आज के समय में यह सिर्फ एक शिगूफा

निर्वाचन आयोग ने महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभा चुनावों की तारीखों का एलान कर दिया है। महाराष्ट्र में जहां 288 सीटों के लिए एक चरण (20 नवंबर को) में वोट पड़ेंगे, वहीं झारखंड में 81 सीटों का चुनाव...

Pankaj Tomar हिन्दुस्तान, Wed, 16 Oct 2024 10:26 PM
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आज के समय में यह सिर्फ एक शिगूफा

निर्वाचन आयोग ने महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभा चुनावों की तारीखों का एलान कर दिया है। महाराष्ट्र में जहां 288 सीटों के लिए एक चरण (20 नवंबर को) में वोट पड़ेंगे, वहीं झारखंड में 81 सीटों का चुनाव दो चरणों (13 और 20 नवंबर) में होगा। कहने का अर्थ यह है कि महज 81 सीटों का चुनाव भी हम एक चरण में समेटने में अभी सक्षम नहीं हैं। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के चुनाव को अभी दिन ही कितने बीते हैं? निर्वाचन आयोग द्वारा मंगलवार को किए गए तारीखों के एलान के बाद इन दोनों राज्यों में सरकार का गठन हुआ है। जम्मू-कश्मीर में जहां बुधवार को नई सरकार ने शपथ ग्रहण किया, वहीं हरियाणा में आज मुख्यमंत्री शपथ लेने जा रहे हैं। स्पष्ट है, अगर ‘एक देश, एक चुनाव’ को लेकर इतनी ही संजीदगी होती, तो निर्वाचन आयोग कम से कम इन चार राज्यों में एक साथ चुनाव कराके अपनी तैयारी का परिचय दे देता। मगर वह ऐसा करने में नाकाम रहा। इसी कारण यह आशंका बढ़ जाती है कि कहीं एक साथ चुनाव कराने की घोषणा महज ज्वलंत बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकाने का कोई शिगूफा तो नहीं? समय-असमय उछाले जाने वाले ऐसे मुद्दों से हमें फिलहाल बचना ही चाहिए।
हेमा हरि उपाध्याय, टिप्पणीकार


कमजोर होगा संघीय ढांचा
एक बार फिर एक देश, एक चुनाव पर सार्वजनिक चर्चा शुरू हो गई है। यह जानते हुए भी कि ऐसी कोई व्यवस्था संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन है, इस पर आगे बढ़ने की बात कही जा रही है। वास्तव में, यह अलोकतांत्रिक कदम है और संघीय ढांचे को कमजोर करने की कोशिश भी है। इसका परिणाम राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगा। इससे राज्यों की स्वायत्तता भी छिनेगी। यह ठीक है कि इससे कुछ करोड़ रुपये हम बचा लेंगे, लेकिन सवाल यह है कि कुछ करोड़ रुपये बचाने के लिए जनता को मिले सरकार चुनने का यह अधिकार छीना जा सकता है? इसका जवाब निश्चित तौर पर ‘नहीं’ ही होगा। फिर, भारत जैसे विविधताओं और विषमताओं से भरे देश में राष्ट्रपति चुनाव के मॉडल से हटकर लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली अपनाने के पीछे हमारे संविधान-निर्माताओं की मंशा और सोच स्पष्ट थी कि जनता की अभिव्यक्ति को अधिकतम जगह मिले। याद कीजिए, राम मनोहर लोहिया का नारा- जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। इस नारे के निहितार्थ का हमें हर हाल में ध्यान रखना ही चाहिए।
संदीप सिंह, टिप्पणीकार

एक साथ जल्द होगा देश भर में चुनाव
किसी भी कामयाब लोकतंत्र में यह उम्मीद तो सभी करते हैं कि निर्वाचित सरकार अपना कार्यकाल पूरा करे और लोगों के भरोसे पर खरी उतरे। अपने यहां संविधान निर्माताओं ने विधायी संस्थाओं के कार्यकाल के लिए पांच साल का वक्त तय किया है। मगर इसमें दिक्कत तब होती है, जब पता चलता है कि देश हर वक्त चुनाव मोड में है। यानी, कहीं न कहीं चुनाव चल रहा है, जिसके कारण सरकार का कामकाज प्रभावित हो रहा है। फिर, नियमित चुनावों से संसाधनों पर भी दबाव पड़ता है और प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर भी। नतीजतन, जनता के हित के काम उस गति से नहीं हो पाते, जितनी अपेक्षा की जाती है। इन्हीं सब वजहों से पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की बात बार-बार की जाती रही है। अच्छी बात है कि इस बार रामनाथ कोविंद समिति की सिफारिशों पर सरकार राजी है और उम्मीद है कि जल्द ही एक देश, एक चुनाव की संकल्पना साकार हो सकेगी। 
यहां इस आरोप में कोई दम नहीं है कि अभी जब चार राज्यों के चुनाव ही एक साथ निर्वाचन आयोग नहीं करा पा रहा, तो पूरे देश का क्या करा सकेगा? ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि एक साथ चुनाव कराने की मांग खुद निर्वाचन आयोग वर्षों से कर रहा है। वह ऐसा करने में पूरी तरह से सक्षम है। वैसे भी, आजादी के बाद शुरुआती चुनाव पूरे देश में एक साथ ही हुए हैं, जबकि उन दिनों तकनीक व प्रौद्योगिकी में हम इतने धनी नहीं थे। 1951-52 के पहले आम चुनाव से शुरू हुई यह व्यवस्था 1967 में कुछ राज्यों में विधानसभाओं के भंग करने तक कायम रही। और, बाद में ऐसा हो गया कि पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव होता ही रहता है। यह तस्वीर इसलिए भी बदल सकती है, क्योंकि आज कृत्रिम बुद्धिमता का भी हमारे जीवन में प्रवेश हो चुका है। जब हम नई तकनीक के मामले में इतनी तरक्की कर चुके हैं, तब इस सवाल में कोई दम नहीं है कि निर्वाचन आयोग पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने में कितना सक्षम है? 
यकीनन, केंद्र सरकार एक देश, एक चुनाव को लेकर गंभीर है और इसीलिए उसने कोविंद समिति का भी गठन किया था और उसकी सिफारिशों पर तत्काल अमल के प्रयास भी शुरू कर दिए गए हैं। उम्मीद है कि संसद के शीतकालीन सत्र में इस बाबत बिल भी पेश किया जा सकता है। हां, इसे अमल में लाने में कुछ वक्त लग सकता है, क्योंकि कोई भी व्यवस्था बनाने में मेहनत और समय की मांग होती है। इसलिए, हमें धैर्य बनाए रखना चाहिए। 
महिमा, टिप्पणीकार 

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