आरक्षण की सियासत
अपने देश में आरक्षण पर ऐसी दुखद सियासत होने लगी है, जिसका तथ्य और तर्क से कोई लेना-देना नहीं है। मुंबई में राज्य सचिवालय में शुक्रवार को उस समय अजीब दृश्य सामने आया, जब विधानसभा के उप-सभापति...
अपने देश में आरक्षण पर ऐसी दुखद सियासत होने लगी है, जिसका तथ्य और तर्क से कोई लेना-देना नहीं है। मुंबई में राज्य सचिवालय में शुक्रवार को उस समय अजीब दृश्य सामने आया, जब विधानसभा के उप-सभापति नरहरि झिरवाल और तीन अन्य विधायक तीसरी मंजिल से कूद गए। यह तो भला हो कि नीचे पहले से ही जाल लगाकर सुरक्षा इंतजाम किया गया था। सुरक्षा इंतजाम न होता, तो आत्महत्या की यह कोशिश भारतीय विधायिका पर एक स्याह धब्बा लगा जाती। अगर एक विधायक को अपनी मांग मनवाने के लिए आत्महत्या करने की नौबत आ जाए, तो फिर विधायिका की समग्र व्यवस्था की मजबूती के बारे में क्या कहा जाए? हालांकि, यह सियासत है और विधायक कूदे, क्योंकि उन्हें पता था कि नीचे जाल है। वास्तव में, आत्महत्या की कोशिश का यह दिखावा कोरी सियासत है, उसके अलावा कुछ नहीं। विधायकों के इस कृत्य की सिर्फ निंदा हो सकती है। यह विधायिका को भी शर्मसार करने वाला पल है और इस पर सभी दलों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर वे देश के सामने कैसी जानलेवा सियासत पेश कर रहे हैं?
आत्महत्या का बहाना तो और भी दुखद है। यह सियासी कोशिश वास्तव में आरक्षण मांगने के लिए नहीं है, बल्कि एक जाति विशेष को मिलने जा रहे आरक्षण के विरोध में है। धनगर समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी में शामिल करने की मांग का विरोध विचारणीय हो सकता है, पर उसके लिए ठोस तर्क या विमर्श की जरूरत है। इन विधायकों को जब लगा कि उनका विरोध काम नहीं कर रहा है और धनगर समुदाय को एसटी में शामिल कर लिया जाएगा, तब उन्होंने कूदने का दुस्साहस दिखाया। अब यह सोचने की बात है कि धनगर समुदाय के नेताओं और लोगों को कैसा लग रहा होगा? झिरवाल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के अजीत पवार गुट के सदस्य हैं। वास्तव में, यह पूरी पार्टी इन दिनों बहुत बेचैन है। सियासी लाभ और चुनाव जीतने के लिए इसके नेता हरसंभव दांव आजमा रहे हैं। उनका यह नया दांव पता नहीं कितना कारगर होगा, पर इससे सत्ता पक्ष और एकनाथ शिंदे की सरकार की किरकिरी तो हो ही रही है। सरकार में भाजपा भी शामिल है और कूदने वालों में एक भाजपा विधायक भी शामिल बताए जाते हैं। वास्तव में, यह सत्ताधारी विधायकों की बेचैनी है। उन्हें इसी महीने चुनावी मैदान में जाना है। जहां आरक्षण मांगने वालों और आरक्षण का विरोध करने वालों, दोनों के भाग्य का फैसला होगा।
वैसे सियासत से अलग आरक्षण का सवाल वाकई अपने देश में बहुत गंभीर होता जा रहा है। ऐसा पहली बार नहीं है, जब किसी को आरक्षण देने या किसी खास श्रेणी में आरक्षण देने का विरोध हो रहा है। राजस्थान में जब गुर्जरों ने अनुसूचित जनजाति में आने के लिए साल 2007 में रेल रोको आंदोलन किया था, तब भी एक दबंग अनुसूचित जनजाति के नेताओं ने विरोध किया था। उस त्रासद आंदोलन में 70 से ज्यादा लोग मारे गए थे, नतीजा क्या हुआ, आज भी गुर्जरों को कमोबेश ओबीसी वाला ही लाभ मिल रहा है। गुर्जरों के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले किरोड़ी सिंह बैंसला का निधन हो चुका है, पर गुर्जरों की मांग अभी भी जिंदा है। ऐसी अनेक जातियां हैं, जो अपने आरक्षण में बदलाव चाहती हैं, तो क्या तमाम पार्टियां मिलकर आरक्षण के मसले को हमेशा के लिए सुलझाएंगी?
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