Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगhindustan aajkal column by shashi shekhar 20 oct 2024

सड़कों पर पसरता संकट

  • रोडरेज के ज्यादातर मामले तो पुलिस के रोजनामचों तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। केवल गंभीर मामलों में ही रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है। एक और बात। इस कॉलम के लिए रिसर्च करते वक्त मैंने पाया कि न केवल आंकडे़ आधे-अधूरे हैं, बल्कि बेहतरीन शोधार्थियों की भी दृष्टि इस मुद्दे पर नहीं पड़ी है…

Shashi Shekhar लाइव हिन्दुस्तानSat, 26 Oct 2024 08:14 PM
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सड़कों पर पसरता संकट

कृपया इन पंक्तियों को गौर से पढ़िए। यह किसी पुलिस थाने के रोजनामचे में दर्ज एक हादसा भर नहीं है। यह समय का वह दस्तावेज है, जो हमारी और आपकी जिंदगी में नई दुर्भाग्य-गाथा लिख रहा है।

वाकया देश की राजधानी का है। वहां हर्ष विहार इलाके में दो भाई रामलीला देखने गए थे। चारों ओर भीड़ थी। लोग खरामा-खरामा अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे। हिमांशु और अंकुर भी उन्हीं में थे। वे रामलीला स्थल पर पहुंचे ही थे कि तेज गति से आती एक बाइक उनसे टकराते-टकराते बची। बाइक पर गैर-कानूनी तौर से तीन लोग सवार थे। उन दोनों ने बाइक सवारों को धीरे चलने की हिदायत क्या दी कि कयामत बरपा हो गई।

बाइक सवारों ने चाकू निकाल लिए। उन्होंने अंकुर पर ताबड़तोड़ वार किए और हिमांशु को भी घायल कर दिया। रामलीला मैदान के समीप जिस समय यह रावणलीला आकार ले रही थी, हजारों लोगों की भीड़ थी। उम्मीद की जाती है कि ऐसे में लोग उन्हें बचाने के प्रयास करते। हमलावर कुलजमा तीन थे और उनके पास कोई घातक एके-47 या बम-गोले नहीं थे। वे बस चाकुओं से लैस थे। अगर आधा दर्जन लोग भी चाह लेते, तो एक परिवार उजड़ने से बच जाता।

ऐसा नहीं हुआ।

हत्यारे बेरहमी से अंकुर के शरीर को गोदते रहे। उसके सीने, गर्दन, पेट और जांघों पर गंभीर चोटें आईं। हिमांशु को भी चाकू से घाव लगे। इसके बावजूद वह किसी तरह अपने लहूलुहान भाई को ई-रिक्शा में लादकर पास के अस्पताल पहुंचा। तब तक अंकुर के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। आपने पहले भी ऐसे तमाम हादसों के बारे में पढ़ा-सुना होगा, जब कोई घायल हो गया अथवा किसी हमले में दम तोड़ने लगा, तो लोग उसे बचाने के बजाय वीडियो रील बनाने में मशगूल हो गए। ऐसा करने वाले भूल क्यों जाते हैं कि वे इसी समाज का हिस्सा हैं और कभी उन्हें भी संवेदना और सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है?

कल्पना करें। अगर मृतक या हत्यारों के धर्म अलग होते, तो क्या होता? कुछ बरस पहले इसी दिल्ली में एक डॉक्टर की हत्या इसी तरह के मामूली विवाद के दौरान कर दी गई थी। मारने वाले किशोर थे, परंतु उनका धर्म अलग था। कैसा हंगामा बरपा हुआ था? सोशल मीडिया के अदृश्य रंगरेज तथ्यों को मन-मुआफिक रंगत देने में जुटे पड़े थे। इस ‘धर्मयुद्ध’ में खेत क्या रहा? सिर्फ और सिर्फ रोडरेज का मुद्दा।

क्या हम एक वहशी और संवेदनहीन समाज की संरचना कर रहे हैं?

इस प्रश्न के उत्तर के लिए देश की ‘टेक कैपिटल’ मानी जाने वाली बेंगलुरु सिटी का यह वाकया सुन लीजिए। एक महाकाय कंपनी में कार्य करने वाले वरिष्ठ एग्जीक्यूटिव अपनी पत्नी और नौ महीने की बच्ची के साथ कहीं जा रहे थे। अचानक उनके सामने एक बाइक रुकती है। उस पर सवार व्यक्ति बेहद आक्रामकता के साथ उनके बोनट पर हाथ मारने लगता है। वह अवाकरह जाते हैं। उन्हें मालूम ही नहीं कि उनका कुसूर क्या है? जब तक वह माजरा समझ पाते, तब तक वह व्यक्ति गाड़ी का वाइपर नोचकर उसे शीशे पर दे मारता है। विंडस्क्रीन चटक जाती है, लेकिन वह रुकता नहीं। गाड़ी की अगली सीट पर बैठी उनकी पत्नी सहायता के लिए चीखने लगती हैं। उनकी गोद में सो रही महज नौ महीने की अबोध बच्ची यह शोरगुल सुनकर जाग जाती है। ऐसी चीख-पुकार उसके लिए अब तक अनजानी है।

दहशत के अतिरेक में वह भी चीत्कार कर उठती है।

वह व्यस्त मार्ग है। तमाशबीन जुट पड़ते हैं। ट्रैफिक बाधित हो जाता है। इसके बावजूद हमलावर रुकता नहीं, कोई उसे रोकता भी नहीं है। लोग उस दंपति को बचाने के बजाय रील बनाने लगते हैं। वह रील देखते-देखते वायरल हो जाती है। पुलिस उस पर संज्ञान भी लेती है, मगर यह हादसा उस पेशेवर दंपति पर भारी पड़ता है। घर लौटते-लौटते उस अबोध बच्ची को भयंकर बुखार हो आता है। वह सो नहीं पाती और बेचैन रहती है। डॉक्टरों के अनुसार, उसे ‘पैनिक अटैक’ पड़ रहे थे। वह हफ्ता भर बीमार रहती है। मालूम नहीं, उस बच्ची के अवचेतन मस्तिष्क से वह हादसा कभी जाएगा भी या नहीं?

एक किंवदंती है। नेपोलियन बोनापार्ट महज कुछ महीने का था, तभी उसके सीने पर एक बिल्ली आ बैठी थी। आगे चलकर वह इतना बड़ा सूरमा बन बैठा, लेकिन बिल्लियां उसकी कमजोरी बनी रहीं। अंग्रेज सेनापति ड्यूक ऑफ विलिंगटन नेपोलियन की इस कमजोरी को जानता था। यही वजह है कि जब उसे अजेय फ्रेंच सेना से जूझने की जिम्मेदारी सौंपी गई, तब उसने वॉटर लू के मैदान में दर्जनों बिल्लियां छोड़ दी थीं। तोप के गोलों, बंदूकों की गोलियों और धमाकों के बीच ये बिल्लियां भी भयाक्रांत हो म्याऊं-म्याऊं कर रही थीं।

रणनीति के अनुरूप नेपोलियन बिल्लियां देखकर आपा खो बैठा और उस कौशल का प्रदर्शन नहीं कर सका, जिसके लिए वह जाना जाता था। हो सकता है, इतिहास की किताबें इस किस्से को सही न ठहराएं, लेकिन ऐसे किस्से गढ़े ही इसलिए जाते हैं, ताकि लोग इनके अंतर्निहित भावों से अपने जीवन के निष्कर्ष गढ़ सकें। इसमें कोई दो राय नहीं कि बालपन के दौरान यदि कोई सदमा अवचेतन मस्तिष्क में बैठ जाता है, तो समूची जिंदगी उसकी परछाइयां गुल खिलाती रहती हैं। तमाम मनोवैज्ञानिकों ने इस पर शोध प्रबंध लिखे हैं।

नई दिल्ली के अंकुर की तरह उस अबोध का कुसूर क्या था?

हमारे चारों ओर ऐसे हतभागी फैले हुए हैं। वे लगातार फैलते जा रहे हैं, लेकिन इसकी रोकथाम के लिए कोई कारगर रणनीति नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली में सन् 2022 में ऐसे 76 मामले सामने आए थे। अगले साल इनकी संख्या बढ़कर 84 तक पहुंच गई। इस साल अगस्त तक 62 मामले दर्ज किए जा चुके हैं। मिस्टर ऑटो रोड सेफ्टी इंडेक्स 2019 के अनुसार, रोडरेज के मामलों में कोलकाता और मुंबई सबसे आगे हैं। एनसीआरबी और सड़क परिवहन मंत्रालय ने हादसों पर जो रिपोर्ट जारी की है, उससे ऐसा लगता है कि अभी तक उन्हें रोडरेज के मामलों में अलग श्रेणी बनाने की सुध नहीं आई है। यहां यह भी गौरतलब है कि रोडरेज के ज्यादातर मामले तो पुलिस के रोजनामचों तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। केवल गंभीर मामलों में ही रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है। एक और बात। इस कॉलम के लिए रिसर्च करते वक्त मैंने पाया कि न केवल आंकडे़ आधे-अधूरे हैं, बल्कि बेहतरीन शोधार्थियों की भी दृष्टि इस मुद्दे पर नहीं पड़ी है। सरकार और समाज, दोनों की यह बेरुखी भारी पड़ सकती है।

समय आ गया है कि हम इसे सामाजिक बुराई मानते हुए नई रणनीति तय करें, पर ऐसा कब होगा? इसके लिए कितने अंकुर और अबोधों को बलि देनी होगी?

@shekharkahin

@shashishekhar.journalist

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