अनुशासन की चिंता
कोई भी समाज संयम, सहिष्णुता और सद्भावना से ही सशक्त होता है। अगर कभी समाज इन लोकतांत्रिक भावनाओं के प्रतिकूल चलने लगता है, तो न केवल हिंसा की आशंका बढ़ जाती है, बल्कि समाज में भय का माहौल बन जाता....
कोई भी समाज संयम, सहिष्णुता और सद्भावना से ही सशक्त होता है। अगर कभी समाज इन लोकतांत्रिक भावनाओं के प्रतिकूल चलने लगता है, तो न केवल हिंसा की आशंका बढ़ जाती है, बल्कि समाज में भय का माहौल बन जाता है। वाकई संयम का ही अभाव था कि दिल्ली में सड़क पर रास्ता देने-न देने का एक मामला फिर जानलेवा हो गया। दशहरा मेले से लौट रहे दो भाइयों पर तीन अपराधियों ने ऐसे हमला बोल दिया कि एक भाई की मौत हो गई। क्या सड़क पर हुए इस विवाद को सद्भावना के साथ सुलझाया जा सकता था? क्या हम सड़क पर या समाज में संयम खोने लगे हैं? क्या हमारे मन में नाना प्रकार की कुंठाएं भरती चली जा रही हैं? क्या परस्पर ईष्र्या ने हमें क्रोधी बना दिया है? एक बदलाव पर गौर करने की जरूरत है, पहले के दौर में अक्सर लोग कहते थे कि सहना सीखो, मिल-जुलकर रहना सीखो। गांधीजी के हवाले से भी अक्सर कहा जाता था कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा आगे कर दो। अब जब शांति-अहिंसा के दर्शन को भुलाया जा रहा है, तब सड़क हो या समाज, लोग ईंट का जवाब पत्थर से देने को लालायित हैं।
प्रतिमा विसर्जन के समय उत्तर प्रदेश के बहराइच में जो हुआ या झारखंड के गढ़वा में जो हुआ, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। शायद हर समुदाय यह मानने लगा है कि पूरे समाज या देश को उसके हिसाब से चलना चाहिए, अगर देश या समाज उसके हिसाब से नहीं चलेगा, तो वे कानून हाथ में ले लेंगे। किसी शोभायात्रा पर पत्थर फेंकने की घटना सामान्य नहीं है, ध्यान दीजिए, नफरत के ये पत्थर कोई एक दिन में जमा नहीं हुए हैं। कई लोग बदला लेने या अपनी मनमानी चलाने के लिए भरे बैठे हैं, उन्हें कोई भी बार-बार याद नहीं दिला रहा है कि सद्भाव के साथ रहना ही समझदारी है। ऐसे लोग जगह-जगह हैं, तभी तो शोभायात्राओं पर जगह-जगह हमले हुए हैं। इसका एक दूसरा पहलू भी है, शोभायात्रा निकालने की अपनी शोभा है। शोभनीय ढंग से अगर ऐसा किया जाए, तो शायद ज्यादा समस्या नहीं होगी। उग्रता, हुड़दंग, अभद्र शोर, भड़काऊ नारेबाजी से क्या किसी यात्रा की शोभा बढ़ सकती है? हां, अगर कोई शोभनीय और आधिकारिक रूप से स्वीकार्य यात्रा पर आपत्ति करता है, तो यह किसी अपराध से कम नहीं है। धार्मिक आचरण की आदर्श स्थिति है कि आपके व्यवहार से किसी को तकलीफ न होने पाए। तकलीफ पहुंचाना अधर्म है।
वैसे, ईमानदारी से यह भी देखना चाहिए कि लोग संयम, सहिष्णुता त्यागकर आखिर क्यों कानून अपने हाथ में लेने लगे हैं? किसी यात्रा का अशोभनीय होना और किसी शोभा यात्रा को निशाना बनाया जाना, दोनों ही स्थितियों में कानून-व्यवस्था की कमी जिम्मेदार होती है। पुलिस को ऐसी शिकायतों पर कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। हर समुदाय में शासन-प्रशासन की मजबूत पकड़ होनी चाहिए। अगर किसी क्षेत्र में कानून-व्यवस्था प्रभावित हो रही है, तो इसका मतलब यह भी है कि वहां के जन-प्रतिनिधि भी समाज में पलते विवादों को सुलझाने में नाकाम हो रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में शांति बनाए रखना प्राथमिक रूप से पुलिस और जन-प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी है। सामाजिक, धार्मिक संगठनों को भी समाज में उग्रता बढ़ाने के काम करने के बजाय विनम्रता को खाद-पानी देना चाहिए। समाज में चहुंओर बढ़ते गुस्से का यही समाधान है।
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