Hindi Newsओपिनियन संपादकीयhindustan editorial column 04 oct 2024

जेल में भी जातिवाद

जेलों में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी। इतनी ही प्रशंसा उस रिपोर्ट या याचिका की भी होनी चाहिए, जिसने सदियों से चली आ रही इस...

Pankaj Tomar हिन्दुस्तान, Thu, 3 Oct 2024 09:50 PM
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जेल में भी जातिवाद

जेलों में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी। इतनी ही प्रशंसा उस रिपोर्ट या याचिका की भी होनी चाहिए, जिसने सदियों से चली आ रही इस बेशर्म कुप्रथा पर प्रहार का जरूरी साहस दिखाया। हकीकत से वाकिफ न्यायालय का यह एक ऐतिहासिक फैसला है। प्रधान न्यायाधीश धनंजय वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने गुरुवार को जेल संहिता में संबंधित प्रावधानों को असांविधानिक घोषित करते हुए जेलों में जाति-आधारित भेदभाव की इस प्रथा को समाप्त कर दिया है। अदालत ने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को दोटूक निर्देश जारी करते हुए कहा है कि जेलों में बंदियों को जाति के आधार पर काम या आवास की सुविधा न दी जाए। अदालत ने माना कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जाति के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव औपनिवेशिक शासन का अवशेष है। संविधान के तहत सभी कैदियों से समान व्यवहार सुनिश्चित किया जाना चाहिए। जाति, लिंग व विकलांगता के आधार पर जेलों के अंदर होने वाला भेदभाव पूरी तरह अवैध है। यह बहुत आश्चर्य की बात है कि एकाध कानूनों और जेल नियमों में भेदभाव के प्रावधान अब तक दर्ज हैं। 
सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को इस फैसले के तीन महीने के अंदर अपने जेल नियमों में संशोधन करना होगा। यह केंद्र सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह जेल मैनुअल 2016 में सुधार करने के साथ ही आदर्श जेल व सुधार सेवा अधिनियम, 2013 में संशोधन करते हुए दर्ज जाति-आधारित भेदभाव को दूर करे। यह बात बहुत चौंकाती है कि विचाराधीन या दोषी कैदियों के रजिस्टर में जाति का कॉलम होता है और जेल अधिकारी ही नहीं, स्वयं कैदी भी जाति देखकर व्यवहार करते हैं। जाति देखकर कैदियों को काम दिया या काम लिया जाता है। अत: जेल में जाति आधारित किसी भी कॉलम को समाप्त करने में ही भलाई है। आगामी वर्षों में जेल अधिकारियों की बड़ी जिम्मेदारी होनी चाहिए कि जेलों में जाति प्रथा का अंत हो। साफ-सफाई के काम से हर जाति के कैदियों को जोड़ा जाए। काम किन्हीं खास कैदियों पर लादने के बजाय क्रमवार सभी से कराया जाए, ताकि हर किसी को हर तरह के काम का मौका मिले। यह एहसास कैदियों में पैदा न हो कि किन्हीं खास जातियों के कैदी जेलों में ज्यादा आराम फरमाते हैं। 
वास्तव में, पिछड़ी जातियों के नेताओं को भी भेदभाव के अंत के लिए युद्ध स्तर पर सक्रिय होना चाहिए। सवाल यह भी है कि इस बड़ी समस्या की ओर पहले क्यों इशारा नहीं किया गया? सवाल यह भी है कि क्या भारतीय समाज या भारतीय व्यवस्था में अभी भी ऐसे क्षेत्र हैं, जहां अघोषित रूप से या सामान्य रूप से ही जातिगत भेदभाव की कुप्रथा बेधड़क चल रही है? यह पूरा प्रकरण इस बात का संकेत है कि पिछड़ों के नेताओं को ज्यादा सजग होने की जरूरत है। जेलों में सदियों से जिनका शोषण हो रहा था, क्या उनकी ओर से आवाज उठाने वाला कोई नहीं था? विशेष रूप से सरकारों को अपनी ओर से यह विस्तृत अध्ययन करना चाहिए कि जेलों में गरीबों और विशेष रूप से आदिवासियों की क्या स्थिति है? क्या जेलों में समानता का व्यवहार हो रहा है? बेशक, जहां भी संविधान के अनुरूप समानता या मानवीयता का व्यवहार नहीं हो रहा है, वहां जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कड़े कदम उठाने की जरूरत है। 

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