चुनावी रेवड़ी या गरीबों की मदद
- आने वाले वक्त में सबके लिए काम जुटाना संभव नहीं होगा, ऐसे में सरकारों को गरीबों की आर्थिक मदद, बल्कि उनके आत्मसम्मान को चोट पहुंचाए बिना मदद का इंतजाम करना पड़ेगा…
आलोक जोशी
मुफ्त, मुफ्त, मुफ्त... चुनाव आते ही किसी क्लियरेंस सेल जैसा माहौल बन जाता है। रस्ते का माल सस्ते में की तर्ज पर राजनीतिक पार्टियां वादे पर वादा करती जाती हैं और अब तो ज्यादातर पार्टियां सरकार बनते ही उन वादों को पूरा करने में भी जुट जाती हैं। कई दशक पहले दक्षिणी राज्यों से शुरू हुआ यह सिलसिला अब करीब-करीब पूरे देश में फैल चुका है। चमत्कारी बात यह है कि हरेक पार्टी ऐसे वादे करती है और दूसरे पर उंगली उठाने का कोई मौका भी नहीं चूकती।
अभी झारखंड और महाराष्ट्र में चुनाव गर्मी पकड़ ही रहा था कि एक बार फिर यह किस्सा खुल गया। मजे की बात यह है कि इस बार वाद-विवाद की शुरुआत कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के एक बयान से हुई और वह भी कांग्रेस की सरकार वाले राज्य कर्नाटक में। खरगे के बयान को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लपक लिया और फिर कांग्रेस के नेता भी खुलकर मैदान में उतर गए। शुरुआत इस बात से हुई कि कर्नाटक सरकार महिलाओं के लिए मुफ्त बस सेवा देने वाली शक्ति योजना खत्म करने जा रही है। खरगे के सवाल उठाते ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और उप-मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने तुरंत उन्हें दुरुस्त किया और कहा कि योजना की समीक्षा की बात हुई है, खत्म करने की नहीं। लेकिन यह बात खुले मंच से हुई, जहां पूरे प्रदेश का मीडिया मौजूद था। खरगे ने एक तरह से राज्य के नेताओं को फटकार लगाई और कहा कि उन्हें ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, जिनका दूसरी पार्टियां फायदा उठा सकें। साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि ‘राज्य का बजट देखकर ही गारंटी देनी चाहिए। अगर आप बजट से ज्यादा की गारंटी दे देंगे, तो दिवालिया हो जाएंगे। सड़क बनाने के लिए मिट्टी तक नहीं मिलेगी और लोग आपको दोष देंगे।’ उनका यह बयान झारखंड व महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए था। उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस राज्यों के बजट का अध्ययन करेगी और उसके हिसाब से ही एलान किया जाएगा कि क्या गारंटी दी जाएंगी।
खरगे की इस बात से किसी को क्या ऐतराज हो सकता है? जो भी सुनेगा, यही कहेगा कि समझदारी की बात है, राजनीतिक दलों को ऐसा ही करना चाहिए। मगर राजनीति ऐसे तो चलती नहीं है। बीजेपी ने बात पकड़ ली और खुद प्रधानमंत्री मैदान में आ गए। उन्होंने कहा कि कांग्रेस गलत वादे करके बेनकाब हो गई है। इसके साथ ही भाजपा ने सवाल उठाना शुरू कर दिया कि सिद्धरमैया सरकार ने कर्नाटक की माली हालत खस्ता कर दी है और सरकार के पास वादे पूरे करने के लिए पैसे नहीं हैं। हालांकि, कांग्रेस की तरफ से इसका खंडन हो रहा है, लेकिन बाकी देश में यह विवाद छिड़ गया है कि चुनावी वादे जनता की भलाई के लिए हैं या फिर वोट जुटाने के लिए रेवड़ी बांटने की कवायद है?
और फिर महाराष्ट्र चुनाव के लिए महाविकास आघाड़ी, यानी कांग्रेस गठबंधन की तरफ से पांच गारंटियों का एलान भी हो गया। खुद राहुल गांधी ने यह एलान किया। इनमें महिलाओं के लिए तीन हजार रुपये महीने का भुगतान और महिलाओं व बच्चियों के लिए मुफ्त बस सेवा देने वाली महालक्ष्मी योजना पहली गारंटी है। दूसरी गारंटी है- किसानों के लिए तीन लाख रुपये तक की कर्जमाफी और कर्ज चुकाने वाले किसानों को पचास हजार रुपये की प्रोत्साहन राशि। इसे कृषि समृद्धि कहा गया है। तीसरी गारंटी है- राज्य में जातिगत गणना और आरक्षण में पचास प्रतिशत की सीमा खत्म करने का एलान। चौथी गारंटी है- पच्चीस लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा और मुफ्त दवाएं। पांचवां वादा है- बेरोजगार नौजवानों को प्रतिमाह चार हजार रुपये तक की सहायता।
मानना चाहिए कि कांग्रेस और उसके साथी दलों ने महाराष्ट्र का बजट पढ़कर ही ये वादे किए होंगे, लेकिन यह सवाल तो उठेगा कि इनमें से कितने वादे पूरे हो पाएंगे और क्या जनता इन पर भरोसा करेगी? यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस के वादों पर सवाल उठाने वाली भाजपा भी महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की ‘माझी लाडकी बहीण योजना’ पर जबर्दस्त जोर दे रही है।
ये चुनावी वादे हैं या रेवड़ी, यह सवाल दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही खड़ा किया था, जब कांग्रेस ने कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश के चुनावों में भी महिलाओं और नौजवानों के लिए ऐसे ही वादे किए थे। हिमाचल में कांग्रेस ने दस चुनावी वादे किए थे। तीनों जगह महिलाओं और नौजवानों को लुभाने के लिए उन्हें हर महीने भत्ता देने का वादा हुआ। कह सकते हैं, पार्टी को इसका फायदा भी मिला। लेकिन तेलंगाना में केसीआर और आंध्र में जगन मोहन रेड्डी अपनी सरकारों की कल्याणकारी योजनाएं गिनाते रह गए और वोटरों ने उनका साथ नहीं दिया। जबकि मध्य प्रदेश में भाजपा की जीत में ऐसी ही योजना की बड़ी भूमिका मानी जा रही है। राज्यों के चुनाव को छोड़ भी दें, तो देश की राजनीति में किसान सम्मान योजना, मुफ्त रसोई गैस, मुफ्त शौचालय, मुफ्त घर और मुफ्त अनाज योजना ने जो भूमिका निभाई है, उसे भला कैसे नजरंदाज करेंगे?
नोबेल विजेता अर्थशास्त्री भी अब कह रहे हैं कि आने वाले वक्त में सबके लिए काम जुटाना संभव नहीं होगा, ऐसे में सरकारों को न सिर्फ गरीबों को मदद देने, बल्कि बिना उनके आत्मसम्मान को चोट पहुंचाए मदद का इंतजाम करना पड़ेगा। केंद्र या राज्य सरकारों के हाल देखें, तो वे मदद पहुंचाने में अपना भी राजनीतिक फायदा देख पा रही हैं। सम्मान का सवाल अभी केंद्र में आ नहीं पाया है।
ऐसी परिस्थिति में लखनऊ के मशहूर नवाब आसिफुद्दौला की याद लाजिमी है, जिन्होंने 18वीं सदी में अकाल पीड़ित जनता को राहत देने के लिए इमामबाड़ा जैसी बड़ी इमारत बनवाई थी। इसमें हजारों लोगों को काम दिया गया, ताकि लोग मेहनत करके पैसा कमा सकें, उन्हें खैरात लेने की जिल्लत न झेलनी पडे़। तभी से यह जुमला प्रसिद्ध है- जिसको न दे मौला, उसको दे आसिफुद्दौला। क्या आज इसी अंदाज में राहत देना संभव नहीं रह गया है? काम के बदले अनाज और मनरेगा जैसी योजनाओं को मजबूत करना क्या बेहतर तरीका नहीं होगा? इस सवाल का जवाब सिर्फ सरकारों और राजनेताओं को नहीं, बल्कि उन्हें कुर्सी तक पहुंचाने वाले वोटरों को भी देना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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