बुलडोजर और न्याय
देश भर में ‘बुलडोजर कार्रवाई’ को लेकर जारी बहस के बीच ‘जमीयत उलेमा-ए-हिंद’ की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अपना फैसला तो सुरक्षित रख लिया, मगर मामले की सुनवाई के दौरान की गई...
देश भर में ‘बुलडोजर कार्रवाई’ को लेकर जारी बहस के बीच ‘जमीयत उलेमा-ए-हिंद’ की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अपना फैसला तो सुरक्षित रख लिया, मगर मामले की सुनवाई के दौरान की गई उसकी टिप्पणियां कुछ कम मानीखेज नहीं हैं। अदालत ने न सिर्फ यह कहा कि किसी के आरोपी होने या दोषी करार दिए जाने पर भी उसकी संपत्ति को ध्वस्त नहीं किया जा सकता, बल्कि अंतिम आदेश तक ऐसी कार्रवाइयों पर रोक लगाते हुए उसने यह भी साफ किया कि किसी अतिक्रमण को गिराए जाने से पहले संबंधित पक्ष को नोटिस दिया जाना चाहिए और इसके दस्तावेजी सुबूत भी होने चाहिए। यानी लक्षित संपत्ति पर नोटिस चिपकाने के साथ रजिस्टर्ड डाक से भी इसे भेजा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति बीआर गवई और केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने अपने अंतिम फैसले में बुलडोजर कार्रवाई पर विस्तृत दिशा-निर्देश जारी करने के साफ संकेत दिए हैं। उम्मीद है, इसके बाद किसी किस्म की गफलत या बदनीयती के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहेगी।
इसमें कोई दोराय नहीं कि देश में सार्वजनिक स्थलों के अतिक्रमण और उन पर अवैध निर्माण की बेशुमार घटनाएं हैं और अदालत ने इस मामले में राज्य प्रशासन को कानून-सम्मत कदम उठाने और ऐसी जगहों को खाली कराने की छूट पहले ही दे रखी है। मगर विडंबना यह है कि बुलडोजर कार्रवाई को जिस तरह पिछले कुछ महीनों व वर्षों में कानून-व्यवस्था के पर्याय के तौर पर पेश किया गया और एक खास समुदाय के खिलाफ हुई कार्रवाइयों पर गैर-जिम्मेदाराना सियासत की गई, उससे देश-दुनिया में यही संदेश गया कि अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाया जा रहा है और ऐसे में, जायज कार्रवाइयां भी संदेह के घेरे में आ गईं। शीर्ष अदालत ने उचित ही यह स्पष्ट किया है कि हम एक धर्मनिरपेक्ष देश हैं और यहां पर आपराधिक कानून धर्म से प्रेरित नहीं हो सकते। अवैध निर्माण चाहे जिस भी धर्म से वाबस्ता हो, उसे हटाया ही जाना चाहिए।
किसी भी अवैध निर्माण को गिराने की एक तय प्रक्रिया होती है, जिसके तहत कार्रवाइयां रसूखदार लोगों के विरुद्ध भी हुई हैं। नोएडा में ट्विन टावर को गिराए जाने की बात बहुत पुरानी नहीं है। मगर किसी व्यक्ति के आपराधिक कृत्य की सजा पूरे परिवार को देना नैसर्गिक न्याय के विपरीत है। इसलिए शीर्ष अदालत ने यह संकेत किया है कि प्रशासन ने अवैध तोड़-फोड़ की कार्रवाई की, तो पीड़ित को संपत्ति वापस करनी पड़ेगी। अगर रोडमैप में यह बात स्पष्टता से सामने आई, तो आइंदा अधिकारी व सत्तारूढ़ राजनेता फौरन बुलडोजर निकालने से पहले कई बार सोचेंगे। ऐसे मामलों में जिम्मेदारी तय करने की पुख्ता व्यवस्था होनी ही चाहिए। न्यायप्रिय व्यवस्थाओं में कानून नागरिकों के संरक्षण के लिए होते हैं। जब किसी का घर या कोई अन्य स्थायी निर्माण गिराया जाता है, तब उससे न सिर्फ उसे आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है, बल्कि उसकी सामाजिक क्षति भी होती है। एक बहुलवादी समाज में इससे दीर्घकालिक विलगाव पैदा होता है। हिमाचल की घटना एक ताजा मिसाल है। वहां एक मस्जिद में अवैध निर्माण को लेकर सांप्रदायिक तनाव गहरा उठा था, जबकि यह काम वहां के स्थानीय निकाय का था, जिसने उस अवैध निर्माण के प्रति लापरवाही बरती। यह सुखद है कि मस्जिद प्रबंधन ने खुद उस निर्माण को हटा लेने का एलान किया और हालात सामान्य हुए। उम्मीद है, सुप्रीम कोर्ट का निर्णायक फैसला आने के बाद बुलडोजर की राजनीति पर लगाम लगेगी और प्रशासनिक जवाबदेही भी सुनिश्चित हो सकेगी।
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