Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan aajkal column by shashi shekhar 01 December 2024

महिलाएं जीत की गारंटी बनीं

  • हमारे देश की महिलाओं का मिजाज अलग है। वे खुद से ज्यादा परिवार के बारे में सोचती हैं। यही वजह है कि वे जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषायी जंजालों में पडे़ बिना सिर्फ उस पार्टी या नेता को चुनती हैं, जो उनके भले की बात करता है। अपने स्वार्थ से ही सही, पर…

Shashi Shekhar लाइव हिन्दुस्तानSat, 30 Nov 2024 10:37 PM
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महिलाएं जीत की गारंटी बनीं

क्या आपको लगता है कि हमारे राजनेता जन-कल्याण में पर्याप्त ध्यान नहीं लगाते? वे चुनाव के समय सामाजिक दरारों को चौड़ा कर वोट जुटाते हैं और फिर उस वोट बैंक को बिसरा देते हैं? एक लोकप्रिय शोशा यह भी है कि राजनीति जन समस्याओं के समाधान के बजाय सिर्फ सत्ता प्राप्ति का जरिया बन चुकी है?

इन सवालों का जवाब देने के लिए मैं आपको पिछले साल, यानी 2023 में वापस ले चलना चाहता हूं। उन दिनों मध्य प्रदेश में सत्ता-विरोधी लहर आसमान छू रही थी। उन्हीं विपरीत परिस्थितियों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अचानक ‘लाडली बहना योजना’ की शुरुआत की और सारी ‘एंटी इनकंबेंसी’ हवा हो गई। वह तीसरी बार चुन लिए गए। यह बात अलग है कि भाजपा ने उनकी जगह भोपाल में नए नेतृत्व को मौका देना बेहतर समझा। इसके पहले हुए हिमाचल और कर्नाटक के चुनावों में भी कांग्रेस सिर्फ इसलिए वापसी कर सकी, क्योंकि उसने महिलाओं के लिए नई कल्याणकारी योजनाओं का वायदा किया था।

चुनावी लड़ाइयों में अमोघ अस्त्र बन चुकी इन योजनाओं को वर्ष 2001 के तमिलनाडु चुनावों में जयललिता जयराम ने शुरू किया था। महिलाओं पर चले गए इस दांव से चेन्नई के सत्ता-सदन में उनकी जबरदस्त वापसी हुई थी। उनके बाद नीतीश कुमार ने इस जादुई मंत्र को आत्मसात किया। साल 2006 में उनकी सरकार ने फैसला किया कि कक्षा नौ में पढ़ने वाली सभी छात्राओं को साइकिल दी जाएगी। बिहार को जानने वाले जानते हैं कि वहां बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालयों की कमी है। छोटी बच्चियों को प्राइमरी स्कूल के बाद आस-पास के गांवों में स्थित उच्च माध्यमिक विद्यालयों में जाना पड़ता है। अक्सर उनकी पढ़ाई छूट जाती थी, क्योंकि घर में किसी सदस्य के पास प्रतिदिन उन्हें दूसरे गांव ले जाने और लाने की फुरसत नहीं होती थी।

इस पुराने सिलसिले ने महिलाओं को पीछे धकेल दिया था। सरकार से मिली साइकिल ने उन्हें बंधन मुक्त कर दिया। मैंने खुद बिहार की सड़कों पर दर्जनों बच्चियों को खिलखिलाते हुए साइकिल पर स्कूल आते-जाते देखा है। वे पढ़ रही थीं, खुली हवा में सांस ले रही थीं और अपने अंदर इस विश्वास को संजो रही थीं कि वे एक नए बिहार की संरचना करेंगी। साइकिल योजना के लागू होने से पहले और बाद के बिहार में यदि सरकारी कार्यालयों में पुरुषों और महिलाओं के अनुपात, शिक्षा दर और अन्य सामाजिक पैमानों पर आप ्त्रिरयों की भागीदारी आंकें, तो आश्चर्य में पड़ जाएंगे।

नई उमर की इस नई फसल ने उन्हें सियासी फायदे भी पहुंचाए।

सन् 2010 के चुनाव में बिहारी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की भागीदारी अधिक रही। चुनाव आयोग के आंकड़े गवाह हैं कि 51.12 प्रतिशत पुरुषों ने और 54.49 फीसदी महिलाओं ने वोट डाले। बिहार के सामाजिक समीकरण ऐसे हैं कि नीतीश कुमार को सत्ता की सीढ़ी बिछाने के लिए भारतीय जनता पार्टी या अपने पुराने दोस्त लालू प्रसाद यादव की पार्टी का सहारा लेना पड़ता है। नीतीश कुमार अकेले सत्ता हासिल नहीं कर सकते, लेकिन उनके बिना ये दोनों पार्टियां भी हुकूमत में आने की स्थिति में नहीं हैं। इसी का नतीजा है कि एक छोटे अंतराल को छोड़ नीतीश कुमार तो 19 वर्षों से 1, अणे मार्ग पर काबिज हैं। अप्रैल 2016 में शराबबंदी का निर्णय कर वह आधी आबादी के और अधिक दुलारे बन चुके हैं।

पटना के इन शुरुआती प्रयोगों के बाद पश्चिम बंगाल, दिल्ली, ओडिशा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और हिमाचल में तमाम पार्टियों ने महिलाओं के हक में अनेक फैसले किए। मौजूदा चुनाव परिणाम इसका उदाहरण है कि किस तरह महिलाओं की भागीदारी सत्ताओं को उखाड़ सकती है या पुरानी सरकार को दोबारा जमे रहने के लिए खाद-पानी मुहैया करा सकती है। हरियाणा में हवा कांग्रेस के पक्ष में थी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने अपने संकल्प-पत्र में लाडली लक्ष्मी योजना की घोषणा की। इसके तहत हर महीने महिलाओं को 2,100 रुपये मिलेंगे। साथ-साथ अव्वल बालिका योजना के तहत कॉलेज जाने वाली हर ग्रामीण लड़की को स्कूटी मुहैया कराने का वायदा किया गया। यही नहीं, हर घर गृहिणी योजना के तहत 500 रुपये में रसोई गैस सिलेंडर दिए जाने का भी आश्वासन दिया गया। नतीजतन, सारी सत्ता विरोधी लहर हवा हो गई और भारतीय जनता पार्टी लगातार तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाब रही। पिछले हफ्ते महाराष्ट्र और झारखंड में भी यही हुआ। शिंदे सरकार की लाडकी बहिण योजना और हेमंत सोरेन की मंइयां सम्मान योजना ने महिलाओं को लामबंद करने में जबरदस्त भूमिका अदा की। दोनों सत्ता बचाने में कामयाब रहे।

हमारे देश की महिलाओं का मिजाज अलग है। वे खुद से ज्यादा परिवार के बारे में सोचती हैं। यही वजह है कि वे जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषायी जंजालों में पडे़ बिना सिर्फ उस पार्टी या नेता को चुनती हैं, जो उनके भले की बात करता है। अपने स्वार्थ से ही सही, पर भारतीय राजनीति शताब्दियों से पीछे धकेली गई महिलाओं को आगे लाने का नेक काम कर रही है। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह बेहद जरूरी है।

यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू की गई कल्याण योजनाओं पर नजर डालनी जरूरी है।

कोरोना के वक्त से शुरू हुई ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना’ ने गरीबों के एक बडे़ वर्ग को न केवल जिंदा रखा, बल्कि उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी किया। यह सर्वविदित है कि जब पेट भर जाता है, तो कोई भी अपने परिवार की बेहतरी और बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान देता है। एक बार अन्न संबंधी चिंता से मुक्त होने के बाद देश के 81 करोड़ से अधिक लोगों ने स्वास्थ्य, शिक्षा और ऐसी ही अन्य मूलभूत आवश्यकताओं पर खर्च करना शुरू किया। इससे न केवल उनका जीवन बदला, बल्कि देश के जीडीपी में भी सुधार आया। इसी तरह, स्वच्छ भारत मिशन के तहत हर घर शौचालय योजना ने महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा और सम्मान को बुलंद किया। केंद्र सरकार अब तक महिलाओं को 11.6 करोड़ निजी शौचालय मुहैया करा चुकी है। प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना से भी देश भर की 10.27 करोड़ से अधिक महिलाएं लाभान्वित हुई हैं।

यह लाभार्थी वर्ग एक नए सियासी और सामाजिक समुदाय के तौर पर उभरा है।

जान लें। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लागू इन कार्यक्रमों का वैसा ही दूरगामी प्रभाव पडे़गा, जैसा कभी दलितों-पिछड़ों के आरक्षण, शारदा ऐक्ट अथवा सती प्रथा उन्मूलन कानून ने किया था। आप पूछ सकते हैं कि यदि यह दांव इतना कारगर है, तो हमारे राजनीतिज्ञ समाज बांटने के नारे क्यों लगाते हैं? इस थोथी नारेबाजी के स्थान पर अगर सियासी सूरमा अपना रिपोर्ट-कार्ड लेकर जनता के समक्ष हों, तो भारतीय मतदाता उन्हें निराश नहीं करेंगे। ये योजनाएं ‘मंडल और कमंडल’ से अधिक कारगर और कल्याणकारी हैं, लेकिन हमारी ‘माननीय’ बिरादरी आदत से मजबूर है।

हालांकि, इस मुद्दे का स्याह पहलू भी है। मतदान में महिलाओं की हिस्सेदारी निर्णायक तौर पर भले बढ़ रही हो, पर सत्ता-सदनों में उनकी संख्या अभी तक नाकाफी है। उम्मीद है, हमारे नेता इस ओर भी नजर डालने का कष्ट करेंगे।

@shekharkahin

@shashishekhar.journalist

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