Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan aajkal column by Shashi Shekhar 04 May 2025

भावुकता और भारतभक्ति का फर्क

हमें इस संवेदनशील समय में अपनी सरकार और उसके नेतृत्व पर भरोसा करना चाहिए, क्योंकि जो लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली से वाकिफ हैं, वे जानते हैं कि भारत आज नहीं तो कल, ऐसी कार्रवाई करेगा, जिसे दुनिया याद रखेगी…

Shashi Shekhar लाइव हिन्दुस्तानSat, 3 May 2025 08:39 PM
share Share
Follow Us on
भावुकता और भारतभक्ति का फर्क

गुजरे मंगलवार की सुबह, समय तकरीबन 6 बजे। अचानक फोन की मैसेज टोन बजी। आश्चर्य और आशंका के साथ मैंने फोन उठाया- मेरे एक मित्र के पुत्र का संदेश चमक रहा था। वह पहलगाम की घटना से व्यथित था और उसे शिकायत थी कि सरकार आनन-फानन में कोई कदम क्यों नहीं उठा रही? उसने मुझसे यह भी अपेक्षा की थी कि मीडिया में काम करने के नाते मुझे तत्काल जोरदार कार्रवाई के लिए आवाज उठानी चाहिए।

मैं चकित रह गया।

उस युवक को मैं बचपन से जानता हूं। यह नौजवान देश के सबसे अच्छे स्कूलों में पढ़ा है और उसके बाद उसने उच्चस्तरीय तकनीकी शिक्षा हासिल की। कॉलेज का कोर्स खत्म होने से पहले ही उसे एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी मिल गई। तब से आज तक तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता हुआ वह अब एक बड़े पद पर है। अपनी समझदारी और सुलझेपन के लिए उसे जाना और माना जाता है, इसीलिए मैंने उसके उद्वेलन का बुरा नहीं माना।

जवाब में उसे मैंने विस्तार से संदेश लिखा कि तुम्हें इतना ज्यादा व्यथित होने की जरूरत नहीं। निश्चिंत रहो, सरकार अपना काम कर रही है। समय आने पर देश-दुनिया को माकूल कार्रवाई दिख जाएगी। मैंने उसे यह भी लिखा कि सन् 1971 में भी भारत में युद्ध-उन्माद पनप रहा था। उसी बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने सेनाध्यक्ष सैम मानेकशॉ को तलब किया था। वह चाहती थीं कि हमारी फौजें पूर्वी पाकिस्तान पर आक्रमण कर उसे बांग्लादेश घोषित करने में सहायता करें, लेकिन मानेकशॉ को समय की दरकार थी।

क्यों?

सैम जानते थे कि अगले कुछ महीनों में मानसून की शुरुआत होने वाली है। बरसात में बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाके में खेत दलदल में तब्दील हो जाते हैं। उनसे टैंकों और सेना का गुजरना नामुमकिन था। ऐसे समय में आक्रमण का मतलब था, अपने सैनिकों को मौत के मुंह में झोंकना। जो लोग सत्ता और शक्ति के शीर्ष पर होते हैं, उन्हें दुश्मन की तबाही से अधिक अपने लोगों के जान-माल की भी चिंता करनी होती है। सैम यही कर रहे थे।

उन दिनों, जब भारतीय सेना के तीनों अंग निर्णायक युद्ध की तैयारी कर रहे थे, तो दूसरी तरफ इंदिरा गांधी और उनकी सरकार विश्व-पटल पर भरोसेमंद दोस्त तलाश रही थीं। पाकिस्तान शुरू से पश्चिमी देशों का पिट‌्ठू था। अमेरिका में उस समय निक्सन की हुकूमत हुआ करती थी। वह न केवल पाकिस्तान के पक्ष में थे, बल्कि उन्हें इंदिरा गांधी से निजी चिढ़ थी। इंदिरा गांधी ने इसीलिए तत्कालीन सोवियत संघ के शासक लियोनिद ब्रेझनेव के साथ दीर्घकालिक सामरिक संधि की। इस समझौते के कारण मॉस्को ने न केवल भारत और पाकिस्तान के युद्ध के दौरान हमें जरूरी साजो-सामान मुहैया कराया, बल्कि अमेरिकी धमकियों से निपटने में भी हमारी मदद की।

सन‌् 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ शीतयुद्ध भी खत्म हो गया। मॉस्को अब पहले जितना ताकतवर नहीं रह बचा है, लेकिन आज तक दोनों देशों की दोस्ती बनी हुई है। हालांकि, विश्व राजनीति के समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं। जब से वाशिंगटन डीसी में डोनाल्ड ट्रंप ने दोबारा सत्ता संभाली है, तब से भूमंडल का साढ़े तीन दशक पुराना निजाम उलट-पुलट हो गया है। हालात कैसे हैं, यह जानने के लिए चीन और अमेरिका के ताजा बयानों पर गौर फरमाइए।

चीनी विदेश मंत्री ने आतंकवाद की निंदा करते हुए भी परोक्ष रूप से इस्लामाबाद का साथ दिया है। उधर, अमेरिकी उप-राष्ट्रपति जेडी वेंस फरमाते हैं कि भारत को आतंकवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन उसे यह भी ध्यान रखना होगा कि हालात हाथ से न निकल जाएं! यह वही अमेरिका है, जो इजरायल को गाजा में कुछ भी करने की छूट देता है। उसे रूस द्वारा यूक्रेन पर ढाए गए जुल्मों की भी कोई चिंता नहीं, वाशिंगटन को अगर फिक्र है, तो सिर्फ अपने खजाने की। पहलगाम में जिस तरह हिंदुओं को अपमानजनक तरीके से मारा गया, उसके बाद भला कोई शक बचता है कि इसके पीछे कौन है? हत्यारे पश्तो बोल रहे थे, उनके काम करने के तरीके से स्पष्ट था कि उनका सारा प्रशिक्षण पाकिस्तानी सैन्य छावनियों में हुआ है।

यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय सेनाओं को माकूल कार्रवाई के लिए अधिकृत कर चुके हैं। तब से अब तक 7, लोक-कल्याण मार्ग, नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक में रणनीतिक बैठकों का दौर जारी है। इसी क्रम में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अपने अमेरिकी समकक्ष रक्षा सचिव को फोन कर भारत का इरादा और संकल्प जाहिर कर चुके हैं। एस जयशंकर की अगुवाई में समूचा विदेश मंत्रालय विश्व जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए दिन-रात जुटा है।

इराक में ‘ऑपरेशन डेजर्ट’ का नेतृत्व करने वाले अमेरिकी जनरल हर्बर्ट नॉर्मन श्वार्जकोफ ने कहा था, शांतिकाल में आप जितना पसीना बहाते हैं, युद्धक्षेत्र में उतना ही कम खून बहाना पड़ता है। हमें इस संवेदनशील समय में अपनी सरकार और उसके नेतृत्व पर भरोसा करना चाहिए, क्योंकि जो लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली से वाकिफ हैं, वे जानते हैं कि भारत आज नहीं तो कल, ऐसी कार्रवाई करेगा, जिसे दुनिया याद रखेगी। ऑपरेशन बालाकोट और सर्जिकल स्ट्राइक इसके उदाहरण हैं।

इस नाजुक वक्त में भी कुछ लोग सांप्रदायिकता का बीज रोपने में लगे हैं। पिछले दिनों वृंदावन के विश्व प्रसिद्ध बांके बिहारी मंदिर के बाहर कुछ लोगों ने प्रदर्शन किया। उनकी मांग थी कि मंदिर की सेवा में जुटे मुस्लिमों का बहिष्कार किया जाए। मंदिर ट्रस्ट का जवाब दो टूक था। ये लोग सदियों से भगवान के वस्त्र, मुकुट और चूड़ियां बनाते आए हैं। इन्हें खुद से अलग नहीं किया जा सकता। समझ और नासमझी के ऐसे तमाम उदाहरण सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि इस समय जम्मू-कश्मीर पहली बार शेष देश के साथ दहशत और दहशतगर्दी के खिलाफ उबल रहा है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण गई 29 अप्रैल को दिखाई दिया। उस दिन जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने एक स्वर में न केवल आतंक और आतंकवादियों की निंदा की, बल्कि पूरे देश के साथ एकजुटता भी दिखाई। वहां के विधायकों का मानना है कि कश्मीर में यहां से आतंकवाद के अंत की शुरुआत हो रही है। ऐसे घटनाक्रम को नजरअंदाज कर विद्वेष फैलाने वाले यह भी भूल जाते हैं कि किस तरह समूचे देश की मस्जिदों में पहलगाम हमले की लानत-मलामत की गई। कोई भी ऐसा मुस्लिम नेता नहीं है, जिसने खुलेआम पाकिस्तान की आलोचना न की हो।

ऐसे में, सांप्रदायिक या क्षेत्रीय अलगाव की सुरसरी छोड़ने वाले खुद को देशभक्त कैसे कह सकते हैं? यह समय सरकार और समाज की एकजुटता का है, न कि विद्वेष और उकसावे का।

@shekharkahin

@shashishekhar.journalist

लेटेस्ट   Hindi News ,    बॉलीवुड न्यूज,   बिजनेस न्यूज,   टेक ,   ऑटो,   करियर , और   राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।

अगला लेखऐप पर पढ़ें