ता (अब कोलकाता) लौट आए और वहीं अनाम मुफलिसी में उन्होंने 5 अक्तूबर, 1968 को आखिरी सांस ली। आज मंडल को इस उपमहाद्वीप में चंद लोग ही जानते हैं, लेकिन आंबेडकर भारत में ‘कल्ट’ के तौर पर स्थापित हो चुके हैं। यह दो व्यक्तित्वों का नहीं, बल्कि दो सहोदर देशों के कल, आज और कल का आख्यान है।
वंचितों का उत्थान : 26 जनवरी, 1950 को लागू हुए भारतीय संविधान में दलितों और आदिवासियों के लिए तमाम तरह के आरक्षणों का प्रावधान किया गया था। ऐसा इसलिए जरूरी माना गया था, क्योंकि हजारों वर्षों से उन्हें शिक्षा, सत्ता और प्रतिष्ठा से दूर रखा गया था। आगे चलकर वर्ष 1990 में पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण प्रदान किया गया। यही नहीं, नरसिंह राव के वक्त में संविधान में 73वें-74वें संशोधन के जरिये महिलाओं के लिए स्थानीय निकायों और जिला पंचायतों में आरक्षण की व्यवस्था की गई। बाद में, भोजन और शिक्षा को भी हर भारतीय नागरिक का मौलिक अधिकार बना दिया गया।
इन परिवर्तनकामी फैसलों से बड़ी संख्या में पिछड़ी आबादी को आगे बढ़ने का अवसर मिला। नतीजा सामने है। आज भारत में संसार के सर्वाधिक ग्रेजुएट हैं। ‘क्यूएस वर्ल्ड फ्यूचर स्किल्स इंडेक्स’ के अनुसार, भविष्य की नौकरियों लायक युवाओं को तैयार करने के मामले में भारत दूसरे स्थान पर है। कोई आश्चर्य नहीं, भारत 2047 तक आर्थिक महाशक्ति बनने का ख्वाब संजोए हुए है।
हर उजाले के पीछे स्याह अंधेरा भी होता है, अब उसका एक उदाहरण।
आपातकाल और उसके सबक : भारत के इतिहास में 1970 और 1980 के दशक खासे महत्वपूर्ण हैं। इस दौरान पुख्ता लोकतंत्र की तमाम रवायतें गढ़ी गईं। आपातकाल इसका पहला उदाहरण है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अपना चुनाव अवैध करार दिए जाने के बाद 25 जून, 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘इमरजेंसी’ की घोषणा कर दी थी। इस दौरान सरकारी मशीनरी ने आम आदमी पर भयंकर अत्याचार किए। हालात इस कदर बिगडे़ कि खुद इंदिरा गांधी हतप्रभ रह गईं। मजबूरी में उन्होंने 21 मार्च, 1977 को आपातकाल हटाने की घोषणा की और अगले चुनाव में इस देश की जनता ने उन्हें करारी पटकनी दे दी। यह बात अलग है कि जनता पार्टी के कुटिल और अति-महत्वाकांक्षी बुजुर्गों की अंतर्कलह ने कुछ ही महीनों में जनता के सपनों पर सवार इस सरकार का गला घोंट दिया।
इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में लौटीं, लेकिन तब तक तय हो चुका था कि अब कोई भी सरकार आपातकाल लगाने की हिम्मत नहीं करेगी। भारतीय लोकतंत्र ने तब से अब तक जबरदस्त यात्रा तय की है। हालांकि, इस दौरान कई ऐसे कारनामे भी हुए, जिन्होंने हिन्दुस्तानियों के विश्वास को डिगाया, लेकिन यह हमारे संविधान और समाज की जुगलबंदी का कमाल है कि हमारा लोकतंत्र कायम रहा।
हम भारतीयों को अपने संविधान से कितना लगाव है, इसका ताजातरीन उदाहरण मई 2024 का आम चुनाव है। प्रचार के दौरान विपक्ष ने एक स्वर में आरोप लगाया कि भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाला एनडीए संविधान में मन-मुताबिक बदलाव करना चाहता है। इसके बाद दलितों और वंचितों का आरक्षण खत्म हो जाएगा। चुनाव परिणामों पर इसका असर साफ दिखाई पड़ा। भाजपा को 63 सीटों का नुकसान हुआ। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि नरेंद्र मोदी की जगह अगर कोई और नेता होता, तो भाजपा बुरी तरह लड़खड़ा गई होती। दिल्ली की मौजूदा सरकार प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और सियासी पकड़ की उपज है।
उम्मीद है, संविधान के प्रति राय कायम करते वक्त आप इन घटनाक्रमों का ध्यान रखेंगे।
गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर हमें अपने उन पुरखों को भी नमन करना चाहिए, जिन्होंने ऐसा संविधान रचा, जो भारतीय जनमानस और जनजीवन के लिए जरूरी है। इतिहास उनके इस अवदान को कृतज्ञतापूर्वक याद रखेगा।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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