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त्वरित टिप्पणी: अगले आम चुनाव और हिन्दी पट्टी का यह जनादेश

अगले महीने राम मंदिर का उद्घाटन होने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्णधार मोहन भागवत और उनसे जुड़े संगठनों के लाखों लोग इस मौके को चुनाव तक भुनाना चाहेंगे।

Shashi Shekhar शशि शेखर, नई दिल्लीSun, 3 Dec 2023 03:56 PM
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हिन्दी हृदय प्रदेश के तीन राज्यों में भाजपा की जीत के कई संदेश हैं। पहला यह कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आजाद भारत के इतिहास में पहले ऐसे सार्वदेशिक नेता के तौर पर स्थापित हो चुके हैं, जिनकी लोकप्रियता समय के साथ बढ़ी है। वे अकेले अपने दम पर चुनाव जिताने की क्षमता रखते हैं ।

राजस्थान से चर्चा शुरू करते हैं। वहां इस बार वसुंधरा राजे सिंधिया को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश नहीं किया गया था। राजनीतिक विश्लेषकों की मान्यता थी कि यह फैसला नुकसान देह साबित हो सकता है। इसके साथ ही भगवादल कई गुटों में विभक्त था। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के हालात भी उससे जुदा नहीं थे।

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान थोड़े व्यवधान के साथ लगभग 17 वर्ष से हुकूमत कर रहे हैं। चुनाव के दौरान कोई उनकी बुराई करता नहीं दिखता था और उनका काम भी दिखता था लेकिन राजनीति में ‘फटीक फैक्टर‘ का अपना महत्व होता है। ख़ुद भारतीय जनता पार्टी के कुछ कद्दावर नेता उड़ा रहे थे कि ‘मामा’ अब बिकाऊ नहीं थकाऊ चेहरा हैं।  यही वजह है कि मुख्यमंत्री होने के बावजूद पार्टी ने उनके बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम और सरकार के काम पर चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया।

इसके साथ  केन्द्रीय राजनीति में सक्रिय बड़े नामों को भी मैदान में उतार दिया गया था। लगता था कि भाजपा एक हारी हुई लड़ाई जीतने का प्रयास कर रही है परंतु शिवराज सिंह न रुके,न थके। उन्होंने कुछ महीने पहले लाडली बहना योजना की शुरुआत की। महिलाओं के सशक्तीकरण के मामले में उनकी सरकार पहले से ही अच्छा काम करती रही थी और उनके सहारे वे चुनावी वैतरणी में कूद पड़े।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी वहां अपनी शख्सियत को पूरी तरह चुनावी प्रचार के केन्द्र में ला खड़ा किया था। यह जोखिम भरा दांव था पर वह खिलाड़ी क्या, जो खतरे से खेलना न  जानता हो। 
नतीजा सामने है। ओडिशा के अलावा किसी अन्य प्रदेश में कोई सत्तारूढ़ दल सिर्फ अपने बल-बूते पर इतनी बड़ी जीत हासिल करने वाला साबित नहीं हो सका है।

छत्तीसगढ़ का उदाहरण भी कम गौरतलब नहीं।लगभग सभी एग्जिट पोल कह रहे थे कि भूपेश बघेल की दोबारा ताजपोशी होने जा रही है। इसके आसार भी नजर आ रहे थे क्योंकि भारतीय जनता पार्टी में रमन सिंह के अलावा बड़े चेहरों का अभाव था। रमन सिंह की अगुवाई में ही पिछले चुनाव में पार्टी परास्त हुई थी। बघेल ने बड़ी समझदारी से महिलाओं पिछड़ों और वंचितों के लिए काम करने के अलावा ‘छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया’ जैसे स्थानीय भावनाओं को गुदगुदाने वाले नारे भी गढ़े थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आकर्षण के आगे सारी क़िलेबंदी तबाह  हो गई।

यहां भारतीय जनता पार्टी के संगठन और रणनीति की भी चर्चा की जानी चाहिए। गृहमंत्री अमित शाह एक बार फिर सियासत के चाणक्य साबित हुए हैं और राष्ट्रीय अध्यक्ष जय प्रकाश नड्डा की सरल सूझबूझ लोकसभा चुनाव से ठीक पहले के इस मतदान में पूरी तरह कारगर रही है ।इस  त्रयी पर 2024 की बड़ी जिम्मेदारी है।

मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं?

कर्नाटक के बाद तेलंगाना जीतकर कांग्रेस ने साबित कर दिया है कि वह फिर से दक्षिण की पहली पसंद बन चुकी है। अतीत में भी दो बार दक्षिण ने ही उसकी वापसी कराई थी। हैदराबाद की जीत इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि यहां कांग्रेस का टकराव भारत राष्ट्र समिति जैसे मजबूत क्षेत्रीय दल से था। के.चंद्रशेखर राव पिछले दस साल से हुकूमत में हैं और कल्याणकारी योजनाओं के मामले में वे किसी से कम नहीं।

उनकी हार क्या बयान करती है?

भारत शायद  दो दलीय चुनावी व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है।
अगर भविष्य में ऐसा होता है, तो इसका श्रेय भी भाजपा को जाएगा। एक तथाकथित दक्षिणपंथी पार्टी का अनवरत उभार दूसरी विचारधारा के लोगों को हर हाल में एकजुट होने के लिए मजबूर करेगा। द्रविड़ मुन्नेत्रकड़गम, शिवसेना और अकालीदल को छोड़कर सभी क्षेत्रीय दल कांग्रेस जैसी ही विचारधारा रखते आए हैं। उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व और संगठन की कमजोरी का लाभ उठाया है क्योंकि उनके सर्वाधिक ताकतवर नेता कांग्रेस से निकले थे। लड़ाई जब आमने-सामने की होगी तब पल में माशा, पल में टोला होने वालों को दिक्कत पेश आएगी।
तेलंगाना में कांग्रेस की जीत यह भी साबित करती है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए विंध्य के इस पार और उस पार के हालात भिन्न हैं। कर्नाटक के अलावा वह किसी अन्य प्रदेश में बड़ी भूमिका निभाने में सक्षम नहीं साबित हुई है। यही वजह है कि 2024 में जब आमने-सामने की टक्कर होगी तब मतदाताओं का फैसला देखने लायक होगा।

इसी तरह  कांग्रेस को तय करना होगा कि सर्वाधिक सीट रखने वाले उत्तर और पश्चिमी राज्यों में वे कैसे चुनाव लड़ेगे? ये क्षेत्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ग्लैमर से चकाचौंध है। नतीजन, उसे  अपने सहयोगियों से लचीला व्यवहार करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है।

इन निराशाजनक खबरों के बीच कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने सोमवार को इंडिया गठबंधन की बैठक बुलाई है। तय है इन हालात में उन्हें सहयोगियों को अधिक सीटें देने पर बाध्य होना पड़ेगा।

एक बात और। इंडिया गठबंधन अभी तक जातिगत जनगणना के मुद्दे को अपना तुरुप का इक्का मान रहा था। इन परिणामों ने उसे फुसफुसा साबित कर दिया है। क्या यह मुद्दा सिर्फ बिहार तक ही सीमित होकर रह जाएगा?इस सवाल का जवाब आसानी से ढूंढना संभव नहीं है।

अगले महीने  राम मंदिर का लोकार्पण होने जा रहा है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्णधार मोहन भागवत और उनसे जुड़े संगठनों के लाखों लोग इस मौके को चुनाव तक भुनाना चाहेंगे। अगर माहौल अनुकूल बनता दिखा, तो संभव है कि आम चुनाव कुछ पहले खिसकाने की कोशिश की जाए, क्योंकि धर्म, समाज, कामयाब  अर्थनीति और मोदी की चमकदार शख्सियत एनडीए को इसके लिए प्रेरित कर सकती है।

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